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रविवार, 11 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-तीन)

पल-प्रतिपल (भाग-तीन)



नबम्बर का माह मेरे लिए अस्वास्थ्यकर सिद्ध हुआ.मेरी पुरानी बीमारी फिर उभरकर आ गई.मेरे फेफड़े 1984 के भोपाल गैस-कांड में बुरी तरह ख़राब हो गए थे जिसके कारण मुझे अब साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी.भोपाल में मैं जब तक भी रहा तब तक तो मैं रोज़ ही बड़े तालाब में तैरने जाया करता था और करीब दो घंटे तक तैरा भी करता था.सिगरेट-तम्बाकू-शराब मेरी आदत में शामिल नहीं थें.हालाँकि अपने कालेज के शुरूआती दिनों में मैंने सिगरेट और शराब दोनों का सेवन भी किया था, पर वह छः-आठ माह से ज़्यादा का दौर नहीं था.कभी-कभार बियर ज़रूर पी लेता था पर वह भी साल में दो-चार बार से ज़्यादा नहीं था.मतलब यह कि यह सब मेरी जीवन शैली नहीं थी जिसके कारण अक्सर फेफड़े खराब हो जाया करते हैं,मैं तो गैस का शिकार था.फिर यहाँ बामनिया में जहाँ सप्ताह में एक बार ही हाट लगा करती थी जिसमें साग-सब्जियां आया करती थीं.हम आख़िर कितनी सब्जी खरीद कर रख सकते थें. उस पर तुर्रा यह कि खाना कौन बनाए - पहल कौन करें,कौन बनाये.अतः पर्याप्त पोषण नहीं मिलने के कारण भी मेरी बीमारी उभरकर आ गई थी.आगे के दो माह मैंने एक दुःस्वप्न की भांति बीताये. मैं भोपाल चला आया और फिर अयोद्धा-कांड ने मुझे अपने ही घर में क़ैद कर दिया.अयोद्धा की रक्तरंजित गूँज भोपाल में भी सुनाई दी.

अर्चना को मैंने यहीं से खोना शुरू किया था.मैं जब ठीक होकर वापिस बामनिया पहुँचा तो मुझे पता चला कि आर्ची समोई में है और मैं नए साल में अर्चना से मिलने समोई जा पहुँचा.वह चौंकी थी,प्रेम अंततः चौंकता ही है.

"जीवन सुना जिसे, उसकी तलाश में निकले,
यह किस क़ातिल, की तलाश में निकले."


अर्चना वहां मुझसे बहुत प्यार से पेश आई.हम दोनों ने वहां एक ही कमरे में क़रीब दो घंटे साथ-साथ बीताये.वहीँ मैंने उसे अपनी बाहों में समेटते हुए उससे कहा कि क्यों न हम दोनों अगले माह या होली के आस-पास शादी कर लें.वह शर्मा गई-वह झिझक गई.मैं वहां से ढेरों मीठी स्मृतियाँ लेकर बामनिया लौट आया, पर उसे वहां कई-कई ताने सुनने को मिले.हमारे द्वारा बीताये गए वो दो घंटे उस पर भारी पड़े,यह दुनिया रंग-बिरंगी बाबा.इस बात पर वह मुझसे बहुत ही नाराज़ हुई और यह बात उसने मुझसे कई बार कही और मैं उससे हमेशा यही कहता रहा कि तुम समोई की बात को इतना तूल ही क्यों देती हो, पर वह मानती ही नहीं थी.फिर भी धीरे-धीरे ही सही हम दोनों लहरों की मानिंद अपने प्रेम को जीते रहे.

'अपने ही आंसुओं के भीगोये हैं,
क्यों इन बरसातों को दोष दें,
अपने ही ग़मों से घायल हैं,
क्यों इन तलवारों को दोष दें.'


