सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

रविवार, 1 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (भाग-आठ)


उसी रात मैं अहमदाबाद,पटेल की शादी में शामिल होने के लिए चल दिया.रात्रिकालीन बस आरामदेह मिली अतः दिन भर की थकन के बाद मैं रत भर आराम से सोता हुआ सुबह नडियाद पहुंचा और फिर वहां से बस पकड़कर पेटलाद पटेल के घर पहुंचा और फिर पूरा दिन मित्रों के साथ गहमागहमी में बीता.इन दिनों गुजरात में पानी की बेहद कमी थी, अतः शादियों में मेहमानों की संख्या पर भी प्रतिबन्ध था.शादी भी दिन में ही करने का आग्रह सरकार की तरफ से था और सरकारी आग्रह का मतलब होता है कि उसे मानने में ही भलाई है,अतः यहाँ भी वही सब हो रहा था.मेहमानों के अंतर्गत सिर्फ हम सब बाहर से आये लोगों को गिना गया था,बाकी सब तो स्थानीय ही हो गए थें.इन सभी हलचलों के बीच हम शादी का मज़ा भी लेते रहे और दुसरे दिन हम सभी मित्र बाराती बनकर अहमदबाद आ गए.अहमदाबाद भारत का एक बड़ा औध्योगिक शहर है.इसकी अपनी संस्कृति और अपना ही रंग है.गुजरात का केंद्र बिंदु होने के कारण इसकी गिनती देश के महानगरों की श्रेणी में होती है. यहाँ हम दिन भर शादी में व्यस्त रहे. यहीं हम सभी मित्रों ने द्वारका-सोमनाथ जाने का कार्यकम बना लिया और रात को जब हम सोमनाथ जाने के रवाना हुए तो सोमनाथ जाने का मेरा वर्षों पुराना स्वप्न साकार होने को था.गलत डब्बे में सवार होने के कारण हमें आधी रात तक परेशान होना पड़ा,पर अंततः सब ठीक हो गया और जब सुबह वीरावल से सात किलोमीटर दूर सोमनाथ पहुंचे तो अरब सागर की ठंडी हवाओं ने हमारी सारी थकान और परेशानी छीन हर ली.सुरम्य-सौम्य अरब सागर के किनारे खड़ा सोमनाथ भारतीय इतिहास का वह पन्ना है,जिसके रक्त की स्याही आज भी नहीं सूखी है.इसी मंदिर के विशाल प्रांगण में ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी में विश्व-प्रसिद्द युद्ध हुआ था जिसने भारतीय इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया था.इतिहास इसे हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए लड़ा गया युद्ध बताता है पर मेरा मानना यही है कि यह भारत की संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ा गया वह युद्ध था,जिसके आधार पर कालांतर में इस्लाम के आक्रामक तेंवरों के बाद भी भारतीय संस्कृति जस की तस् बची रह पायी है क्योंकि इस युद्ध ने आगे के ऐसे सभी संघर्षों को अपनी उर्जा दी है.इस महान गाथा पर हमारे साहित्य में दो महत्वपूर्ण उपन्यास हैं, एक आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखित,"सोमनाथ" और दूसरा कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित,"जय सोमनाथ" है.हमारा गौरवशाली अतीत के जीवंत दस्तावेज़.सात किलोमीटर लम्बा कब्रिस्तान इसका आज भी साक्षी है.जबसे मैंने यह दोनों उपन्यास पढ़े थे,तब से ही सोमनाथ जाने की इच्छा थी और आज अरब सागर के किनारे खड़ा मैंने प्रकृति की इस अनुपमता और अतीत के रोमांच के बीच खुद को विस्मित-सा पा रहा था.

