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रविवार, 4 जनवरी 2009

उपन्यास, पल-प्रतिपल (भाग-एक)

पल-प्रतिपल (भाग-एक)

"किसे सुनाये यह दास्ताँ कि हमने भी बनाया था एक आसमां,
और उड़ने की चाह में दर-दर भटकते फिरे थे"

आज 24 मार्च 1994 है और मैं इस गाथा कि शुरुआत 23 मार्च 1994 से कर रहा हूँ. यह दिन मेरे जीवन में एक विचित्र-सा मोड़ लेकर आया. मेरे सपनों,मेरी कल्पनाओं,इच्छाओं,उमंगों,जीवन जीने की चाहतों के लिए यह दिन महत्वपूर्ण बन गया.इतना महत्वपूर्ण कि मैंने अपनी डायरी जो 1990 से लिखना बंद कर दी थी या सच-सच कहूं तो समय की धारा में मेरा लिखना छूटता चला गया था, तब इस एक दिन मन की टीस बाहर आने के लिए मचल उठी,टीस का मचलना 23 मार्च से शुरू हुआ और आज 24 मार्च की सुबह मैं यह कथा लिखने बैठ गया हूँ. पर इस 23 मार्च 1994 तक ठीक-ठीक पहुँचने के लिए मुझे अपने जीवन के इतिहास के पिछले कई-कई पृष्ठ पलटने होंगे.इतिहास ऐसे ही लिखा जाता है. एक दिन के इतिहास के लिए विगत के कई-कई पृष्ठ समेटने पड़ते हैं.यही जीवन के इतिहास के साथ भी होता है.

पर सबसे पहले मैं अपना परिचय दे देता हूँ, आख़िर पूरी कथा मुझे ही कहनी है और इस पूरी कथा में मेरा और आपका साथ रहेगा ही.मैं राज हूँ, एक साधारण-सा इन्सान, बिल्कुल एक आम इन्सान की तरह. पर कितना साधारण और कितना असाधारण यह तो इस कथा का परिवेश-इसकी पृष्ठभूमि और इस कथा में आने वाले पात्र ही बता पाएंगे और अंत में आप सब.

"इस सफ़र का इतना-सा है अफ़साना 'बादल',
हर मोड़-हर गली में है, यादों की बस्ती हमारी"

मैंने जीवन को जितने ही दुस्साहस के साथ जीने की कोशिश की,जितना ही जीवन की वैचारिकता को व्यवहारिकता के साथ जीने की कोशिश की, उतना ही हर बार कमज़ोर और हारा हुआ सिद्ध हुआ हूँ.हर बार न जाने किस भ्रम(भ्रम कहना ही ठीक होगा),रेत को अपनी मुठ्ठी में इस आशा से भरता रहा कि एक न एक दिन तो रेत मेरी मुठ्ठी में बंद हो ही जायेगी, पर रेत कभी भी अपनी प्रकृति से मुँह नहीं मोड़ सकी.रेत और मेरे बीच के इस विचित्र द्वंद के चलते-चलते मैं स्वयं रेत हो गया.स्वयं ही घरौंदा बनता - स्वयं ही बिखर-बिखर जाता और फिर-फिर किसी नीड़ के निर्माण के लिए उठ खड़ा होता.
" डरे आँधियों से घरौंदें बनाने वाले,
हम तो रेत हैं,रेत ही हो जायेंगे."

