सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

मंगलवार, 31 मार्च 2009

हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिकल फिल्में......

आज मैं बात कर रहा हूँ हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की.यह वो फिल्में हैं जिन्हें देखना एक सुखद अनुभव होता है और बार-बार देखने की इच्छा बनी रहती है.और यदि बार-बार देखने को न मिले तब भी यह फिल्में आपके अंतर्मन में चलती ही रहती हैं और जब भी फिल्म की शास्त्रीयता की बात होती है तो इन्हीं चंद फिल्मों का नाम ज़ुबान पर आता है.इन्हें आप फिल्मों का जादू भी कह सकते है और यदि फिल्मों को परिभाषित करना हो तो तब भी यही फिल्में सामने आती हैं.फिल्मों का यदि कोई स्कूल हो तो तब भी वो यही फिल्में होगीं जो उस स्कूल का प्रतिनिधित्व करेगीं.
एक शास्त्रीयता में ढली-रची-बसी यह फिल्में,सुन्दर-सुघड़ सौन्दर्य का जीवंत उदहारण प्रस्तुत करती हैं.फ्रेम-दर-फ्रेम फिल्म कुछ यूँ आगे बढती हैं कि देखनेवाला अपने को भूलने लगता है और जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह उसके जीवन का स्थाई भाव बन जाती है.उसे लगता है कि वह फिल्म देखकर नहीं वरन उसे जीकर आ रहा हो या उसे लगता है कि अरे यह तो उसी पर बनी है,उसी के परिवेश की बात कह रही है.कितना सच कहा गया है,कितना अपनापन है,कितना आंदोलित करती है,हाँ समाज को बदलना ही होगा.अब यह सब नहीं चलेगा.ऐसी ढेर सारी बातें उस देखने वाले के मनो-मस्तिष्क में चलती ही रहती हैं.यह फिल्में एक अलग छाप छोड़ती हैं.
क्या ऐसी कोई फिल्म आपको याद आ रही है,क्या कहा हाँ......पता नहीं.....नहीं.....,चलिए मैं ही बताये देता हूँ.मैंने हिंदी फिल्मों की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की सूची तैयार की है,जो आज भी अपनी एक अलग जगह रखती हैं और एक फिल्म बनाने वाले के लिए यह फिल्में आज भी एक श्रध्दा का भाव रखती हैं और एक ऐसी क्लासिक देने की चाह उस हर व्यक्ति के मन में होती है,जो कहीं-न कहीं फिल्म के निर्माण-निर्देशन से जुड़ा हुआ है.प्रस्तुत है यह सूची -
१. अछूत कन्या -
अपने दौर की बाम्बे टाकीज की वो क्लासिक है,जिसका जबाब आज भी कहीं नहीं है.
२. आदमी -
व्ही.शांताराम की सबसे क्लासिक कृति है यह फिल्म और अपने दौर की एक बोल्ड प्रेम कहानी भी है.
झाँसी की रानी -
सोहराब मोदी का ऑपेरा,पारसी थियेटर की शैली,इस जादू का आज भी तोड़ नहीं है.इतिहास की ऐसी प्रस्तुति आज संभव नहीं है.
४. दो बीघा ज़मीन -
यह फिल्म उस दौर में जितनी जीवंत थी,आज उससे कहीं ज़्यादा जीवंत है.प्रगति के तमाम पायदानों के ऊपर बैठे हुए हम लोगों के नीचे आज भी असंख्य लोगो के लिए दो बीघा ज़मीन के लिए संघर्ष वैसा का वैसा ही है
५. जागते रहो -
आरके की यह फिल्म.सिर्फ़ फिल्म ही नहीं समाज का आइना भी है,जो आज भी वैसा ही है.बल्कि आज तो यह आइना और भी कारपोरेट हो गया है.
६. बंदिनी -
नहीं देखी हो देख लें और प्रेम की पावन उत्कंठा को अपनी आत्मा तक महसूस करें.मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस प्रेम की बेकरारी आप अपने लिए भी चाहेगें.
७. देवदास -
के.एल.सहगल और दिलीप कुमार दोनों जैसे एक ही धारा के दो रूप हों,जैसे एक राग-दो रागनियाँ हों.
८. तीसरी कसम -
जीवन कितना भोला और मासूम हो सकता है कि हम सब हीरामन हो जाना चाहेगें.
९. साहब-बीवी और गु़लाम -
इस फिल्म की विशेषता यही है कि इस पर बोलना-लिखना आसान लगता है,पर है मुश्किल.पर गुरुदत्त का ही हो जाने का जी चाहता है.करीब १३०० पन्नों के उपन्यास को तीन घंटे के रूपक में बदल देना और वो भी मूल कहानी और उसकी आत्मा से बिना छेड़छाड़ किये हुए अदभुद है अदभुद.
१०. शतरंज के खिलाडी -
प्रेमचंद की कलम का जादू तो है ही पर सत्यजीत राय का जादुई स्पर्श इस कहानी को इतिहास में बदल देता है.
मैं जानता हूँ कि सिर्फ़ दस फिल्मों को इस तरह शामिल करना स्वयं के साथ ही नहीं सिनेमा की रचनाधर्मिता के साथ भी अन्याय ही है,पर यह तो शुरुआत भर है.उक्त सूची को पढ़कर आपके ज़ेहन में भी ऐसी कई फिल्मों के नाम चलचित्र की तरह उभर रहे होगें जो इस सूची में शामिल नहीं हैं, पर आप उन्हें मुझसे शेयर कर सकते हैं.
आज इतना ही,
शेष फिर......!

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्में...

मित्रों, मैं पिछले दिसम्बर से 100 सबसे ज़्यादा देखे जाने वाली हिंदी फिल्म्स् की सूची बनाने में लगा हुआ हूँ.और पिछले तीन माह का अनुभव बताता है कि यह सूची 100 से ऊपर भी जा सकती है,पर मैं एक अनुशासन बनाये रखने को प्रतिबद्ध हूँ.अभी जब संजीव सारथीजी का ब्लॉग पर लेख पढ़ रहा था तो मुझे लगा की मेरे जैसे और भी लोग हैं जो इस तरह के कार्य में संलग्न हैं.यह अच्छी बात नहीं,वरन बहुत ही सुखद बात है. हिंदी सिनेमा ने हमे बहुत गहरे तक छुआ है और यही वह सिनेमा है जो हिकारत की नज़रों से भी देखा गया है.मुझे अक्सर सुनने को मिलता रहा है कि तुम जैसे लेखक को-बुद्धिजीवी को सिनेमा पर नहीं लिखना चाहिए.मैंने उनसे पूछता हूँ कि क्या हिंदी सिनेमा इतना दोयम दर्ज़े का है कि उस हम जैसे लोगों को बात नहीं करना चाहिए,तो फिर उन असंख्य दर्शकों का क्या,क्या वह भी दोयम दर्ज़े के हैं.क्या दोयम दर्ज़े के लोगों द्वारा दोयम दर्ज़े के लोगों के लिए ही सिनेमा है? अगर ऐसा है तो फिर आस्कर की और हम सब इतना लालायित क्यों हो जाते हैं.क्यों सब के सब इतना बौरा जाते हैं कि आस्कर दुनिया का सबसे बड़ा सच हो जाता है?
पर ऐसा है नहीं और तथाकथित-कतिपय लोगों को ऐसा लगता भी है तो यह उनकी अपनी समस्या है.मुझे तो सिनेमा से प्यार है और वह भी अव्वल दर्ज़े का.तो बात हो रही थी सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म्स् कि तो सारथीजी के लेख में जिन फिल्म्स् का नाम है,उनमें से मैं एक फिल्म."हम आपके हैं कौन" को छोड़कर बाकी सभी पर सहमत हूँ.अंत में विनोदजी ने एक समीक्षक की पसन्द की जिन फिल्म्स् की सूची दी,वह सभी ऐसी फिल्म्स् हैं,जिनके बारे में मेरा मत यह है कि जिसे भी फिल्म्स् की ज़रा-सी भी समझ हो और लिखने का हुनर तथा कला के प्रति अनुराग-आग्रह,वह इन फिल्म्स् को जगह देगा ही. इनमें भी "नीचा नगर" को हम विश्व-सिनेमा की कालजयी कृति कह सकतें हैं.यहाँ में एक और नाम जोड़ना चाहूगां,"दो बीघा ज़मीन". "बायसिकल थीफ" जो सम्मान विश्व-सिनेमा में हासिल है,"दो बीघा ज़मीन" उससे कहीं ज़्यादा सशक्त कृति है."गर्म हवा" अपना जो विशेष प्रभाव छोड़ती है,वही विशेष प्रभाव हम एक लम्बे गेप के बाद "पिंजर" में भी महसूस करते हैं.अपने सशक्त अभिनय से उर्मिला मार्तोंडकर फिल्म-इतिहास में अपना पन्ना जोड़ने में सफल रहीं हैं.लेकिन ध्यान रहे की फिल्म्स् की समीक्षा और समीक्षक फिल्म्स् अलग-अलग चीजें हैं.अंतर बहुत बड़ा नहीं है,बस रेशम और कोसा जैसा है.यहाँ भी प्रश्न खड़े किये जा सकते हैं कि आखिर कौन-सी फिल्म्स् समीक्षा के लिए हैं और समीक्षक की फिल्म्स् कौन-सी हो सकती हैं.मेरे लिए दस सर्वश्रेष्ठ फिल्म्स् चुनना थोडा मुश्किल काम होगा,हाँ दस-दस श्रेष्ठ फिल्म्स् की दस अलग-अलग सूचियाँ बना सकता हूँ.फिलहाल मेरी पहली सूची कुछ यूँ होगी -
१. अछूत कन्या,
२. दुनिया न माने,
३. आवारा,
४. मदर इंडिया.
५.मुझे जीने दो,
६. गाइड,
७.पाकीजा,
८.बाबी
९.शोले,
१०.जाने भी दो यारों.