दोपहर को हम मंदिर में थें.संगीत की ऐसी भक्तिमय लय पहली बार ही सुनी थी.भक्ति-संगीत का अनूठा आनंद लेकर हम मंत्रमुग्ध से जब मंदिर से बाहर निकले काफी देर तक हम चुप ही रह गए थे.दोपहर के बाद हमने द्वारका की और प्रस्थान किया.यह पूरी यात्रा समुद्र के किनारे-किनारे ही थी.सोमनाथ से द्वारका करीब ढ़ाईसौ किलोमीटर दूर है.रास्ते में हम पोरबंदर भी रुके, महात्मा गाँधी की जन्म-स्थली,अतः विश्व में इसका अपना महत्त्व है.समुंदर के किनारे-किनारे का यह सफ़र बहुत ही सुहावना था.पास में ही हर्षद नामक जगह है,जहाँ हरसिद्धि देवी का प्राचीन मंदिर है.यहाँ भी हम आरती के समय ही पहुँचे और एक बार फिर भक्तिमय संगीत की मधुरता का अमृत छका. रात को हम द्वारका पहुँचे.हिन्दुओं के चार धामों में से पश्चिम दिशा का धाम है द्वारका.श्रीकृष्ण की नगरी - द्वारका.द्वारिका अर्थात् द्वार,द्वार,पावनता का - पुण्य का - धर्मं का - पुरुषार्थ का - प्रेम का - मोक्ष का.रात्रि विश्राम हमनें एक धर्मशाला में किया और अल सुबह आरती में शामिल होने के लिए मंदिर में प्रवेश किया,अर्थात् श्रीकृष्ण की द्वारिकापुरी में प्रवेश किया था.हम सभी बहुत ही आनंदित थें.दिन भर हम द्वारका में घूमते रहे. द्वारका नगर पंचायत द्वारा द्वारका-दर्शन कराया जाता है और यह यात्रा और अधिक आनंदित देने वाली हो जाती है.दोपहर बाद हम सभी सागर किनारे,उसकी लहरों का संगीत और उसकी लहरों से अठखेलियाँ करने पहुँच गए और फिर तीन घंटे तक हम सभी सागर किनारे सन-सेट तक वहीँ मस्ती करते रहे.रात को फिर सफ़र शुरू हुआ अहमदाबाद की और.

सुबह अहमदाबाद पहुंचे तो पता चला कि गुजरात के मुख्यमंत्री का निधन हो गया है.अतः अहमदाबाद सहित पूरा गुजरात बंद था.बंद अहमदाबाद बहुत ही उदास लग रहा था.मित्रों की इच्छा थी कि यहाँ से कुछ खरीददारी की जाए और वह अरमान तो रह ही गया.मेरी यह अहमदाबाद की कोई पहली यात्रा नहीं थी अतः मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था पर बाकी सभी मित्र उदास थें. तब मैंने ही पास में गांधीनगर में अक्षरधाम देखने का कार्यक्रम बना लिया और सब तैयार भी हो गए.दोपहर में हम सभी अक्षरधाम पहुँच गए.

अक्षरधाम गुजरात के स्वामीनारायण पंथ का विशाल और भव्य मंदिर है.स्वामीनारायण पंथ गुजरात लोकप्रिय पंथ है,जिसमें स्वामी नारायण के सानिध्य में हरी भक्ति की जाती है.यहाँ विज्ञान और धर्म का ऐसा अद्भुद संगम है कि आप चकित से - मंत्रमुग्ध से रह जाते हैं.महाभारत के मायामहल जैसा यह मंदिर अत्याधिक आकर्षक एवं मोहक है.यहाँ का विशेष आकर्षण है यहाँ का 14 पर्दों वाला थ्री-दी थियेटर.शाम को हम सभी मित्रों ने अहमदाबाद से अपने-अपने धाम की और प्रस्थान किया.सुबह झाबुआ पहुंचकर मैं बामनिया आ गया और फिर थकान उतारने में लग गया..25 फरवरी को मैं इंदौर गया पर अर्चना से मिलने जान-बुझकर नहीं गया.वहीँ से मैं भोपाल चला गया.मैं अपने पिछले प्रवास में ही अर्चना से कह आया था कि मैं अब उससे मिलने नहीं आऊँगा.भोपाल से जब मैं पुनः बामनिया पहुँचा तो अर्चना का पत्र मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.इस बीच अर्चना की छोटी बहन का एक्सीडेंट हुआ था और अर्चना उसे देखने बामनिया भी आई थी पर मैं बामनिया था नहीं तो वह नन्द से मेरे बारे में पूछकर चली गई थी.मैंने पत्र खोलकर पढ़ना शुरू किया तो पाया कि पत्र की भाषा काफी बदली-बदली हुई थी.एक रोमांचक भाषा.आज हमारे संबंधों की यात्रा "राज" से "प्रिय राज" के सफ़र से होती हुई,"डियर राज" और "राजजी" के पढ़ाव को पार करती हुई "मेरे राज" के पढ़ाव पर थी.कल संबंधों के यह संबोधन कहाँ पहुचंगे कह नहीं सकता.

