सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 26 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-सात)

वर्ष 1994 की सुबह.समझ में नहीं आया कि शुभकामनायें लूँ कि दूँ.क्या आज मैं किसी को कुछ दे सकता हूँ.मेरी झोली तो खाली है.मैं अभी हारा नहीं हूँ,पर हारने की पीड़ा है.मैं निराश नहीं हूँ, पर उदास हूँ.मैं टूटा नहीं हूँ,पर दुखी हूँ.अपने जीवन को इस तरह जीने का तो मुझे अधिकार होगा ही और इसीलिए इस रणक्षेत्र में फिर एक नई तैयारी की ओर अग्रसर हूँ.
जनवरी का यह माह कुछ ख़ास गहमा-गहमी का नहीं रहा.कार्यालयीन विवाद तो चलते ही रहते हैं.यह सब मुझे प्रभावित भी नहीं करता है.हाँ, जनवरी में जो सबसे अलग-थलग हुआ,वह था इंदौर से गत पन्द्रह दिनों में अर्चना द्वारा प्रेषित तीन पत्र,जो उसने मुझे लिखे थें.इन पत्रों की भाषा बदली हुई थी.जैसे एक मित्र,दूसरे मित्र के सम्मान में लिखता है,ठीक वैसी ही भाषा.पत्र पाकर मैं आश्चर्यचकित अवश्य हुआ,परन्तु मैंने उन पत्रों का कोई उत्तर नहीं दिया.पर जब मैं इंदौर गया तो मैंने न जाने किस विचार से उससे मिलने की कोशिश की या हो सकता हो कि नियति मुझे छलने के लिए एक ओर चाल के साथ तैयार हो.
वह 28 जनवरी की सुबह थी,जब मैं अर्चना से मिला.एक ओर अदभुद अनुभव.हम कुल दस-पन्द्रह मिनट साथ रहे और उन दस-पन्द्रह मिनटों में अर्चना ही मुझसे बोलती रही.मैं लगभग ख़ामोश ही रहा,वैसे भी मेरे पास एक प्रेमी या एक दोस्त की तरह बोलने को कुछ था भी नहीं और मेरी समझ में भी नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलू. उसका पहला वाक्य था,"अच्छा हमारी याद आ गई."
इस बार मैं उसके साथ उसके महाविद्यालय तक गया.हम दोनों पैदल ही कोठारी मार्केट से रीगल चौराहे से होते हुए एम.वाय.अस्पताल से आगे कृषि महाविद्यालय तक पेड़ों के झुरमुटों से होते हुए उसके महाविद्यालय तक पंहुचे थें.उन पेड़ों के झुरमुटों वाली सड़क पर अर्चना ने मेरे लिए एक निषेधाज्ञा लागू कर रखी थी.पर आज वह सब कुछ नहीं था.मैं अनमना-सा उसके साथ चल रहा था.वह मेरे विषय में पूछती रही,मेरे और अपने घर के बारे में पूछती रही.मैं नपा-तुला उत्तर देता रहा.जब उसका महाविद्यालय आ गया तो उसने मुझसे फिर मिलने को कहा,मैं कोई जबाब देता,उससे पहले ही उसने अगले सोमवार की मुलाक़ात तय कर दी.मैं भी हाँ करके चला आया.
आगामी सोमवार को मैं भोपाल से दोपहर साढ़े बारह बजे इंदौर पँहुचा.एक मित्र के कमरे पर सामान रखकर मैं सीधे अर्चना से मिलने चला गया.दोपहर दो बजे हमारा मिलना तय हुआ था.मैंने ढाई बजे तक उसकी प्रतीक्षा की,फिर महाविद्यालय जाकर पता किया तो पता चला कि आज तो क्लास लगी ही नहीं हैं.मैं खिन्न,पर हर नाराज़गी से दूर वापिस अपने मित्र के कमरे की चल दिया.तब ही चौराहे पर वह मुझे मिल गई और देर से आने के लिए माफ़ी भी मांगी.मैं कुछ नहीं बोला.हालाँकि उसे यह अपेक्षा रही होगी कि मैं उससे हमेशा की तरह शिकायत करूगाँ,जबकि उसके ठीक विपरीत मैंने उससे कहा कि कोई बात नहीं और अगर कोई और काम हो तो वह अभी जा भी सकती है, हम फिर कभी मिल लेंगे,पर वह नहीं गई और हम शाम तक साथ में ही रहे और साथ ही खान भी खाया.राजवाडा,खजुरी बाज़ार,सराफा,क्लाथ-मार्केट में घूमते रहे.उसने कुछ शापिंग की और फिर मैंने उसे उसके होस्टल छोड़ दिया और अगले माह के दूसरे शनिवार को हमारा मिलना तय हुआ.