- शेष फिर.....!

रविवार, 22 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (अंतिम भाग)

फाल्गुन माह की वह सुबह.उस दिन अर्चना का अंतिम प्रश्न-पत्र था.मैं सुबह से ही घर से उससे मिलने के निकल गया था.तब मेरे चेतन में ढ़ेरों बातें - अचेतन में ढ़ेरों स्वप्न और इनके बीच मैं,उन्हीं प्रश्नों के साथ जिन पर मैं कई दिनों से विचार कर रहा था.अपने को मथ रहा था.इस मंथन में गरल मिलेगा या अमृत,पता नहीं,पर आज मैं उससे मिलकर यह सब स्पष्ट कर लेना चाहता था.आखिर वह क्या चाहती है,यह जानना भी ज़रूरी था.अन्यथा हम यह संबंध अनावश्यक क्यों ढोए.यवनिका यदि उठनी ही नहीं है है तो फिर पटाक्षेप ही सही.पर इतनी सुबह-सुबह घर से निकलने पर भी अर्चना से मुलाक़ात नहीं हो पाई.
"पाषाणों को पूजा नहीं हमने,
लाँघ गए उन्हें जीवन-पथ जान,
कितना विष भरा हुआ,हुए नहीं अमृत हम,
अरे यायावर हम......"

अब यदि स्वयं की मानसिकता की बात कहूँ तो गत जुलाई से आज तक हमारे प्रेम के सफ़र जितनी भी बाधाएं आई थीं, वह सब अर्चना के द्वारा ही खड़ी की गईं थीं,बाहर का तो कोई भी व्यक्ति हमारे बीच में नहीं था और आया भी नहीं था.हालाँकि अर्चना हमेशा यही कहती थी कि उसकी बहनें इस संबंध के खिलाफ़ हैं और वह लोग मिलकर उस पर यह संबंध तोड़ देने के लिए दबाब डालते रहते हैं. पर अर्चना, यह बामनिया की बात थी,यहाँ तो तुम पूरी तरह स्वतंत्र थीं.तुम्हें ही अपने जीवन के सारे निर्णय भी स्वयं ही लेने थें,पर फिर हुआ क्या,क्या सोचा है आज तक तुमने स्वयं के बारे में-हमारे संबंधों के बारे में.तुम्हारे मन की तो मैं नहीं कह सकता,पर अपने मन की बात तो कह ही सकता हूँ,एक कड़वा सच और वो कड़वा सच यह है कि आज मैं तुमसे शादी करने की मानसिकता में नहीं हूँ.प्रेम के लिए मैं न तो कोई सौदेबाजी कर सकता हूँ और न ही कोई समझौता कर सकता हूँ और फिर अर्चना तुमने कभी मेरे प्रेम को वह सम्मान दिया ही कहाँ हैं,उसे स्वीकार किया ही कहाँ है.फिर सारी बातें तो बेमानी ही हैं.
फिर भी मैंने निर्णय पूरी तरह से अर्चना के ऊपर ही छोड़ दिया था,यदि आज-कल वह मुझसे शादी के लिए तैयार होती है तो मैं भी तैयार हूँ.
"हुआ ही नहीं है,कोई बयां ऐसा अभी,
कि ऐ ख़ुशी तुम,मिला करोगी हमें कभी-कभी"
अर्चना ने मुझे देख,मेरे साथ कालेज के द्वार तक आई.सबसे पहले उसने मुझसे अपने घर के विषय में पूछा,मैंने अनभिज्ञता प्रगट कर दी.मैंने उससे कहा,"चलो चलते हैं,रास्ते में बातें करेगें."
वह लगभग टालने वाले अंदाज़ में बोली,"नहीं,अभी मुझे मेरी एक सहेली के साथ जाना है."
फिर बामनिया भी साथ में चलने से इंकार कर दिया.मैंने कहा कि अच्छा कल मिल लेते हैं तो उसने उससे भी मना कर दिया.
बहुत थोड़े समय के लिए,शायद पूरे साठ सेकेण्ड के लिए ही हमारा यह मिलन था और यह वही अर्चना थी,जिसने मुझे पूर्व में भी कई बार आहत किया था.उन्हीं भाव-भंगिमायों के साथ.पल भर में ही मैं,मैं नहीं था.
'घर बनाया था एक,सपनों से लड़-लड़कर,
पर उन्हीं दीवारों में वही आँसू निकले."

मेरे आँसू,अन्दर ही अन्दर मुझे फिर तप्त करने लगे.मैं और मेरे सपने एक बार फिर चटखने लगे.
मैं क्या करता.....?
मैं कलिंग-विजेता अशोक की तरह सिर झुकाए चुपचाप वहाँ से घर की और चल दिया.
'जाने क्यों कर बैठे थे हम वादा,उम्र भर साथ निभाने का,
इस दौर में जबकि हर रिश्ता,दो-चार दिन का बहुत हुआ करता है,'
मैं बहुत-बहुत तन्हा घर लौट आया.
इतिहास ने स्वयं को दोहराया था.जब मैं ममता से स्वयं को अलग करने की मनःस्थिति में लगा हुआ था,तब वह भी फागुन माह ही था.आज भी फागुन माह ही है.फ़र्क आज सिर्फ़ इतना है कि आज मैं अर्चना से मानसिक रूप पूरी तरह अलग हो गया हूँ.जबकि ममता से मुझे मानसिक रूप से अलग होने में कई महीने लग गए थें.ममता मेरे जीवन का वह स्पंदन है,जिससे मैं आज भी स्पंदित होता रहता हूँ.ममता से मुझे कोई शिकायत-शिकवा नहीं था,पर उसे था और शायद ता-उम्र रहेगा भी.यह उसका कोई श्राप ही है जो रूप बदलकर ही सही मेरे सामने आज बनकर खड़ा था और इतिहास को दोहरा रहा था.
'अपनी पीड़ाओं से परे,
और नहीं है कोई इतिहास मेरा...."
प्यार आज फिर तुम मुझे छल गए.
"साक्षी गोपाल,
नाच्यौं मैं भी बहुत....'
मैं दुखी था और यह स्वाभविक भी था,आखिर यह चुनाव तो मेरा ही था तो फिर किसको दोष देने जाता.पर निराश नहीं था क्योंकि इस परिस्थिति के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार था.सिर्फ अर्चना ही तो मुझसे अलग हुई है,शेष जीवन तो मेरे पास है ही.अब इसके लिए इस खण्डहर में अरण्य-रोदन कौन करे.
ममता, आज तुम इस रंगमंच पर नहीं हो.अगर होती तो अपने ही किसी श्राप को फलीभूत होते देखतीं.क्या मैं इसी लायक था.तुमने तो मुझे जाना था-समझा था.देखो आज मेरा समूचा अस्तित्व एक प्रश्न-चिह्न अपने पर चस्पा किये खड़ा है.तुम भी मेरे जीवन में ऐसे ही अनाहट आइन थीं और फिर एक दिन ऐसे ही अनाहट चली भी गईं थीं.मैं तुममें और अर्चना में कोई समानता नहीं खोज रहा हूँ.तुममे और अर्चना में कोई साम्य हो भी नहीं सकता है.पर आज तुम बहुत याद आ रही हो.न जाने क्या बात है.तुम्हारे साथ ही तो प्यार से मेरा पहला परिचय हुआ था.तुम्हारे कारण ही तो मैं इस जगत को समझ पाया था.वह तुम ही थी जिसने,जिसने मुझ आवारा को सुधार था,सभ्य बनाया था.तुम्हारे साथ उस युग में सब-कुछ अलग ही था.तुम्हारे जाने के बाद से और अर्चना के आने तक जीवन में वैसे तो कई पढ़ाव आये,पर मैं उन सभी को दरकिनार करता चला गया.वह प्रेम तो था,पर मैं प्रेमी नहीं था.अतः मैं अपना डेरा समेत कर चल देता था.यायावर जो ठहरा.
"प्रेम का प्रतिदान.
प्रेम ही है,
जानता है यह अखिल-विश्व,
फिर भी कह जाता है -
क्यों कोई किसी से -
-नहीं."