थोड़ा और पीछे जाता हूँ या सच कहूं तो आज हवा में जीवन के गुजरे पल टेबिल पर पड़ी क़िताब के उड़ रहे पन्नों की भांति रह-रहकर ख्यालों को रोशन कर रहे हैं.आज 24 मार्च है और मैं गाथा कहना चाहता हूँ 23 मार्च की.एक हर्फ़ 30 मार्च 1990 से या रहने दीजिये,इस तरह तो इस राज की कहानी कुछ ज़्यादा ही लम्बी हो जायेगी.वह 30 जुलाई का दिन था और कोटरा में व्यवसाय के दौरान मुझे जो अर्चना मिली थी,जिसका ज़िक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ, उस अर्चना की यवनिका इसी दिन गिरी थी.तमाशा ख़त्म-पैसा हज़म.साहिर ने लिखा है कि,".......वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,उसे कहीं एक अच्छे मोड़ पर छोड़कर आगे बढ़ जाना ही अच्छा होता है." वहीँ मैंने लिखा था कि जब प्यार अपनी सार्थकता खोने लगे तब उसकी हर अर्चना बंद कर देना ही उचित है,क्योंकि जीवन के रंगमंच पर और भी कई अंक आपकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं.मैं साहिर के साथ स्वयं को खड़ा नहीं कर रहा हूँ पर यह सच है कि मैंने अपने जीवन के हर मोड़ पर प्यार की प्रतीक्षा की है और आज तक यह प्रतीक्षा मृग-मरीचिका ही साबित हुई हर शाम तन्हा ही घर लौटा हूँ.समय-जीवन,दोनों ही प्रवाहमान हैं ही,साथ ही मेरे जीवन में प्रेम भी प्रवाहमान रहा है.यह अर्चना भी उस दिन,ममता की तरह मुझसे कभी न लौटने वाले पल की तरह दूर चली गई.

आज यह सब बातें मुझे इसलिए याद आ रहीं हैं क्योंकि मुझसे जुड़ी यह नियति इस अर्चना को भी मुझसे दूर कर देने के लिए अपनी बिसात बिछा चुका थी.ऐसा मेरा सोचना था.
'ख़ता नहीं है इन खामोश पत्थरों की,
ज़ख्म पाये हैं हमने अपनी ही बारिशों में."


दिन, रात की तरफ़ भाग रहे थें और रातें दिन के लिए बेताब थीं और इन सबके बीच मैं त्रिशंकु बना हुआ था.अर्चना का व्यवहार मेरे प्रति बिल्कुल ही बदलता जा रहा था और वह मुझसे बात तक करना पसंद नहीं कर रही थी और यदि कभी बात हो भी जाती तो वह बहुत ही रुखा व्यवहार करती.इस पर मैंने उससे कई बार कहा कि वह मुझसे इस तरह का व्यवहार नहीं करे.प्रेम सिर्फ़ प्रेम होता है.अकारण-बेशर्त.यह दिल के बदले दिल की सौदागरी नहीं है.यहाँ हर व्यक्ति प्रेम करना चाहता है, पर हर व्यक्ति दूसरे के प्रेम के विरुद्ध है.पूरी मनुष्यता इसी दुबिधा के साये में जी रही है कि कोई तो उसे प्यार करे, पर वह स्वयं प्यार को नहीं समझ पा रहा है कि प्यार प्रतीक्षा नहीं है,प्यार तो पहल का नाम है, आप पहल करें कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,इसकी परवाह मत करो कि कोई आएगा और तुमसे कहेगा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ.इस प्रतीक्षा में पूरा जीवन निकल जाता है और कोई नहीं आता है,कोई आहट खुशी की-सुख की सुनाई नहीं देती है, फूल खिलने से रह जाते हैं और हम अतृप्त ही मर जाते हैं.मेरा मानना है कि यदि आपने प्यार के कुछ पल भी अपने प्रेमी के साथ बीता लिए तो फिर शेष जीवन में परमात्मा की-मोक्ष की कोई प्रार्थना-कोई वासना नहीं रह जाती है.यहाँ हर व्यक्ति सुख की चाह में भटक रहा है और दूसरे के सुख के विरुद्ध खड़ा है.यह एक ऐसी अनबुझ पहेली है,जो किसी युग में शायद समझ में आ जाए या शायद नहीं आए,यहाँ तो मैं अपनी कहता हूँ.

"तेरे रुख़-ए-नक़ाब पर, ऐ ज़िन्दगी यह तसव्वुर,
कि हुआ करेगें बे-नक़ाब,हम भी कभी-कभी.'