इस मिलन की मुख्य बातें यह रहीं कि मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि अब तुम पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. अब मैं तुम्हे एक मित्र से ज़्यादा नहीं लेता हूँ,हाँ प्यार अब भी करता हूँ क्योंकि उसका कोई अंत नहीं है,पर अब उस प्यार का भी कोई महत्त्व नहीं है और मैं भी अब आगे बढ़ने में उत्सुक नहीं हूँ.
उसके ठीक विपरीत अर्चना ने पूरे समय यही जताने की कोशिश की कि ऐसा सोचना ग़लत है.मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए,जीवन में यह सब तो होता ही रहता है,हम अब भी अपने संबंधों की एक नई शुरुआत कर सकते हैं.उसने कहा कि चलो मैं मानती हूँ की मेरा ही दिमाग़ ख़राब था और मैंने ही तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया,पर उसके लिए मेरी परिस्थिति कहीं अधिक जिम्मेदार थीं और फिर मैं एक लड़की हूँ,मुझे तो बहुत सोच-समझकर चलना होता है.चलो अब जाने भी दो,हम एक नई शुरुआत करते हैं.पर मैं ऐसा करने को उत्सुक नहीं था.
"रवायत है कि हँस के है रोना,
किसी के आसूँ पौछ - अपने आसूओं में डूबना,
बहुत चाहा-बहुत प्यार किया किसी को,
फिर अपने ही ग़म में जलना ज़िन्दगी...."

मैं अब पुनः किसी दुःख पड़ने को उत्सुक नहीं था.
काश ममता, आज तुम होती तो देखती कि तुम्हारा यह राज कैसे-कैसे छलों से होकर गुजरा है.जीवन कहाँ से प्रारम्भ किया था और अब जीवन कहाँ आ पहुँचा है.इन दुखों की-इन पीड़ाओं की गठरी को कहाँ तक और कब तक ढोता रहेगा तुम्हारा यह राज.क्या कहीं कोई सुबह है तुम्हारे इस राज की यह रात ही अपना अँधेरा लिए सुबह के उजाले का रास्ता रोके खड़ी है.उजाले भी असहाय-निर्बल से खडे हैं.तुम्हारा यह राज अब क्या करे.अब मुझे बताओ कि क्या प्रेम अपने साथ सहजता के नाम पर इतनी असहजता को ढोता है?काश ममता, आज तुम होती.....!
अर्चना का पूरा ज़ोर इस बात पर था कि मैं एक बार फिर नए सिरे से प्रारम्भ करुँ.और मैंने अर्चना से कहा कि तुम मुझे छोड़कर किसी और अन्य लड़के को ढूंढ़ लो और उसके साथ शादी कर लो.तुम्हारी शादी की सबसे ज़्यादा खुशी मुझे होगी.फिर मैं भी,तुम्हारी शादी तक तुम्हारी हर मदद करने के लिए तैयार हूँ.तुम चाहो तो अपने खर्च के लिए कोई पार्ट-टाइम जॉब ढूंढ़ लो,इससे तुम्हे अनुभव और पैसा दोनों ही मिलेंगें.मैं यहाँ इंदौर में कुछ लोगों को जानता हूँ,मैं कहूँगा तो वह तुम्हे कोई-न-कोई जॉब तो दे ही देंगे.इसके लिए वह तैयार हो गई,पर इसके लिए उसे अपना होस्टल छोड़ना पर सकता था,तो इस पर मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए एक कमरे का भी इंतजाम कर दूंगा.मैंने उसके जॉब के लिए अपने एक परिचित से बात करी तो वह अर्चना को काम देने के लिए तैयार हो गए और उन्हीं से मैंने एक कमरा भी ढूंढने के लिए कह दिया.अर्चना ने भी अपनी सहमती दे दी. इस तरह हमारी वह मुलाकात खत्म हो गई और मैं वापिस बामनिया चल दिया.