और फिर अर्चना,तुम आई मेरे जीवन में.पर शायद तुम मुझे समझ नहीं सकी.यह मेरा भ्रम ही था कि तुमने मुझे समझ लिया है.पर सच तो यह था कि तुम स्वयं को ही कहाँ समझ पाई थीं.तुम भी तो इस अखिल-विश्व की एक इकाई थीं,तुम्हे भी प्रतिदान में प्रेम ही देना था.यह तुम जानती-समझती थीं,फिर भी 'नहीं' ही कह पाई.हालाँकि तुम्हारे साथ मैंने अपने जीवन के बहुत कम पल बीताये.तुम्हारे साथ का युग,समय और मैं,तीनों ही भिन्न थें.उस समय मेरे पास आत्मविश्वास था.संभावनाओं के सूत्र मेरे हाथ में थें.तमाम प्रतिकूलताओं के चलते भी परिस्थिति मेरे अनुकल थीं और जहाँ नहीं थीं,वहां मैं उन्हें अपने अनुकूल बनाने में सक्षम था.जीवन-धारा मस्ती से कलकल कर बही जा रही थी.तात्पर्य यह कि तब मैं ही मैं था और गगन में यहाँ-वहां पंख फैलाये उड़ रहा था.और फिर जब तुम जीवन में आईं तो तुम्हारे आते ही मैं मिटकर फिर प्रेमी होने चला था कि अचानक इतिहास वर्तुल गति से अपनी पंक्तियाँ दोहरा गया.एक अंतहीन नाटक सूत्रपात कर गया.दुःख भरे प्रहसन का सूत्रपात.आज मुझे यह गाथा लिखते हुए पूरे तेरह दिन हो गए हैं.हिन्दू-विधि के अनुसार कहूँ तो आज हमारी संभावनाओं-कल्पनाओं-इच्छाओं--उत्कंठाओं-सपनों और प्रेम आदि की तेहरवीं है.

"बनाते रहे कागज़ों पर इबारतें नित्य नई,

कभी कविता की-कभी कहानी की,

अपनी कहानी कोई सुना न सके,

गीत कोई गुनगुना न सके."

अंततः अर्चना चली गई.अर्चना-आर्ची मेरे जीवन-प्रांगण से चली गई और मैं फिर,फिर अकेला रह गया.रह गए यह कागज़,यह कलम और यह शब्दों का अंतहीन प्रवाह.

ममता के जिस स्पर्श से मुझे प्रेम की पहली अनुभूति हुई था,मैं कह सकता हूँ कि मेरे लिए प्रेम का जन्म उसी दिन हुआ था और अब प्रेम का मैं कहीं भी अंत नहीं पाता हूँ.ममता के साथ चला यह अंतहीन सिलसिला,जहाँ मैं प्रेमी बनकर इस प्रेम को जीता रहा.कई लोग आये-कई लोग विदा हो गए.कई जगह मैं आया-गया,कहीं-कहीं पढ़ाव भी डाले और यह यायावरी चलती रही.पर अभी-अभी अर्चना के मन-आँगन में आने के बाद मुझे लगता था कि मेरी इस आवारगी को-इस यायावरी को एक ठौर मिल जायेगा.एक स्थिरता आ जायेगी.पर अब पुनः एक नए सफ़र की तैयारी में संलग्न हो गया हूँ.दुखों का अपना महत्त्व है क्योंकि दुःख ही सुख की कामना पैदा करते हैं और सुख की कामना जीवन के प्रति समर्पण का भाव पैदा करती है.हम हारते हैं तो फिर लड़ते हैं,जीतते हैं तो नई लड़ाई के लिए आतुर हो जाते हैं.यही वर्तुल गति सुख-दुःख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद,प्रेम-घृणा के मध्य चलती रही है. अनवरत-अंतहीन,क्योंकि जीवन में कोई भी वर्तुल गतिहीन नहीं होता है और हर गतिशील वर्तुल अंतहीन होता है.अंतहीन इसलिए कि कोई भी एक सिरा तय कर पाना असंभव होता है.प्रेम भी ऐसा ही होता है,अंतहीन-वर्तुलाकार,बिना किसी कारण के.किसी को किसी से प्यार क्यों हो जाता है,इस प्रश्न का उत्तर तो विधाता के पास भी नहीं होगा.मैं भी कहाँ कुछ जान पाया हूँ जो कुछ भी कह सकूँ.

अतः मैं भी दुःख मनाने बैठ जाऊँ,ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि इस वर्तुल में मैं एक बार फिर कहीं प्रेम का स्पर्श करुगाँ,यह तय है.चाहे उसके लिए मुझे कितना ही समय क्यों लग जाए.इस तरह इस अंतहीन श्रृंखला में न तो दुखों का शौक मनाना चाहिए और न ही सुखों उत्सव,क्योंकि प्रेम से बड़ा न कोई उत्सव है और न ही उस प्रेम से उपजी पीड़ा से बड़ा कोई दुःख है.यह जीवन है या यही जीवन होना चाहिए,ऐसा मैं नहीं कहता हूँ.मैं तो सिर्फ अपनी कहता हूँ.

"लुटा दी हैं चान्दनियाँ सब

तुझ पर, तब सूरज से रिश्ता बनाया है."

आसमान पर सूरज आज भी उसी जगह पर है जहाँ वह सदियों से है.चाँद भी वहीँ है,जहाँ वह सदियों से हैं और यह आसमान भी.......और सब कुछ तो अपनी जगह पर है.मौसम भी उसी तरह से आ-जा रहें हैं,आते-जाते रहेगें.इस पूरे ब्रहमांड में,जहाँ हर पल कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है,तब मैं भी जो इसी ब्रहमांड का एक अणु हूँ तो यदि मैं भी परिवर्तन से गुजरता हूँ तो इसमें आश्चर्य क्या.'शिव-सूत्र' में त्रिपुरारी शिव,माँ पार्वती के इस प्रश्न कि जगत में परिवर्तन क्या है,का उत्तर देते हुए कहते हैं कि -"यह जगत परिवर्तन का है और परिवर्तन को परिवर्तन के द्वारा विसर्जित करो."

मुझे भी यही करना होगा.इस परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा.और जो परिवर्तन हुआ है उसे नए हो रहे परिवर्तन के साथ विसर्जित करना ही होगा.

मैंने सदा इस परिवर्तन को स्वीकार किया भी है.ऐसा भी नहीं है कि मैं कोई संत हूँ जो किसी परवर्तन से पूरी तरह अप्रभावित रहूँ.मैं संत नहीं हूँ, मैं राज हूँ.खुशियों को भी जीया है - आंसूओं को भी जीया है.प्रेम को भी जीया है-घृणा को भी जीया है.दुःख को भी स्वीकार किया है और सुख को भी छुआ है.व्यवहारिक को भी माना है और भावनाओं का मूल्य भी चुकाया है.चुप-गुपचुप भी रहा हूँ.बोल-बोल कर मुँह को भी थकाया है.नाचा-गाया भी हूँ और आँखों को आँसुओं से भर-भरकर धोया भी है.जीवन को जीने के लिए जो भी सर्कस कर सकता था,सब किया है.आगे भी यह सर्कस जारी रहेगा.पर कितना और कहाँ तक यह देखना अभी बाकी है.