और फिर....फिर रेत होता चला गया. रेत जैसी फितरत लेकर पैदा नहीं हुआ था.'दस्तक" लिखने के बाद तो एक बारगी लगा था कि अब इस जुनून से लिखना नहीं हो पायेगा.'दस्तक" मैंने नहीं, मेरे उन ख्यालों ने लिखी थी जो ममता के प्रेम की कुनकुनी पीड़ा से जन्मे थें. प्रेम राजनीति का छिछला प्रांगण नहीं होता है कि जहाँ एक होते ही यह प्रश्न उठ खड़ा हो कि अब इसके बाद कौन? ममता जब तक रही, तब तक मेरे प्रेम की परिधि एवं केन्द्र दोनों वह ही रही. हालाँकि हमारे मिलन के साथ ही हमारा बिछुड़ना नियति के हाथों लिखा जा चुका था. शायद हर मिलन ऐसा ही होता है.हर मिलन के साथ ही विरह भी चुपके से साथ आ खड़ा होता है.यह बात मेरे सामने 28 जून 1982 को आई. इस तारीख से से लेकर 11 नबम्बर 1986 तक, इन चार वर्षों के बीच सिर्फ़ मैं था और थी ख्यालों के उजाले की मानिंद ममता.तब मुझे उससे हमेशा-हमेशा बिछुड़ जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने में बहुत-बहुत समय लगा था.पूरे चार वर्ष और पाँच माह. यह समय शायद ज़्यादा लगे, लेकिन कभी जब कोई 'राज' बनकर जन्म लेगा और किसी 'ममता' से प्यार करेगा, तब वह ही स्वयं ही यह अनुभूति भी करेगा कि यह समय तो कुछ भी नहीं है,क्योंकि प्रेम की वह तीव्रता पागल कर देने की सीमा छू सकी थी. दोष अंततः मेरा ही था, क्योंकि ममता को तो शायद स्वप्न में भी यह भान न होगा कि कोई उसके पीछे इतना दीवाना है. अगर वाग्देवी कि कृपा से 'दस्तक' न लिखी जाती तो शायद आज यह राज भी मर चुका होता. 'दस्तक' की कथा प्रेम और मन के अन्तर्द्वन्द से प्रारम्भ होती है और इन दोनों के बीच मैं, इस अन्तर्द्वन्द का न केवल साक्षी हूँ, वरन इनका पंच भी मैं ही हूँ और इन सबसे परे मैं साधक भी हूँ. शब्द को कहीं से भी लिखना शुरू करुँ, वह ममता को छू ही लेते थें.'दस्तक' में मैं अपनी भूमिका से संतुष्ट था और यह सन्तुष्टी मेरे लिए उस दिन वरदान बन गई, जिस दिन उससे जुड़ा इतिहास 11 नबम्बर 1986 का दिन लेकर आया.
'आगे कुछ नहीं, अंधेरे ही अंधेरे हैं दोस्त,
अब कब तक सफ़र करोगे एक रोशनी के लिए.'

मैं तब बीमारी से उठा था, उस वर्ष मैं एम.एस.सी,शायद पूर्वार्ध में था. एक दिन आनन्द ने आकर मुझसे कहा कि राज 5 फरवरी को ममता की शादी है.एक आग-सी सीने में उतरती चली गई.पल भर के लिए नहीं वरन मैं फिर कई-कई पलों के लिए उदास हो गया. वह सभी स्वप्न जिन्हें बहुत पीछे कहीं छोड़ आया था, एकाएक आकर जैसे सिसकने लगे हों. वह समय 'आराधना' का था.
कहीं दूर चलकर हम-
करेंगे आराधना हम-तुम,
आधी मैं-
आधी तुम...."

'आराधना' लिखे जाने तक मैं पद्ममाली अपने मन सहित विचलित-सा इस आसमां-ज़मीं के बीच डोलता रहा. ममता और मुझे नहीं मिलना था, नहीं मिले. उसकी शादी 5 फरवरी को न होकर 23 जून को हुई और मैं औघड़ तब तक स्वयं को इतनी कुशलता से सम्हाल चुका था, जैसा कि किसी माहिर पियक्कड़ को देखकर यह कहना मुश्किल होता है कि इसने अभी पी रखी है या नहीं.उस पूरे दौर में मैंने पाँच महीने तक एक भी रचना नहीं लिखी थी.साथ ही 29 जून 1987 को हम घर से बे-घर हुए थें.मनुष्यता के रिश्तों की संज्ञाओं को मैंने उन्हीं दिनों नए अर्थों में देखा था.
'अक्षरों से संबंध-शब्दों से दोस्ती,
पर नहीं कोई आहट तक कहीं,
कहने को है अखिल-विश्व -
पर नहीं है दूर तक अपना कोई,
देकर पीडाएं संबंध-संबोधनों की,
किसी ने कहा -नहीं कोई प्यार."