फरवरी लग चुकी थी,भोपाल में मेरे मित्र राजेंद्र की शादी अहमदाबाद में थी.भोपाल में सभी मित्रों का आग्रह था कि मैं पहले भोपाल आऊं और फिर यहीं से सब साथ-साथ अहमदाबाद चलेंगे,जबकि मेरा मत था कि यहाँ बामनिया से अहमदाबाद पास में है तो मैं यहीं से सीधा अहमदाबाद पहुँच जाउँगा.उसके पहले मैं इंदौर आफिस के काम से गया और वहीँ मेरी अर्चना से भी भेंट हुई.हम दोनों साथ-साथ खजराना के गणेश मन्दिर भी गए.
"अभिव्यक्ति प्रेम की सिमट गई तुम स्वयं में,
फिर शरमाई-इठलाई या रूठी पता नहीं,
और विमूढ़-हतप्रभ-अवाक्-सा मैं,
क्या जानू कि भला रहा या बुरा रहा,
इस तरह, एक अर्चना में खो जाना मेरा,
पाप था क्या मेरे लिए,
प्यार करना-तुमसे मेरा."

इंदौर में खजराना में गणेशजी का प्रसिद्द मन्दिर है.इस मन्दिर की काफी मान्यता है.हर मंगलवार-बुधवार और हर चतुर्थी को यहाँ दर्शनार्थियों का मेला-सा लगता है.उस दिन भी हम-दोनों ने वहां दर्शन किए और पूरे दिन साथ-साथ ही रहे.
यहाँ से हमारे संबंधों का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ,शायद नियति ने ही यह अध्याय प्रारम्भ किया था और मुझे इसके अंत को लेकर भय-संशय आदि भी था.यहाँ से हमारे संबंधों के समीकरण बदल गए.शायद पहली बार हम-दोनों इतने क़रीब-क़रीब थें कि सारे फ़ासले,फ़ासलों पर छूट गए थें.निश्चित रूप से वह मुझे खोना नहीं चाहती थी,नहीं तो उसने कभी भी मुझे अपने इतने क़रीब नहीं आने दिया था.
"छुईमुई तुझे तो -
छूना भी पाप है......"

वह भावनाओं और उत्तेजना के नाजुक क्षण थें,जब मैंने उससे पूछ लिया,"अच्छा बताओ,अब मुझसे शादी कब कर रही हो?"
उसने कहा, "परीक्षा के बाद."
पर अगले ही क्षण मुझे लगा कि मैंने फिर एक नए स्वप्न को जन्म दे दिया है.पीड़ाओं के नए द्वार तो नहीं खोल दिए हैं.यह मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने एक गहरी साँस ली.मुझे लगा कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था.पर अब क्या, अब एक स्वप्न जन्म तो ले चुका था.अर्चना ने मुझे अनमना देख पूछा,"क्या हुआ?"
मैंने सिर झटककर कहा,"कुछ नहीं."
वह बहुत देर तक अपने अस्त-व्यस्त बालों-कपड़ों को सम्हालती-सवांरती,मेरे अनमनेपन को समझने की कोशिश करती रही या वह मेरे अनमनेपन को भाप चुकी थी.मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता.पर मुझे अन्दर से लग रहा था कि मुझे यह बहकना कहीं गहरे दुखों में न धकेल दे.