"इसी मंच पर,

इस पार मैं -

उस पार तुम सूत्रधार,

फिर भी हम खेल रहे हैं.

हमारा नाटक, "जीवन नैया"

बस यह शब्द ही मेरे हर परिवर्तन के साक्षी रहे हैं. मैंने भी हर परिवर्तन को शब्दों में ढालकर अपने ही अक्सों को सम्हाल कर रख लिया है.एक दिन, जब मैं नहीं रहूगाँ, तब यही शब्द-चित्र मेरे बिम्ब बनकर दृष्टिगोचर होते रहेगें.मृत्यु शाश्वत है और अब मुझे उसी शाश्वतता की - उस मृत्यु-उत्सव की प्रतीक्षा है.

अगर मेरे पास लेखन की क्षमता नहीं होती तो शायद मैं मैं नहीं रह जाता.क्या होता ठीक-ठीक नहीं कह सकता.पर मैं अपना ही सच स्वीकार करता हूँ कि यदि मैं लिखूं नहीं तो अंतरतम में जो उमड़ता-घुमड़ता रहता है, वह बात बनकर बाहर नहीं आ पाता है.

"किसी घाट जो ठहर जाता,

तो बहता कैसे कल-कल कर,

मुड़ जो जो न जाता कहीं,

तो गिरता कैसे बन निर्झर,
अपनी अश्रु-अर्चना से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

बस यही इतिहास रहा है मेरा.हमेशा निर्झर बनकर बहता रहा हूँ.प्यार के इस दरिया में मैंने एक लम्बा रास्ता तय किया है.प्यार के कई घाटों पर ठहरा-थमा भी पर यह सब किनारे ही बनकर रह गये.मैं अपने साथ किसी भी किनारे को निर्झर नहीं बना पाया.अपने साथ चलने को राजी नहीं कर पाया.यह मेरा प्रारब्ध.शायद मेरे नीर में ही वह कल-कल का मधुर नाद नहीं होगा कि कोई मेरे पीछे-मेरी दीवानगी में निर्झर बन मेरे साथ हो लेता.मैं ही अपने में हैमलिन के बांसुरी वादक-सा जादू नहीं जगा पाया.किसको दोष दूँ और क्या दोष देने से मेरे सारे दोष ढँक जायेगें,नहीं,कभी नहीं.

शब्दों से बहुत खेला लिया हूँ,फिर भी शब्दातित ही हूँ.आज कई अनकही बातों को शब्दों में ढालकर सूत्रधार बनना चाहता हूँ.पर यह सूत्रधार भी कितना कमज़ोर है,इस मंच पर रहा तो बहुत देर तक पर फिर भी अभी कुछ छूट गया-सा लगता है.इस पागल सूत्रधार को न जाने किस प्रेम के मृदुल स्पर्श की प्रतीक्षा है.

"कि एक दिन कोई आता,

पकड़ अंगुली चंचल सुखमय की,

चल देता यह अवसाद घट -

छोड़ कथा इस औघड़ की.
अपनी तथा-कथा से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

आज ग्रीष्म की इस भरी दुपहरी में मैं इस कथा का अंत करने जा रहा हूँ.यह राज अब अपने को समेटने जा रहा है,वही राज,जिसने इस कथा का प्रारम्भ किया था,जब कल सुबह होगी तो वह परिवर्तित होकर दूसरा ही राज हो जायेगा.कल से मैं राज,एक नए राज के साथ शुरुआत करुगाँ,फिर कहीं किन्हीं पन्नों में सिमट जाने के लिए.बहुत वर्षों के बाद लिखा और अपने अवसाद के बाबजुद पूरे आनंद के साथ लिखा.

होली के रंग भी देखे.उदयपुर - नाथद्वारा के ढंग भी देखे.खूब गुलाल लगाया.श्रीनाथ श्रीकृष्ण के साथ होली की मस्ती भी की और प्रेम के सारे रंग उन पर ही उड़ेलकर स्वयं प्रेम ही हो गया.

"शूल हुए हाथों से -

पूजे हमने देवता हमारे,

एक सूखी नदी में -

अर्पण हुए श्राद्ध हमारे,
कोई नहीं नेह-बंधन अब,

छूटे उम्र के सब मतवारे,


भटक आये द्वारे-द्वारे,

मेरे दीप के उजियारे."


- शेष फिर.......!

====== समाप्त =======
आभार -
मैं यह पूरा उपन्यास अपने उस मित्र को समर्पित करता हूँ,विशेषकर यह अंतिम भाग,जिसके एक प्रश्न ने मुझे अपने इस उपन्यास को पुनः लिखने को प्रेरित किया.उसके बिना यह उपन्यास मेरे पास ही कागज़ों में कहीं गुम पड़ा रहता.उस मित्र को साधुवाद.

आप सभी सुधिजनो का जिनकी प्रतिक्रियाओं से मैं उर्जित होता रहा.

स्वयं का,इसे पुनः लिखते हुए मैं जिन परिस्थिति से गुजरा हूँ,जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरा हूँ और जिन दुखो को पुनः जीया है,उसमें भी अपना हौसला बनाये रखने के लिए. ---- ------------------------------------------



रविवार, 15 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (भाग-नौ)

यह ज़िन्दगी दस्तूर पर चलती है,जज़्बातों पर नहीं.जज़्बात बहकते हैं.अपने उन्मान से ही बहकाते हैं.पूरी नज़्म अगर ज़िंदगी के सफ़े पर शाया हो जाए तो आदमी जो इस कायनात में सबसे दानिशमंद कहलाता है,माना जाता है, बुरी तरह टूट जाता है.ऐसी नज्में जब लफ्ज़ों के दरीचे से ख्वावों की बहारें ला रही होती हैं तो वहीँ उसी दरीचे के पास वाला दरवाज़ा हकीकतों की दस्तकों से भर जाता है.
सवाल यह है कि फिर जीया कैसे जाये और कहाँ तक जीया जाये.मैंने इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य सामंजस्य बनाने का दुष्कर कार्य किया है और कब तक करता रहूगाँ,पता नहीं.
"जीवन, जो जीया नहीं,
जीया जिसे -
उसे जीवन कह न सके....'
इस जीवन में लड़ने का हौसला है,हारने का अनुभव है,जीतने के लिए संघर्षों की अंतहीन श्रृंखला है.सुख के लिए आँखों में सलोने स्वप्न हैं.दुखों के निर्बाह के लिए मनःस्थिति है.प्रेम की प्रतीक्षा है.आलोचनाओं का केंद्र बिंदु रहा हूँ.मेरी अपनी क्षमताएं-अक्षमताएं हैं.पर तमाम विडंबनाओं-विविधताओं-विचित्रिताओं-विसंगतियों के चलते इनके बीच मैं निराश नहीं हूँ.हमेशा की तरह आज भी अश्रुदीप जलाकर उसकी ज्योत्स्ना में मुझे इस जीवन में,इसी जीवन में प्रेम की सार्थकता में पूरा-पूरा विश्वास है.आज भले ही मैं दुखी हूँ,पर चूँकि यह दुःख मेरे द्वारा ही चुने गए हैं,अतः मैं ही इनसे बाहर निकलने की युक्ति भी जानता हूँ.इन्हें कहीं भी छोड़ सकता हूँ और इसलिए मुझे अपने दुखों से कोई गिला भी नहीं है.
"इस परवानों की दीवानगी भी क्या,
मयक़दों को अपनी साकी से होश भी कहाँ,
कि कहनी थी एक दास्ताँ हमे भी,
पर हर महफ़िल में खामोश रह गई ज़िंदगी."