टूटे स्वप्नों को मैंने बहुत सहजकर रख दिया और नए सिरे से जीवन शुरू किया. नए स्पंदन के साथ स्वयं को मैं ढालने लगा था.कोटरा में हमने स्टेशनरी की एक दुकान खोल ली थी और स्नातक के बाद से बे-रोज़गारी के ढो रहे बोझ को कुछ हल्का कर दिया.वहीँ एक दिन एक सांवली-सी लड़की से मेरी मुलाकात हुई.उसका नाम अर्चना था.पर हम-दोनों हमेशा एक-दूसरे को देखते ही थें और नयनो की भाषा के यह द्वार भी जब एक दिन बंद हो गए तो मैंने उस भाषा के रोमांस को "अर्चना" में तथा उस भाषा के आंसुओं को "वह क्यों रोई" में शब्दांकित कर लिया.हम अपनी सीमाओं में मिले थें, अपनी सीमाओं में ही रहे और अपनी सीमाओं में ही रह गए.
कितने दर्द थें यहाँ आने को बेताब,
आते-आते उन्हें छुपा गए आंसू."
'कोई प्यार करेगा 'बादल' से,
आंखों को थका गए आंसू"

बीतता समय और बीतने लगा. कभी तेज़ी से - कभी धीरे से. जीवन की मृत्युपरंत यात्रा यायावरी ढंग से चलती रही.जुलाई 1991 में मेरी नौकरी लग गई और मुझे भोपाल छोड़ना पड़ा, यही कोई 400 किलोमीटर. मैं गोल-गोल घूमती रोटी के पीछे-पीछे चलता हुआ झाबुआ जिले एक छोटे-से कस्बे बामनिया में जा पंहुचा,जहाँ मेरे भाग्य की वह रोटियां मेरा इंतजार कर रही थीं.जीवन की यह सर्वथा एक नई शुरुआत.यायावरी की एकाकी अब और बढ़ गई थी.अब मैं था, मेरे कमरे की छत थी और मेरे विचारों-स्वप्नों-कल्पनाओं की अनंत-अनादि श्रृंखला थी. इसी मध्य मैं इंदौर में प्रशिक्षण के लिए आया और पूरे दो माह तक इंदौर में ही रहा.नए मित्र मिले.एक बार फिर संबंधों के नए अर्थ मिलें. मैं प्रशिक्षण के बाद कई मीठी स्मृतियां लेकर बामनिया पुनः लौट आया. यह छोटा-सा क़स्बा मुझे पहले दिन से ही पसंद नहीं आया था. मैं आज भी यहाँ हूँ, पर सिर्फ़ शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से तो मैं यहाँ रहने के लिए आज तक स्वयं को तैयार नहीं कर पाया हूँ.यह रोटी बुरी चीज़ है या यह पेट बुरा है, मैं नहीं जानता. मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि यह मेरा रास्ता न था. मेरी आकांक्षाएं घुट रही हैं और मैं चुप हूँ. एक दिन मैंने यहाँ एक गीत लिखा और मुझे एक चेहरा याद हो आया. ललिता का चेहरा. वह लड़की बहुत अच्छी थी. पर मेरे लिए वह एक दोस्त थी. अब कहाँ है, यह मुझे नहीं पता. पर जीवन के प्रति उसकी अदम्य जीजिविषा मुझे कई बार प्रभावित करती थी. लोग उसके विषय में चाहे जो कुछ भी कहें, मैं जानता था कि वह एक बहुत अच्छी लड़की थी.ईश्वर उसका कल्याण करें.हाँ, मैं गीत की बात कह रहा था.उस दिन यह गीत लिखते हुए उसकी याद आई थी क्योंकि वह हमेशा मुझसे कहती थी कि तुम तो अपने घर में अपने लोगों के साथ रहते हो न, इसलिए तुम्हे मेरे आंसू बकबास नज़र आते हैं. काश तुम मेरी उदासी को छू पाते.....!
जिस दिन मुझे भी यहाँ जन-अरण्य में यह अनुभूति हुई, मैंने ललिता की बात को नमन कर स्वीकार कर लिया. यह गीत आज भी मेरी उदासी को बहलाने के लिए सबसे अच्छा साधन है.
"अश्रु नीर बहा गया कोई,
मन पीर बता गया कोई,
उदास थीं रातें,
चांदनी छुई-मुई-सी,
चाँद के आँगन में -
दर्पण तोड़ गया कोई......"