अतीत के बाहर आज ज़िन्दगी के रुख़-ए-नक़ाब पर मेरी सूरत-ए-हाल यह है कि इतिहास के कई-कई पन्ने पलटते जा रहे हैं और जिसे इतिहास दोहराना कहते हैं,वही कर रहा हूँ.आज फिर 11 नवम्बर 1986 की तवारीख़ 23 मार्च 1986 के नक़ाब में बे-नक़ाब मेरे सामने है.साढ़े सात वर्ष का यह सफ़र कोई मामूली सफ़र नहीं है.सन 86 का वह प्रेमी,जिसके पास शिद्दत है-जूनून है,जो छात्र है,कमाने के नाम पर कुछ ट्यूशन हैं,बेरोज़गारी का लेबल लगा हुआ है,दुनिया भर की झिडकियां हैं जो उसे उसके रिश्तेदारों ने उसे दी है,पर जिसके पास शब्द हैं,आज की तरह,जिनसे 'दस्तक' देता-देता थक चुका है,जिसकी 'आराधना' धूमिल पड़ चुकी है.जिसके सपनों की गली अब कहीं नहीं जाती है.यह साधक जिसके स्वरों की गूंज सिसकियों में और उसकी यह सिसकियाँ अब एक गहरी खामोशी में बदल गई हैं.खंडित ताजमहल के साथ जिसने जीवन स्वीकार्य कर लिया है.आज सिर्फ़ शब्द रह गए हैं मेरी अभिव्यक्ति के साधन के रूप में और मैं इन्हीं शब्दों से घिरा हुआ हूँ.कई बार तो लगता है कि यही शब्द मुझे ज़िन्दा रखे हुए हैं.

जब मैंने पहली बार "दस्तक' लिखना शुरू की थी,ठीक-ठीक कह नहीं सकता कि इसका विचार मेरे मन में कहाँ से आया था,पर वह था एक क्रन्तिकारी और विद्रोही विचार.प्रेम तो अग्नि-शलाका सदृश्य होता है.प्रेम के धरातल पर ऐसे विद्रोही विचारों की निरंतरता बनी रहती है.इसे मैं विद्रोह कह रहा हूँ तो सिर्फ़ इसीलिए कि हमारे समाज ने प्रेम को-प्यार को रीति-परम्परा के विरुद्ध एक तरह से विद्रोह ही माना है.उसी समाज की तथाकथित मानसिकता और उसकी कतिपय रीति-परम्परा के अंहकार की संतुष्टि के लिए 'विद्रोह' कह रहा हूँ.पर 'दस्तक' का विचार निश्चित ही अनूठा-अदभुद और क्रन्तिकारी तो था ही क्योंकि उसके प्रारम्भ में भी उससे बहुत प्रभावित था. हालाँकि कई दृष्टिकोण से मैं तब गलत था.उस दिन भी ग़लत था और आज भी ग़लत ही हूँ. मुझे लिखना चाहिए था या नहीं यह तो अलग बात है,पर मुझे किसी को भी दुःख पहुचने का कोई नैतिक आधार नहीं है और 'दस्तक' के साथ यही अपराध मैंने किया था,पर जूनून हमेशा जीतता है,ऐसा मेरा सोचना है.तब शायद यही हुआ था.आज मैं कुछ भी सोचूं क्योंकि आज मैं बड़ा हो गया हूँ,पर उस समय...........!

"जब हदों से गुजर गए आसूँ,

कितनी यादों को जगा गए आसूँ.'

और आज साढ़े सात साल बाद,फिर वही फाल्गुन माह और इसके छिटके-छिटके रंगों से बे-रंग मैं.आज मैं परिपक्व हो गया हूँ,कुछ ज़्यादा समझदार हो गया हूँ.नौकरी कर रहा हूँ,बे-रोज़गारी का लेबल मुझ पर से हट चुका है.रिश्तेदारों की झिड़कियां कम या लगभग बंद हो चुकी हैं,आख़िर उन्हें अपनी या अपने किसी रिश्तेदार की किसी योग्य कन्या से मेरा विवाह करना है,तो अभी तो उन्हें मुझमे ढेर सारी खूबियाँ दिख रही हैं. पर इन सबसे परे आज भी शब्द मेरे अपने हैं.विचारों की परिपक्व श्रृंखला है.जीवन को, उसकी विषम परिस्थितियों को - समताओं -विषमताओं को समझने-बूझने की शक्ति है-सामर्थ्य है.हालाँकि आज मैं पहले से ज़्यादा एकाकी हूँ,फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं है.प्रेम के प्रति मेरी प्रतिबद्धता आज भी वही है.पर आज राज बदला-बदला है.विघटित,टूटा हुआ,बिखरा हुआ.

"मैं किरणों से -

भर देना चाहता था अपना घर,

और इस चाह में -

अपनी छत खो बैठा."