बहुत भटक गया हूँ मैं.पर क्या करूँ,उस पत्र की भाषा थी ही ऐसी कि मैं बहक ही गया.दो दिन के बाद ही मैं राजेश पालीवाल की शादी में सिरोंज चला गया.वह पालीवाल ने मुझसे कहा की डॉ.व्यास की बेटी की शादी में.अभी पिछले ही हफ्ते,अर्चना और नासिर दोनों ही वहाँ मिले थें और दोनों ने वहाँ खूब मस्ती भी की.सुनकर मुझे थोडा अजीब तो लगा पर मैंने ध्यान नहीं दिया और मैं ध्यान देता भी नहीं, क्योंकि मैंने अपने जीवन में कभी संकीर्णता को कोई स्थान नहीं दिया है,पर मेरा ध्यान खींचा स्वयं नासिर ने,उसी ने एक दिन मुझे मेरे आफिस में फोन करके मुझसे मिलने का समय माँगा तो मैंने उससे कह दिया कि वह शाम को आकर मुझसे मिल सकता है,पर उसने कहा कि वह मुझसे अकेले में पेटलाबाद में मिलना चाहता है,तो पहले तो मैंने मना कर दिया पर उसके ज़ोर देने पर कहा कि ठीक है आकर मिलता हूँ,पर फिर गया नहीं.मैं सोच में पड़ गया कि आखिर नासिर को मुझसे क्या काम हो सकता है,मैंने आज तक उसके बारे में सिर्फ़ सुना भर था,उससे कभी मिला नहीं था और न ही वह कभी मुझसे मिलने आया था. उसके बारे मैं सिर्फ इतना ही जानता था कि अर्चना और वो दोनों एक-दुसरे को खूब अच्छी तरह जानते हैं और दोनों में प्यार भी है. इस बारे में मुझे अर्चना ने सिर्फ़ इतना ही कहा था कि वो दोनों अच्छे दोस्त हैं,पर अन्य लोगों ने तो मुझे चटखारे ले-लेकर कई-कई बातें बातें थीं,पर जैसा कि मैंने कहा है कि मैंने कभी इस तरह संकीर्ण होकर नहीं सोचा है और फिर कौन किसके इंतजार में सारी उम्र बैठा रहता है.यहाँ भी यही बात है कि न तो अर्चना मेरे लिए बैठी थी और न ही मैं अर्चना के लिए बैठा था.बस एक दिन हम मिले और हममें प्यार हो गया.मेरे उसके जीवन में आने से पहले और उसके मेरे जीवन में आने से पहले हम दोनों के जीवन में कौन-कौन आया और कौन गया.इसका हिसाब कौन रखता है.मैं तो बिलकुल ही नहीं रखता.अतः जिन-जिनने भी मुझसे अर्चना और नासिर को लेकर रस ले-लेकर बातें करीं थीं उन्हें मुझसे निराशा ही हाथ लगी थी.मैंने भी नासिर से मिलने की या उसके बारे में जानने के बारे कभी भी कोई कोशिश नहीं की थी,यह मेरे स्वभाव में ही नहीं था.यहाँ तक एक-दो बार स्वयं अर्चना ने मुझसे नासिर से मिलने को कहा था, पर मैंने कोई जबाब नहीं दिया.क्यों मिलूं,इसका कभी कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आया.
पर नासिर स्वयं मुझसे मिलना चाहता था.पर क्यों ....यह मेरे लिए एक पहेली से कम न था.उधर मैं मार्च की क्लोजिंग में व्यस्त था.फिर जब महाशिवरात्रि आई तो मैं भोपाल चला आया.यहाँ मैंने पटेल की शादी के उपलक्ष में एक छोटी-सी पार्टी रखी थी.रविवार को सभी मित्र इक्कठे हुए और फिर उन्हीं लोगों के साथ,दिन भर शादी और द्वारका-सोमनाथ के किस्सों में सारा दिन बीत गया.यहाँ मेरे साथ एक अनहोनी हुई,जिसने मुझे अर्चना के साथ मेरे संबंधों के विषय में सोचने पर मजबूर कर दिया.हालाँकि इस अनहोनी का अर्चना से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था.
असद, मेरे बचपन का मित्र,उसने उस रात मुझे अपने विवाह के विषय में जो कथा सुने उसे सुनकर मैं दंग रह गया.जहाँ उसकी शादी तय हुई थी और जिस लड़की से वह प्यार करता था,वहीँ उसके खिलाफ षडयंत्र रचे जा रहे थे और वह वहाँ से भाग रहा था.मुझे दुःख इस बात का था कि असद ने मुझसे पहले से ही यह बात क्यों नहीं बताई.वह बहुत ही उदास और निराश था.आश्चर्य इस बात का था कि उस जैसा जीवट वाला लड़का,प्रेम के मोर्चे से भाग खडा हुआ था.इस पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि उसे भागना नहीं चाहिए,बल्कि लड़ना चाहिए.तब मैंने उसे अर्चना और मेरे विषय में बताया और उसमें मैंने अपनी भूमिका के विषय में भी उसे बताया.फिर हम दोनों काफी देर तक इसी विषय पर बातें करते रहे.दुसरे दिन ईद थी और मैं ईद मिलने के जब इरशाद के यहाँ गया तो उसने मुझे असद के बारे में नए तथ्यों से अवगत कराया.रात को जब मैं वापिस बामनिया आ रहा था तो मैं असद के घर गया और फिर उसे लेकर रेल्वे-स्टेशन आ गया.यहाँ आकर हम-दोनों ने प्रेम,विश्वाश,संबंध,छल और इन सबमें अपनी-अपनी भूमिका एवं उसकी सामाजिकता के सन्दर्भों पर करीब दो घंटे तक बातें की.मैंने उसे हर तरह से समझाया कि जीवन में ऐसे दौर तो आते ही रहते हैं.मनुष्य होने की असली परीक्षा तो ऐसे ही मुश्किल दौरों में होती है.उसे लड़ना चाहिए.मुहँ छिपाने से समस्या हल नहीं होती है.समस्या सामना करने से हल होती है.शक और विश्वाश,दो अलग-अलग पहलु हैं.शक की कोई बुनियाद नहीं होती है,शक अनुमानों पर आधारित होता है और विश्वाश की बुनियाद होती है.असद ने भी स्वीकार किया की मैं सही कह रह हूँ.असद ने कहा की वह मेरी बातों से संतुष्ट है और वह इसे गंभीरता से लेगा.
"कह दें तुम्हे अहले बे-वफ़ा,
हमारी मोहब्बत में वो नफ़ासत कहाँ."