उदास गीत का यह राज सावन की पहली फुहार में उस समय सिहर उठा, जिस समय एक सांवली-सी लड़की ने अपनी सावन की बूंदों से भरी आंखों से पल भर के लिए ठिठाक्कर उसे देखा था. जुलाई का वह महिना, शायद 22 तारीख़ थी, जीवन के सर्वथा नए अध्याय की शुरुआत की.मैं प्रेम की अनूठी अनुभूति से - उसके मृदुल स्पर्श से भर गया था, जिस दिन उसने घर में पहला क़दम रखा था.
मैं अब तक इस कथा में जो कुछ भी लिखता आ रहा हूँ.दरअसल वह सारे शब्द, अब आगे लिखे जाने वाले शब्दों के सूत्रधार भर थें. नाटक की यवनिका तो अब उठी है. मैंने "आराधना' में लिखा था कि प्रेम में जितनी विचित्रताएं पाई जाती हैं, उतनी विविधता-विचित्रता इस ब्रह्मांड की किसी अन्य विधा में नहीं पाई जाती हैं. सच यह है कि प्रेम का अपना कोई गणित-मापदंड नहीं होता है.प्रेम सहज-स्वाभाविक है.प्रेम ने स्वयं को आज तक अस्वाभाविक ढंग से जीया ही कहाँ है.प्रेम कब दबे पाँव - गुपचुप आपके मन-आँगन में आ धमकेगा,कब आपके मन में हौले से एक आहट कर जाएगा, कब आपके दिल का द्वार खटखटा जाएगा, यह कौन जानता है ! अब यह निश्चित रूप से ममता नहीं थी और न ही यह समय ममता से बंधा हुआ था. न ही मैं......मैं तो कई पड़ावों में से गुजरता हुआ आज एक सर्वथा नए परिचय के साथ स्वयमेव में था. प्रेमिका का स्पर्श प्रेमी को और प्रेमी का स्पर्श प्रेमिका को प्रेम के कई-कई स्त्रोत या कहूँ कि सहस्त्रधारा को जन्म दे जाता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. आज मैं 'दस्तक' वाले त्रिशंकु से मुक्त था. ढाई आखर नई रोशनी से लिखे जाने लगे. उस दिन शाम हुई थी, वर्षा के बाद बादलों के बीच में से भास्कर-रश्मियाँ हरीतिमा पर थिरक रही थीं और नृत्यमय मैं बामनिया के प्लेटफार्म पर यहाँ से वहां तक कुलांचे भर रहा था. क्या मैं ही था वहाँ या कोई और.......?
'भटक आया होगा, कोई और छत पर,
मैं तो उस सावन का 'बादल' नहीं."

विचित्र-सा सावन अब मेरे आँगन में था. बूंद-बूंद नृत्य कर रहीं थीं. तृण-तृण झूम रहा था.पतदल को तो अपनी ही झंकार से होश कहाँ था. हवाएं मुझे छूकर शरारत पर उतारू थीं. बादलों का इतराना क्या कहूँ.
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