हाँ, यह सत्य है कि यदि अर्चना यहाँ इंदौर आने से पूर्व मुझसे सलाह लेती तो मैं उसे यहाँ आने ही नहीं देता.पर अब तो बात ही अलग हो चुकी थी. शाम को मैं उसे मेरे एक परिचित ज्योतिषी तारे के पास ले गया.इस बार मैंने अर्चना की पत्रिका उसे दिखाई तो उसने अर्चना को कई बातें बताई और साथ ही उसे उसके परिवार के विषय में भी बताया.अर्चना अवाक् उसे सुनती रही.मैंने अंत में तारेजी से कहा कि मैं इस लड़की से शादी करना चाहता हूँ,तो वह मुझे यह बतायें कि हमारी शादी के क्या योग हैं और हमारा जीवन कैसा व्यतीत होगा तो उन्होंने अर्चना की पत्रिका देखते हुए एक अनूठी ही बात कह दी.उन्होंने अर्चना से कहा कि तुम जिस लड़के से विवाह के बारे में सोच रही हो,उस लड़के से विवाह की तुम्हारी मानसिकता नहीं बन पा रही है,बस परिस्थितिवश तुम उससे विवाह करना चाहती हो.अर्चना चुप ही रही और मैं.........मेरे पास तो कुछ बोलने को बचा ही नही.
इस एक वाक्य ने मुझे अंतरात्मा तक छू लिया.काफी गहरे जाकर लगी मुझे यह बात.मुझे स्वयं पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जब मैं अर्चना को लेकर हर पहलु पर इतना सोचता था कि कई बार मुझे लगता था कि जैसे मेरे दिमाग़ की नसें ही फट जायेगीं,तब मेरे दिमाग़ में यह बात क्योंकर नहीं आई की जो लड़की गाहे-बगाहे मुझसे यह कहती रहती है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ और जिस तरह का व्यवहार वह मुझसे करती आई है,फिर उसका यह पल-पल रंग बदलना.....कहीं वह यह सब अपनी मनःस्थिति से तो नहीं बोलती है? और कहीं कोई मज़बूरी तो उसे मेरे क़रीब नहीं ला रही है?मेरे अंतरतम ऐसे कई प्रश्न मुझे मथने लगे.
"होगें तेरे सबसे क़रीब हम,यह ख्या़ल था हमें,
लमे हाथ जाते न जाते, सब ख़्वाब टूट चले.'

तारेजी के इस एक वाक्य ने सारे समीकरण ही बदलकर रख दिए. मैं अचानक गुरु-गंभीर हो गया.एक भारी चुप्पी लिए हम-दोनों वहाँ से बाहर निकल आए.अर्चना चुपचाप मेरे साथ चलती रही.उसके अन्दर क्या चल रहा था,मेरे पास इस सबका आंकलन करने का समय नहीं था.मैं स्वयं कि मनःस्थिति के आंकलन में लगा हुआ था और वह इसे अच्छी तरह समझ रही थी.हम दोनों इस समय महारानी रोड से निकलकर सब्जी-मंडी होते हुए कृष्णपुरा की छतरी तक चुपचाप ही चलते हुए आ गए थें और जब हमारे रास्ते अलग होने का समय आया तो चूँकि उसे कोठारी मार्केट अपने होस्टल तक जाना था और मुझे किशनपुरा से परदेशीपुरा के टेंपो पकड़ना था.छतरी एक कोने पर हम आकर रुके,सड़क के उस पार टेंपो-स्टैंड था और यह सीधी राह कोठारी मार्केट की और जा रही थी.कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने अर्चना से कहा,"अर्चना, दोपहर में मैंने जो कहा था,मैं उन सभी शब्दों को वापिस लेता हूँ और अब यदि तुम मुझसे शादी करना चाहती हो तो किसी मज़बूरी से नहीं,किसी भावनात्मक रूप से नहीं, वरन अपनी मनःस्थिति को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लेना.मुझे तुमसे किसी मज़बूरी के कारण शादी नहीं करनी है."
उसके पास मानो कुछ भी कहने को नहीं बचा हो.उसके लिए शब्द गुम हो चुके थें,ज़ुबान पर तालें पड़ चुके थें या पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था,यह तो वही बेहतर जानती होगी.बहरहाल,उसने कुछ भी नहीं कहा और ख़मोशी से मुझे सुनती रही.मैंने आगे कहा,"देखो अर्चना, यहाँ से दो रास्ते हैं,एक सामने वाला रास्ता है जो मुझे मेरे घर तक ले जाएगा और एक यह रास्ता है जो तुम्हे तुम्हारी मंज़िल तक ले जाएगा और हम दोनों आज ही यह रास्ते अलग-अलग कर लें तो.......?"