असद तो चला गया,ट्रेन भी चला दी,पर मैं उस पूरी रात सफ़र में सो नहीं पाया.रात भर मैं इस घटना और उन सारी बातों के सन्दर्भ में ही सोचता रहा.एक तरफ असद था और दूसरी तरफ मैं था.यहीं से मैंने अर्चना के विषय में,उससे अपने संबंधों की नई व्याख्या शुरू कर दी.पर मैं अर्चना को अहले बे-वफ़ा कह दूं,ऐसी तो मेरी मोहब्बत में नफ़ासत कहाँ है.न ममता,न लीना,न अर्चना और न ही अन्य कोई......मैं किसे बे-वफ़ा कह दूं.मोहब्बत में कोई बे-वफ़ा नहीं होता है,सिवाय वक़्त के.रात भर ट्रेन की धड-धड में वो सभी दिन स्मृत हो आये,जब मैं अपनी पूरी दीवानगी-अपने पूरे जूनून के साथ अर्चना तक दौड़ा-दौड़ा जाता था और वह मुझे जानवर तक कह देने में नहीं हिचकती थी.वह कभी मेरे इस जूनून को-मेरी इस दीवानगी को समझ नहीं पाई थी.वह तो मेरे प्यार को ही कहाँ समझ पाई थी.उसके दिए वह सभी दंश यकायक पुनः हरे हो गए.उस दौड़ती-भागती ट्रेन में उन घावों में से मवाद बाहर आने लगा.मैं सोचने लगा कि यह वही लड़की है,जिसने मुझे खिलौना समझा और मैं भी सब-कुछ समझाते हुए-जानते हुए भी,इस लड़की की परिस्थितियां देखकर हमेशा अपने स्वाभिमान को एक तरफ सरकाकर,इसके लिए ढेरों सुखों के अक्स लिए इसी के पास आता था और यह मुझे अपने ज़िद्दी-क्रूर पिता के समकक्ष रखकर ही सोचती थी. काश अर्चना,कभी तुमने अपने इस व्यव्हार के विषय में सोचा होता.मुझे कितना तोड़ा है तुमने,यह तो तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकती हो,क्योंकि तुमने कभी प्यार किया ही कहाँ है?
" मैं प्रेम कर,
सब-कुछ पा लेने जैसा-
पा लेना चाहता था,
और,
इस प्रेम-प्रतिदान में -
स्वयं को खो बैठा."
कई-कई पीड़ाओं ने मुझे घेर लिया और मुझसे पूछने लगीं कि,"राज,तुम एक बार फिर अर्चना को लेकर घरौंदा बनाने का प्रयास क्यों कर रहे हो,क्यों फिर इस बेकार-सी झंझट में जुट रहे हो.ज़रा सोचो,यह वही लड़की है,जिसके साथ तुम्हे प्यार कम और पीड़ा कहीं अधिक मिली है.तुम इसके साथ क्या कभी खुश रह पाओगे.अगर शादी के बाद भी इसका यही व्यवहार रहा तो फिर उसका परिणाम क्या होगा? कभी सोचा है......?"
मैं अपनी ही पीड़ाओं का अंतर्नाद नहीं सुन पाया.आँसू अन्दर ही अन्दर बह चले.मैं सोचने लगा कि मैंने अर्चना से कहा है कि यदि मुझसे विवाह के प्रति उसकी मनःस्थिति हो तो ही वह मुझसे विवाह करे.वहीँ असद से भी मैंने यही कहा है कि वह भी अपनी मनःस्थिति पर विचार करे.पर क्या कभी मैंने स्वयं अपने प्रेम का,उस प्रेम से उपजी अपनी मानसिकता का कभी आत्मावलोकन किया है? मेरी स्वयं की मानसिकता क्या कहती है?जैसा कि मेरी पीड़ाओं का अंतर्नाद है,उस अंतर्नाद के परिप्रेक्ष्य में मेरी मनःस्थिति कहाँ है?मैं सबसे तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहा हूँ,पर क्या यह 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली स्थिति नहीं है? मैं बस सोचता चला गया-सोचता चला गया.स्टेशन आते रहे-जाते रहे.दिमाग़ की नसें फट जाएँ और मैं मर जाऊँ,इस हद तक मैं सोचता चला गया....!
'हुए तुम-प्रेम और मैं मौन,
कितने थें पल पास हमारें,
मिलन को उद्धत थें सभी भाव कि-
गीत घुंघरुओं के चुरा ले गया कोई."
मैं बामनिया पहुचाँ तो पता चला कि नासिर मुझे कई बार पूछकर जा चुका है.वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है,यह तो मैंने अनुमान नहीं लगाया और मैं भाईजान के पास गया और उसे जाकर सारी बातें बताईं कि यह नासिर मुझसे मिलने को बेक़रार है.तो भाईजान ने मुझसे कहा कि मिल क्यों नहीं लेते हो.कल ही चलते हैं और मैं भी तुम्हारे साथ चलूगां. मैं राजी हो गया.दुसरे दिन भाईजान और मैं दोनों ही पेटलाबाद,नासिर से मिलने जा पहुचें.
नासिर भाईजान से इजाज़त लेकर मुझे अलग ले गया और उसने मुझे बताया कि वह डॉ.व्यास कि बेटी की शादी में अर्चना से इंदौर में मिला था.यह तो मुझे पता ही था.मैं तो असल बात जानने में उत्सुक था.उसने कहना शुरू किया कि वहाँ शादी में अर्चना ने उसे मेरे बारे में बताया था और कहा था कि वह एक बार राज से ज़रूर मिल ले और मिलकर प्रेम और विवाह के सन्दर्भ में अर्चना के प्रति मेरा दृष्टिकोण क्या है,यह जान ले.हमने करीब दो घंटे बातें कीं,उन पूरी बातों का सार यह था कि वह मुझसे यह अपेक्षा रखता था कि यदि मैं अर्चना से शादी कर रहा हूँ तो फिर उसे पूरी ज़िंदगी निबाहूँ भी.उसके लिए मुझे अपना परिवार भी छोड़ना पड़ेगा.कहीं इन सबके चलते मैं उसे बीच मझधार में न छोड़ दूँ और फिर किसी अन्य लड़की से कोई संबंध न बना लूँ या उससे शादी न कर लूँ.मुझे पूरी तरह अर्चना के प्रति ही समर्पित रहना होगा.नासिर मुझसे आश्वासन चाहता था या मुझे अर्चना के प्रति ही समर्पित रहने का दबाब डाल रहा था,यह मैं समझ नहीं पा रहा था,क्योंकि उसे भी ठीक-ठीक से नहीं पता था कि आखिर वह अपनी बात कैसे मेरे सामने रखे और किस तरह से वह अपने-आप को अर्चना का प्रतिनिधित्व साबित करे,यह वह भी समझ नहीं पा रहा था.पर वह कहता रहा और मैं जहाँ भी ज़रूरी हुआ उत्तर देता रहा.मुझे आश्चर्य हो रहा था कि आज क्यों कर अर्चना नासिर के माध्यम से यह जानना चाहती है कि मैं कहीं उसे धोखा तो नहीं दें जाउगां.यह तो वह मुझसे सीधे ही पूछ सकती थी,नासिर को बीच में क्यों लाई.पागल लडकी,आज भी मुझे समझ नहीं नहीं पाई है.अर्चना में निश्चित रूप से आत्म-विश्वास की कमी है.अभी वह स्वयं के प्रति ही आश्वस्त नहीं तो वह मेरे पति या किसी और के प्रति क्या आश्वस्त होगी.पर यहाँ एक बात तो स्पष्ट हुई कि वह मेरे बारे में सोच तो रही है,पर मुझे लेकर उसकी मानसिकता अभी भी नहीं बन रही है.
नासिर मुझसे कोई स्पष्ट उत्तर लेकर इंदौर में अर्चना के पास जाना चाहता था तो मैंने उससे कह दिया कि वह अर्चना से न मिले और इस विषय में उसे अकेले ही निर्णय लेने दें.मैं यह पसंद नहीं करूगाँ कि आज वह किसी के कहने से मुझसे शादी कर ले और कल को यदि उसे अपने निर्णय पर पछताना पड़े तो वह यह नहीं कहे कि मैं तो इस शादी के लिए तैयार ही नहीं थी,वो तो मैंने फ़लाने के कहने पर शादी कर ली थी,वर्ना....!और मैं इस बात को कभी सहन नहीं कर पाऊगाँ.नासिर भी इस बात सहमत हो गया,पर वस्तुतः वह करेगा क्या,यह मैं कह नहीं सकता था.वह चला गया.
नासिर कहीं से भी मुझे प्रभावित नहीं कर सका.हालाँकि उसने मुझसे कोई भी बेढब बात नहीं की और बड़े ही अदब से पेश आया,पर फिर भी वह मुझे कहीं से भी प्रभावित नहीं कर पाया.उसने जितनी भी डॉ मुझसे बात करी थी वह अर्चना के प्रतिनिधित्व के रूप में ही बात की थी और उसकी यही शैली मुझे पसंद नहीं आई.
मैं सोचने लगा कि यह अर्चना स्वयं मुझसे इस सभी विषयों पर बात क्यों नहीं करती है.मैं उसके हर सवाल का जबाब दूगाँ और शायद कहीं बेहतर ढंग से जबाब दें पाऊगाँ.मुझे अपनी ही कहानी 'आराधना' की याद आ गई.उसमें मैंने एक जगह लिखा है कि,"ममता,जिस प्यार को मैं सहजता से कह गया,उसी प्यार को तुम कभी भी सहजता से नहीं ले पाईं......!"
आज इतिहास फिर अपने आप को दोहरा रहा था.सहजता और असहजता के बीच जीवन फिर हिचकोले ले रहा था.मेरा अर्चना से मिलना ज़रूरी हो गया था.
"हो निस्तब्ध निशा या चांदनी का शोर,
स्वप्न भर बातें हों या करवट बदलती रातें,
मेरी नींद के यह सब सहारे,
फिर कौन डाल जाता है सिलवटें मेरे बिस्तर पर,
दुःख - कौन छोड़ जाता है तुम्हे मेरे द्वार पर."
कितना और कहाँ तक भी चला जाऊं,अंततः वह एक दिन मेरे पास अनाहट आ ही पहुचाँ है.वही 23 मार्च 1994 का दिन,मेरे जीवन का वह पृष्ठ जिसके लिए मैं पिछले कई दिनों से कई-कई पृष्ठ रंग चुका हूँ और स्मृतियों के मेले में यहाँ-वहाँ घूम-भटक भी आया हूँ.इस बहाने स्वयं का काफी मंथन कर लिया है और इस मंथन से जो विष और अमृत निकला है,उसका मैं अकेला ही भागी हूँ.मेरे अन्दर देवासुर संग्राम चल रहा है.पल-प्रतिपल जीत-हार की लहरों पर डूबता-उतराता जा रहा हूँ. इन ढेरों शब्दों के साथ आप सभी को भी बांध लिया है.विषजयी होने अमूर्त कामना के चलते अमृत लुटा रहा हूँ.मैं वही राज हूँ,जिसने अपने जीवन के कई रंग इस फाल्गुन में आपके सामने रख दिए हैं,और पीड़ा का अनुभव तो बाँट दिया है पर उसके एहसास को कभी-भी नहीं बाँट पाऊगाँ.अब इस कथा के सूत्रधार के रूप में बहुत देर से मंच पर हूँ.अब हटता हूँ और प्रस्तुत करता हूँ मेरे जीवन का सर्वथा नया नाटक,"23 मार्च 1994."
"फागुन, तुम आयें हो / यूँ तो /
लेकर हजारों रंग,
पर कितने फीके-फीके......."