"प्यार-वफ़ा-दोस्ती-रिश्ता,सुना तो बहुत है इन लफ्ज़ों को,

कोई तो बताये ऐ "बादल",इनकी पहचान क्या है."

संबंधों की अंतर्यात्रा का अगला पढ़ाव शुरू हुआ.अर्चना तुम शायद ही कभी समझ पाओ कि जीवन में जब प्रेम ही प्रधान हो जाता है और जब जीवन का सारा गणित प्रेम का ही समीकरण बन जाता हो और प्रत्येक स्पंदन की गूँज में जब प्रेम ही राग बनकर संगीत की स्वर-लहरियां छेड़ने लगता है तब जीवन की भावनात्मकता और व्यावहारिकता में और इससे जुड़ी रोज़मर्रा की संगतियों-विसंगतियों में सामंजस्य बैठाना कितना दुष्कर कार्य होता है

इसी दुष्करता में मैं सामंजस्य बैठाने में लगा हुआ था.एक तरफ है मेरा परिवार,रिश्तेदार-मित्र आदि,जहाँ इनसे जुड़ी सामजिकता में मेरा अपना एक स्थान है.उस सामाजिकता की उपादेयता मेरे लिए क्या है,यह सोचना निरर्थक है,क्योंकि जीने के प्रति मेरे अपने मापदंड हैं.मेरी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं.मेरा अपना तरीका है-क्षमता है अतः उपादेयता के सन्दर्भ मेरे लिए बौने ही हैं.और अर्चना एक दूसरा पहलु है.अपनी सामाजिकता की अनदेखी करना या उसकी उपेक्षा करना कहाँ तक की समझदारी है,यह मैं नहीं जानता क्योंकि हम सभी कहीं न कहीं तो किसी न किसी स्तर पर तो एक-दुसरे से जुड़े हुए ही हैं और फिर जब आप समाज की कतिपय प्रतिबद्धता के स्पष्ट विरोध में अथवा उसके प्रति आक्रामकता का रुख़ रखते हों तो यह और आवश्यक हो जाता है कि इसी समाज में अपनी भूमिका के प्रति गंभीर और स्वयं की प्रतिबद्धताओं-तरीकों-क्षमताओं-उपादेयता के चलते,इसी समाज के एक हाशिये पर समर्पित भी रहें,क्योंकि आखिर में हम सब एक-दुसरे पर निर्भर हैं.आज हमारे समाज में सामाजिकता भी राजनीति की शिकार हुई है और इसी राजनीति की तर्ज़ पर आज समाज अपने हितों की उपेक्षा न तो कर सकता है और न ही उपेक्षा सहन कर सकता है.उसी तरह आपको भी अपने हितों की रक्षा करना अनिवार्य हो जाता है.जिस तरह से हम अपने ढंग से जीने के लिए स्वतंत्र हैं,उसी तरह यह समाज भी हम पर अपने अंकुश थोपने के लिए स्वतंत्र है.अब यह हमारी जीवन-शैली पर निर्भर करता है कि हम sabhi अपनी-अपनी स्वतंत्रता में समाज को कहाँ और कितना स्थान देते हैं.मैं तो अपनी कहता हूँ - मैं तो समाज को हाशिये पर रखकर चलता हूँ.और अर्चना यदि मैं इस समाज पर कुछ भी कहूं तुम तो इन सबसे जुड़ ही जाती हो.मेरा कहना तो सिर्फ इतना है कि मेरा परिवार भी मध्यमवर्गीय है और इसी परिवार में एक लड़की, मेरी बहन भी है और मुझे अपने हितों में एक हित मेरी बहन का विवाह भी नज़र आता है,जिससे मैं न तो आँखें चुरा सकता हूँ और न ही आँखें फोड़ सकता हूँ, न ही आँखों पर पट्टी बांधकर रह सकता हूँ.

"उसका घर और मेरा घर,

घरों के गणित में - आओ चारदीवारी के पीछे प्यार करें,

पर कौन-सी दीवारें.....!

किसी ने कहा,

नहीं कोई घर......."