अर्चना और मैं जिस दिन से मिले थें,कभी भी एक पल के लिए भी साथ बैठकर दो बातें चैन से नहीं कर पाए थें.धीरे-धीरे हमारे संबंध तनावपूर्ण होते जा रहे थें.इसका असर मेरे काम और मेरे स्वास्थ्य दोनों पर पड़ रहा था.मेरी पढ़ाई के दौरान ही मेरी नौकरी लग गई थी,अतः मेरी परीक्षा के दिन भी आ चुके थें,मैं राजनीति-शास्त्र में एम.ए. कर रहा था. अब मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया और फिर सारी बातों को दरकिनार कर दिया.इन सबके बीच हमारी बातचीत फिर शुरू हुई.हुआ यह कि एक दिन अर्चना को देखने लड़के वाले आए और उसे वह लड़का पसंद नहीं आया.इधर ठीक एक दिन पहले मैंने पावर-हॉउस ख़रीदा था.इस विषय पर उसने मुझसे पूछा तो मैंने मज़ाहिया लहज़े में कहा कि हमारी शादी के बाद जब मैं दिनभर ऑफिस में रहूगां तब तुम बोर न हो इसलिए मैंने यह पावर-हॉउस ख़रीदा है. फिर कुछ दिन अच्छे निकलें.

यहाँ से शुरू हुआ सिलसिला एक नया मोड़ लेकर उस दिन आया,जब उसका पहला पेपर था,वह समाजशास्त्र में एम.ए. कर रही थी.उस दिन पेपर के बाद हमारा मिलना तय हुआ था,उसी दिन मुझे भी भोपाल जाना था.ठीक दो दिन बाद मेरी भी परीक्षा प्रारम्भ होने वाली थी.सब-कुछ तय होने के बाद भी उसे लेने उसकी बुआ का लड़का वहां पहचान और वह उसके साथ चली गई.यह घटना हमारे संबंधों की आधारशिला को हिलाकर रख गई.पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि मैं अर्चना के लिए किसी खिलोने से कम नहीं हूँ,जब भी उसका जी चाहता है,वह मुझसे खेलती है और जब जी नहीं चाहता है तो फिर नज़र उठाकर भी नहीं देखती है.मैं जिस घर में रहता था,उसके पीछे वाले छज्जे में मैं घंटों उसकी एक झलक पाने के लिए खड़ा रहता था.मेरे क़रीबी नन्द,पठान.राजेश और अन्य मुझे इसके लिए टोकते भी थें,लानतें भी भेजते थें,खरी-खोटी भी सुनते थें.पर मुझ पर इन सबका कोई असर नहीं होता था.पठान अक्सर मुझसे कहता था कि,'राज,यह लड़की तुझे बेबकूफ बना रही है.यह तुमसे प्यार नहीं करती है.इनके खानदान में कभी किसी ने प्यार किया है जो यह करेगी."

मैं इन सब बातों को अनसुना कर जाता.घंटों कि तपस्या के बाद जब मैं उसकी एक झलक पा भी जाता तो पाता उसका लटका हुआ चेहरा,झुकी हुई आँखें.उन दिनों वह मुझे तब ही देखती थी,जब वह चाहती थी.हमारे बीच संवादहीनता की स्थिति थी.हालाँकि वह अयह सब जान-बूझकर करती थी. उसकी इन हरकतों से मुझे दुःख होता था.पर मैं हर बार यही सोचता था कि आज नहीं तो कल वह मेरे प्यार को-अपने प्यार को समझ ही जायेगी और सब-कुछ ठीक हो जायेगा.प्रेम अपनी शाश्वतता सिद्ध कर ही देगा.मैंने उससे कई बार पूछा भी कि यदि उसे कोई परेशानी हो तो वह मुझसे कहे.मैं उसके लिए सब-कुछ करने के लिए तैयार था.परन्तु वह हर बार चुप लगा जाती और मैं आहत-सा रह जाता.

'दे दिया जब -

सपनों को जन्म फिर,

हुआ थोड़ा हतप्रभ,

थोड़ा चकित,

थोड़ा क्रोधित....,

कि यह क्या कर बैठा मैं.......!"

मेरी स्थिति बड़ी विचित्र हो चुकी थी.मैं किससे अपने दिल का हाल कहूँ समझ में नहीं आ रहा था.बिल्कुल अकेला पड़ गया था.मुझसे रोज़ ही हमारे संबंधों को लेकर ढेरों सवाल पूछे जाते और मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.ज़्यादा ज़ोर देने पर मैं यही कहता कि हमारे संबंध अच्छे हैं.















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