रविवार, 1 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (भाग-आठ)


उसी रात मैं अहमदाबाद,पटेल की शादी में शामिल होने के लिए चल दिया.रात्रिकालीन बस आरामदेह मिली अतः दिन भर की थकन के बाद मैं रत भर आराम से सोता हुआ सुबह नडियाद पहुंचा और फिर वहां से बस पकड़कर पेटलाद पटेल के घर पहुंचा और फिर पूरा दिन मित्रों के साथ गहमागहमी में बीता.इन दिनों गुजरात में पानी की बेहद कमी थी, अतः शादियों में मेहमानों की संख्या पर भी प्रतिबन्ध था.शादी भी दिन में ही करने का आग्रह सरकार की तरफ से था और सरकारी आग्रह का मतलब होता है कि उसे मानने में ही भलाई है,अतः यहाँ भी वही सब हो रहा था.मेहमानों के अंतर्गत सिर्फ हम सब बाहर से आये लोगों को गिना गया था,बाकी सब तो स्थानीय ही हो गए थें.इन सभी हलचलों के बीच हम शादी का मज़ा भी लेते रहे और दुसरे दिन हम सभी मित्र बाराती बनकर अहमदबाद आ गए.अहमदाबाद भारत का एक बड़ा औध्योगिक शहर है.इसकी अपनी संस्कृति और अपना ही रंग है.गुजरात का केंद्र बिंदु होने के कारण इसकी गिनती देश के महानगरों की श्रेणी में होती है. यहाँ हम दिन भर शादी में व्यस्त रहे. यहीं हम सभी मित्रों ने द्वारका-सोमनाथ जाने का कार्यकम बना लिया और रात को जब हम सोमनाथ जाने के रवाना हुए तो सोमनाथ जाने का मेरा वर्षों पुराना स्वप्न साकार होने को था.गलत डब्बे में सवार होने के कारण हमें आधी रात तक परेशान होना पड़ा,पर अंततः सब ठीक हो गया और जब सुबह वीरावल से सात किलोमीटर दूर सोमनाथ पहुंचे तो अरब सागर की ठंडी हवाओं ने हमारी सारी थकान और परेशानी छीन हर ली.सुरम्य-सौम्य अरब सागर के किनारे खड़ा सोमनाथ भारतीय इतिहास का वह पन्ना है,जिसके रक्त की स्याही आज भी नहीं सूखी है.इसी मंदिर के विशाल प्रांगण में ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी में विश्व-प्रसिद्द युद्ध हुआ था जिसने भारतीय इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया था.इतिहास इसे हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए लड़ा गया युद्ध बताता है पर मेरा मानना यही है कि यह भारत की संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ा गया वह युद्ध था,जिसके आधार पर कालांतर में इस्लाम के आक्रामक तेंवरों के बाद भी भारतीय संस्कृति जस की तस् बची रह पायी है क्योंकि इस युद्ध ने आगे के ऐसे सभी संघर्षों को अपनी उर्जा दी है.इस महान गाथा पर हमारे साहित्य में दो महत्वपूर्ण उपन्यास हैं, एक आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखित,"सोमनाथ" और दूसरा कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित,"जय सोमनाथ" है.हमारा गौरवशाली अतीत के जीवंत दस्तावेज़.सात किलोमीटर लम्बा कब्रिस्तान इसका आज भी साक्षी है.जबसे मैंने यह दोनों उपन्यास पढ़े थे,तब से ही सोमनाथ जाने की इच्छा थी और आज अरब सागर के किनारे खड़ा मैंने प्रकृति की इस अनुपमता और अतीत के रोमांच के बीच खुद को विस्मित-सा पा रहा था.

दोपहर को हम मंदिर में थें.संगीत की ऐसी भक्तिमय लय पहली बार ही सुनी थी.भक्ति-संगीत का अनूठा आनंद लेकर हम मंत्रमुग्ध से जब मंदिर से बाहर निकले काफी देर तक हम चुप ही रह गए थे.दोपहर के बाद हमने द्वारका की और प्रस्थान किया.यह पूरी यात्रा समुद्र के किनारे-किनारे ही थी.सोमनाथ से द्वारका करीब ढ़ाईसौ किलोमीटर दूर है.रास्ते में हम पोरबंदर भी रुके, महात्मा गाँधी की जन्म-स्थली,अतः विश्व में इसका अपना महत्त्व है.समुंदर के किनारे-किनारे का यह सफ़र बहुत ही सुहावना था.पास में ही हर्षद नामक जगह है,जहाँ हरसिद्धि देवी का प्राचीन मंदिर है.यहाँ भी हम आरती के समय ही पहुँचे और एक बार फिर भक्तिमय संगीत की मधुरता का अमृत छका. रात को हम द्वारका पहुँचे.हिन्दुओं के चार धामों में से पश्चिम दिशा का धाम है द्वारका.श्रीकृष्ण की नगरी - द्वारका.द्वारिका अर्थात् द्वार,द्वार,पावनता का - पुण्य का - धर्मं का - पुरुषार्थ का - प्रेम का - मोक्ष का.रात्रि विश्राम हमनें एक धर्मशाला में किया और अल सुबह आरती में शामिल होने के लिए मंदिर में प्रवेश किया,अर्थात् श्रीकृष्ण की द्वारिकापुरी में प्रवेश किया था.हम सभी बहुत ही आनंदित थें.दिन भर हम द्वारका में घूमते रहे. द्वारका नगर पंचायत द्वारा द्वारका-दर्शन कराया जाता है और यह यात्रा और अधिक आनंदित देने वाली हो जाती है.दोपहर बाद हम सभी सागर किनारे,उसकी लहरों का संगीत और उसकी लहरों से अठखेलियाँ करने पहुँच गए और फिर तीन घंटे तक हम सभी सागर किनारे सन-सेट तक वहीँ मस्ती करते रहे.रात को फिर सफ़र शुरू हुआ अहमदाबाद की और.

सुबह अहमदाबाद पहुंचे तो पता चला कि गुजरात के मुख्यमंत्री का निधन हो गया है.अतः अहमदाबाद सहित पूरा गुजरात बंद था.बंद अहमदाबाद बहुत ही उदास लग रहा था.मित्रों की इच्छा थी कि यहाँ से कुछ खरीददारी की जाए और वह अरमान तो रह ही गया.मेरी यह अहमदाबाद की कोई पहली यात्रा नहीं थी अतः मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था पर बाकी सभी मित्र उदास थें. तब मैंने ही पास में गांधीनगर में अक्षरधाम देखने का कार्यक्रम बना लिया और सब तैयार भी हो गए.दोपहर में हम सभी अक्षरधाम पहुँच गए.