वह चुप रही.....और फिर हम कुछ देर तक बिना बोले ही वहाँ खड़े रहे.अंत में मैंने ही कहा,"चलें."
उसने पहली बार कहा,"हाँ,कल मिलते हैं."
और फिर वह बड़ी ख़मोशी से कोठारी मार्केट की और चल दी और मैं उसे वहीँ खड़ा हुआ जाता देखता रहा और फिर मैं भी परदेशीपुरा की और चल दिया.
उस पूरी रात मैं सो नहीं पाया.ढेरों विचार मुझे मथते रहें. हर बार यही लगा कि प्रेम के लिए भावनाओं का मूल्य चाहे जो भी रहा हो, मनःस्थिति भी उतनी ही आवश्यक है.मैंने पहले इस पहलु पर ध्यान क्यों नहीं दिया.अब तो यह बहुत ही आवश्यक हो गया है.वैसे भी मैं मनःस्थिति का पक्षधर रहा हूँ,यह मनःस्थिति ही है जो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाती है और जीवन के कई निर्णयों में यही मनःस्थिति सार्थक सिद्ध होती है.इस तरह कई-कई विचारों के साथ मैंने वह रात गुजार दी.दूसरे दिन सुबह मैं अर्चना के पास गया और हम उसके लिए एक आशियाना ढूंढने लगे.उस लेकर मैं अपने एक मित्र के घर गया और उससे भी मैंने एक कमरा किराये पर लेने बाबत कहा तो वह बोला कि एक कमरा मेरी नज़र में है,यदि मकान-मालिक मिलता है तो मैं तुम दोनों को वहाँ ले चलता हूँ और फिर वह मकान-मालिक को देखने चला गया.तब मैंने अर्चना को अपने पास बैठकर बड़ी संजीदगी से कहा कि अब यदि तुम्हे मुझे अपने पति के रूप में चुनना हो तो तुम्हे पहले अपनी मानसिकता उस अनुसार बनानी होगी.तुम्हारे जीवन में चाहे लाख कुछ घट रहा हो और तुम किसी दबाब में आकर मुझसे शादी करना चाहती हो और तुम्हे मुझसे प्रेम ही नहीं हो तो ऐसे विवाह का क्या फायदा?हम क्यों जीवन भर का दुःख मोल ले लें? फिर मैंने उसके सामने पहली बार अपने सारे आर्थिक-सामाजिक पहलू रख दिए और उससे यह भी कहा कि माना मैं शब्दों या वाकचातुर्य में निपुण हूँ,पर तुम मेरी किसी भी बात में मत आना.अपना निर्णय स्वयं के विवेक के आधार पर ही लेना.अब तुम्हे अपने भविष्य के विषय में स्वयं ही सोचना है.मुझे मत सोचना-मेरे बारे में मत सोचना.कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे बाद में पछताना पड़े और घर कलह का मैदान बन जाए.मेरे जीवन में प्रेम का महत्त्व है,यदि आपस में प्रेम है तो हम-दोनों हर परिस्थिति में भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर लेंगे,पर यदि प्यार ही नहीं है तो रिश्ते निभाने से ज़्यादा ढोने पड़ जाते हैं. मैं यह सब पसंद नहीं करूगाँ.अंतहीन दुखों का जो सिलसिला प्रारम्भ होगा,उसे मैं सहन नहीं कर सकता. मैं ऐसी किसी भी स्थिति के लिए तैयार नहीं हूँ.मैं बहुत अधिक सुख कि चाह में नहीं हूँ,पर जीवन में-घर में शान्ति अवश्य चाहता हूँ.जीवन में शान्ति है तो सारे सुख हैं.
वह भी मेरी बातों से सहमत हुई और तय हुआ कि वह इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करेगी और अपने निर्णय से मुझे अवगत करा देगी.
"प्यार कीजिये फूलों से कुछ इस तरह,
कि हँसते हुए कांटें भी साथ में कम लगें."

यह हमारे संबंधों का - प्रेम का एक नया आयाम था.

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