यह कविता है और लिखने के लिए शब्दों का अपना संसार होता है.यह संसार एक अलग ही ज़मीं से जुड़ा होता है.इस धरा से थोडा ऊपर और इस आकाश से थोडा नीचे.....यह है लेखन.मैंने इसे जीवन बनाकर भी जीया है और समाज बनकर भी जीया है.मेरा लेखन मेरा प्रतिबिम्ब है,आधी हकीक़त का पूरा फ़साना,पूरे फ़साने की आधी हकीक़त.यहाँ से वहां तक फैला यह शब्दों का जाल जिस पीड़ा की बुनियाद पर बुना गया है,उस पीड़ा में मैं,उस पीड़ा को अपने शैशव की किलकारियों से आज तक जीए एक-एक पल में,जिसमे प्रेम और घ्रृणा,ख़ुशी और उदासी,सुख की चाह और दुखों का चुनाव आदि सभी हैं,से पाया है.यह पीड़ा-यह दुःख मेरी अपनी निजता है.इसमें मेरी माँ के मृदुल स्पर्श से लेकर तुम्हारे प्रेम का स्पंदित स्पर्श तक उपजी पीड़ाओं का जीवंत दस्तावेज़ है.और इसके ठीक विपरीत मेरा वह रूप है,उस राज का,जहाँ वह अपने जीवन के हर आने वाले पल में से उस पल को ढूंढ़ रहा है,जहाँ वह अपने अनावृत जीवन को ढाँक-ढाँप कर थोडा-सा जी सके और इसके लिए यह राज सर्कस के जोकर की तरह,तरह-तरह के यत्न कर रहा है.यही तुम्हारा राज है अर्चना और तुमने तो इस राज के दोनों रूप देखे हैं.उन्हें जाना या नहीं जाना,उन्हें प्यार किया या नहीं किया,यह तुम जानो. मैंने अपने जीवन में बहुत से सपने रचे हैं और जब तुम मेरे जीवन में आईं तो मैंने तुम्हे लेकर भी कई-कई सपनों को जन्म दिया है.हालाँकि जीवन की कटु यथार्थता स्वप्न को नहीं मानती है.वहां तो आपका मूल्यांकन होता है,आपके सपनों का नहीं.वहां तो स्वप्न बेमानी हैं.जीवन की यथार्थता को तो सीधा-सा उत्तर चाहिए कि यह अर्चना तुम्हारे लिए क्या है? उसे प्रेम से क्या लेना-देना.

"दस्तूर है यह तो दस्तूर निभायेगें,

किसी की होगी जफ़ा और बदनाम हम होगें,

है बहुत खुबसूरत मंजरों की दुनिया,

पर अपने लुटे घर में रहना ज़िंदगी."

7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

धन्यवाद,पूरा तो नही पड़ पाया पर समय मिलने पर ज़रूर पडूंगा,वाकया रचना अच्छी है,
हमारे ब्लॉग पर आकर अपने अनुभव बताना न भूलें .
sarparast.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

Bahut khubsurati ke sath likha hai, prem har kisi ke jeevan me aata hai, mere sath bhi kuchh pal ghate hai jindgi ke.
Agle bhagon ka intjar rahega.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सुंदर रचना......स्वागत है..

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

ब्लाग संसार में आपका स्वागत है। लेखन में निरंतरता बनाये रखकर हिन्दी भाषा के विकास में अपना योगदान दें।
रचनात्मक ब्लाग शब्दकार को रचना प्रेषित कर सहयोग करें।
रायटोक्रेट कुमारेन्द्र

Unknown ने कहा…

आप सभी सुधिजन मेरा प्रणाम स्वीकार करें.आप सभी ने जिस तरह मेरी इस रचना को सराहा है,उसके लिए आप सभी को साधुवाद.हिंदी ब्लॉग का संसार अपनी समृद्धि की और अग्रसर है.पर अभी हमें और भी कार्य करने की आवश्यकता है.मैंने तमिल और बांग्ला के ब्लॉग भी देखे हैं और यही अनुभव किया है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाएँ कहीं अधिक सक्रिय है.हमे उनसे सीखना चाहिए,सभी भारतीयों भाषाओँ को संघटित होना होगा और फिर कार्य करना होगा.आज हम तकनीकी रूप से कहीं अधिक सक्षम हैं और हमें एक भाषा से दूसरी भाषा में जाकर अपना संसार और विस्तृत करना होगा.हिंदी ब्लॉग में ही अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है.पुनश्चः,आप सभी मेरा प्रणाम स्वीकार करें.धन्यवाद.

Unknown ने कहा…

धन्यवाद वंदना.

Unknown ने कहा…

धन्यवाद आनंदजी,आपका ब्लॉग भी अच्छा है और आपकी-हमारी पसंद की पुस्तकें तो एक जैसी ही हैं.