अक्षरधाम गुजरात के स्वामीनारायण पंथ का विशाल और भव्य मंदिर है.स्वामीनारायण पंथ गुजरात लोकप्रिय पंथ है,जिसमें स्वामी नारायण के सानिध्य में हरी भक्ति की जाती है.यहाँ विज्ञान और धर्म का ऐसा अद्भुद संगम है कि आप चकित से - मंत्रमुग्ध से रह जाते हैं.महाभारत के मायामहल जैसा यह मंदिर अत्याधिक आकर्षक एवं मोहक है.यहाँ का विशेष आकर्षण है यहाँ का 14 पर्दों वाला थ्री-दी थियेटर.शाम को हम सभी मित्रों ने अहमदाबाद से अपने-अपने धाम की और प्रस्थान किया.सुबह झाबुआ पहुंचकर मैं बामनिया आ गया और फिर थकान उतारने में लग गया..25 फरवरी को मैं इंदौर गया पर अर्चना से मिलने जान-बुझकर नहीं गया.वहीँ से मैं भोपाल चला गया.मैं अपने पिछले प्रवास में ही अर्चना से कह आया था कि मैं अब उससे मिलने नहीं आऊँगा.भोपाल से जब मैं पुनः बामनिया पहुँचा तो अर्चना का पत्र मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.इस बीच अर्चना की छोटी बहन का एक्सीडेंट हुआ था और अर्चना उसे देखने बामनिया भी आई थी पर मैं बामनिया था नहीं तो वह नन्द से मेरे बारे में पूछकर चली गई थी.मैंने पत्र खोलकर पढ़ना शुरू किया तो पाया कि पत्र की भाषा काफी बदली-बदली हुई थी.एक रोमांचक भाषा.आज हमारे संबंधों की यात्रा "राज" से "प्रिय राज" के सफ़र से होती हुई,"डियर राज" और "राजजी" के पढ़ाव को पार करती हुई "मेरे राज" के पढ़ाव पर थी.कल संबंधों के यह संबोधन कहाँ पहुचंगे कह नहीं सकता.

"प्यार-वफ़ा-दोस्ती-रिश्ता,सुना तो बहुत है इन लफ्ज़ों को,

कोई तो बताये ऐ "बादल",इनकी पहचान क्या है."

संबंधों की अंतर्यात्रा का अगला पढ़ाव शुरू हुआ.अर्चना तुम शायद ही कभी समझ पाओ कि जीवन में जब प्रेम ही प्रधान हो जाता है और जब जीवन का सारा गणित प्रेम का ही समीकरण बन जाता हो और प्रत्येक स्पंदन की गूँज में जब प्रेम ही राग बनकर संगीत की स्वर-लहरियां छेड़ने लगता है तब जीवन की भावनात्मकता और व्यावहारिकता में और इससे जुड़ी रोज़मर्रा की संगतियों-विसंगतियों में सामंजस्य बैठाना कितना दुष्कर कार्य होता है

इसी दुष्करता में मैं सामंजस्य बैठाने में लगा हुआ था.एक तरफ है मेरा परिवार,रिश्तेदार-मित्र आदि,जहाँ इनसे जुड़ी सामजिकता में मेरा अपना एक स्थान है.उस सामाजिकता की उपादेयता मेरे लिए क्या है,यह सोचना निरर्थक है,क्योंकि जीने के प्रति मेरे अपने मापदंड हैं.मेरी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं.मेरा अपना तरीका है-क्षमता है अतः उपादेयता के सन्दर्भ मेरे लिए बौने ही हैं.और अर्चना एक दूसरा पहलु है.अपनी सामाजिकता की अनदेखी करना या उसकी उपेक्षा करना कहाँ तक की समझदारी है,यह मैं नहीं जानता क्योंकि हम सभी कहीं न कहीं तो किसी न किसी स्तर पर तो एक-दुसरे से जुड़े हुए ही हैं और फिर जब आप समाज की कतिपय प्रतिबद्धता के स्पष्ट विरोध में अथवा उसके प्रति आक्रामकता का रुख़ रखते हों तो यह और आवश्यक हो जाता है कि इसी समाज में अपनी भूमिका के प्रति गंभीर और स्वयं की प्रतिबद्धताओं-तरीकों-क्षमताओं-उपादेयता के चलते,इसी समाज के एक हाशिये पर समर्पित भी रहें,क्योंकि आखिर में हम सब एक-दुसरे पर निर्भर हैं.आज हमारे समाज में सामाजिकता भी राजनीति की शिकार हुई है और इसी राजनीति की तर्ज़ पर आज समाज अपने हितों की उपेक्षा न तो कर सकता है और न ही उपेक्षा सहन कर सकता है.उसी तरह आपको भी अपने हितों की रक्षा करना अनिवार्य हो जाता है.जिस तरह से हम अपने ढंग से जीने के लिए स्वतंत्र हैं,उसी तरह यह समाज भी हम पर अपने अंकुश थोपने के लिए स्वतंत्र है.अब यह हमारी जीवन-शैली पर निर्भर करता है कि हम sabhi अपनी-अपनी स्वतंत्रता में समाज को कहाँ और कितना स्थान देते हैं.मैं तो अपनी कहता हूँ - मैं तो समाज को हाशिये पर रखकर चलता हूँ.और अर्चना यदि मैं इस समाज पर कुछ भी कहूं तुम तो इन सबसे जुड़ ही जाती हो.मेरा कहना तो सिर्फ इतना है कि मेरा परिवार भी मध्यमवर्गीय है और इसी परिवार में एक लड़की, मेरी बहन भी है और मुझे अपने हितों में एक हित मेरी बहन का विवाह भी नज़र आता है,जिससे मैं न तो आँखें चुरा सकता हूँ और न ही आँखें फोड़ सकता हूँ, न ही आँखों पर पट्टी बांधकर रह सकता हूँ.

"उसका घर और मेरा घर,

घरों के गणित में - आओ चारदीवारी के पीछे प्यार करें,

पर कौन-सी दीवारें.....!

किसी ने कहा,

नहीं कोई घर......."

यह कविता है और लिखने के लिए शब्दों का अपना संसार होता है.यह संसार एक अलग ही ज़मीं से जुड़ा होता है.इस धरा से थोडा ऊपर और इस आकाश से थोडा नीचे.....यह है लेखन.मैंने इसे जीवन बनाकर भी जीया है और समाज बनकर भी जीया है.मेरा लेखन मेरा प्रतिबिम्ब है,आधी हकीक़त का पूरा फ़साना,पूरे फ़साने की आधी हकीक़त.यहाँ से वहां तक फैला यह शब्दों का जाल जिस पीड़ा की बुनियाद पर बुना गया है,उस पीड़ा में मैं,उस पीड़ा को अपने शैशव की किलकारियों से आज तक जीए एक-एक पल में,जिसमे प्रेम और घ्रृणा,ख़ुशी और उदासी,सुख की चाह और दुखों का चुनाव आदि सभी हैं,से पाया है.यह पीड़ा-यह दुःख मेरी अपनी निजता है.इसमें मेरी माँ के मृदुल स्पर्श से लेकर तुम्हारे प्रेम का स्पंदित स्पर्श तक उपजी पीड़ाओं का जीवंत दस्तावेज़ है.और इसके ठीक विपरीत मेरा वह रूप है,उस राज का,जहाँ वह अपने जीवन के हर आने वाले पल में से उस पल को ढूंढ़ रहा है,जहाँ वह अपने अनावृत जीवन को ढाँक-ढाँप कर थोडा-सा जी सके और इसके लिए यह राज सर्कस के जोकर की तरह,तरह-तरह के यत्न कर रहा है.यही तुम्हारा राज है अर्चना और तुमने तो इस राज के दोनों रूप देखे हैं.उन्हें जाना या नहीं जाना,उन्हें प्यार किया या नहीं किया,यह तुम जानो. मैंने अपने जीवन में बहुत से सपने रचे हैं और जब तुम मेरे जीवन में आईं तो मैंने तुम्हे लेकर भी कई-कई सपनों को जन्म दिया है.हालाँकि जीवन की कटु यथार्थता स्वप्न को नहीं मानती है.वहां तो आपका मूल्यांकन होता है,आपके सपनों का नहीं.वहां तो स्वप्न बेमानी हैं.जीवन की यथार्थता को तो सीधा-सा उत्तर चाहिए कि यह अर्चना तुम्हारे लिए क्या है? उसे प्रेम से क्या लेना-देना.

"दस्तूर है यह तो दस्तूर निभायेगें,

किसी की होगी जफ़ा और बदनाम हम होगें,

है बहुत खुबसूरत मंजरों की दुनिया,

पर अपने लुटे घर में रहना ज़िंदगी."