सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 26 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-सात)

वर्ष 1994 की सुबह.समझ में नहीं आया कि शुभकामनायें लूँ कि दूँ.क्या आज मैं किसी को कुछ दे सकता हूँ.मेरी झोली तो खाली है.मैं अभी हारा नहीं हूँ,पर हारने की पीड़ा है.मैं निराश नहीं हूँ, पर उदास हूँ.मैं टूटा नहीं हूँ,पर दुखी हूँ.अपने जीवन को इस तरह जीने का तो मुझे अधिकार होगा ही और इसीलिए इस रणक्षेत्र में फिर एक नई तैयारी की ओर अग्रसर हूँ.
जनवरी का यह माह कुछ ख़ास गहमा-गहमी का नहीं रहा.कार्यालयीन विवाद तो चलते ही रहते हैं.यह सब मुझे प्रभावित भी नहीं करता है.हाँ, जनवरी में जो सबसे अलग-थलग हुआ,वह था इंदौर से गत पन्द्रह दिनों में अर्चना द्वारा प्रेषित तीन पत्र,जो उसने मुझे लिखे थें.इन पत्रों की भाषा बदली हुई थी.जैसे एक मित्र,दूसरे मित्र के सम्मान में लिखता है,ठीक वैसी ही भाषा.पत्र पाकर मैं आश्चर्यचकित अवश्य हुआ,परन्तु मैंने उन पत्रों का कोई उत्तर नहीं दिया.पर जब मैं इंदौर गया तो मैंने न जाने किस विचार से उससे मिलने की कोशिश की या हो सकता हो कि नियति मुझे छलने के लिए एक ओर चाल के साथ तैयार हो.
वह 28 जनवरी की सुबह थी,जब मैं अर्चना से मिला.एक ओर अदभुद अनुभव.हम कुल दस-पन्द्रह मिनट साथ रहे और उन दस-पन्द्रह मिनटों में अर्चना ही मुझसे बोलती रही.मैं लगभग ख़ामोश ही रहा,वैसे भी मेरे पास एक प्रेमी या एक दोस्त की तरह बोलने को कुछ था भी नहीं और मेरी समझ में भी नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलू. उसका पहला वाक्य था,"अच्छा हमारी याद आ गई."
इस बार मैं उसके साथ उसके महाविद्यालय तक गया.हम दोनों पैदल ही कोठारी मार्केट से रीगल चौराहे से होते हुए एम.वाय.अस्पताल से आगे कृषि महाविद्यालय तक पेड़ों के झुरमुटों से होते हुए उसके महाविद्यालय तक पंहुचे थें.उन पेड़ों के झुरमुटों वाली सड़क पर अर्चना ने मेरे लिए एक निषेधाज्ञा लागू कर रखी थी.पर आज वह सब कुछ नहीं था.मैं अनमना-सा उसके साथ चल रहा था.वह मेरे विषय में पूछती रही,मेरे और अपने घर के बारे में पूछती रही.मैं नपा-तुला उत्तर देता रहा.जब उसका महाविद्यालय आ गया तो उसने मुझसे फिर मिलने को कहा,मैं कोई जबाब देता,उससे पहले ही उसने अगले सोमवार की मुलाक़ात तय कर दी.मैं भी हाँ करके चला आया.
आगामी सोमवार को मैं भोपाल से दोपहर साढ़े बारह बजे इंदौर पँहुचा.एक मित्र के कमरे पर सामान रखकर मैं सीधे अर्चना से मिलने चला गया.दोपहर दो बजे हमारा मिलना तय हुआ था.मैंने ढाई बजे तक उसकी प्रतीक्षा की,फिर महाविद्यालय जाकर पता किया तो पता चला कि आज तो क्लास लगी ही नहीं हैं.मैं खिन्न,पर हर नाराज़गी से दूर वापिस अपने मित्र के कमरे की चल दिया.तब ही चौराहे पर वह मुझे मिल गई और देर से आने के लिए माफ़ी भी मांगी.मैं कुछ नहीं बोला.हालाँकि उसे यह अपेक्षा रही होगी कि मैं उससे हमेशा की तरह शिकायत करूगाँ,जबकि उसके ठीक विपरीत मैंने उससे कहा कि कोई बात नहीं और अगर कोई और काम हो तो वह अभी जा भी सकती है, हम फिर कभी मिल लेंगे,पर वह नहीं गई और हम शाम तक साथ में ही रहे और साथ ही खान भी खाया.राजवाडा,खजुरी बाज़ार,सराफा,क्लाथ-मार्केट में घूमते रहे.उसने कुछ शापिंग की और फिर मैंने उसे उसके होस्टल छोड़ दिया और अगले माह के दूसरे शनिवार को हमारा मिलना तय हुआ.
इस मिलन की मुख्य बातें यह रहीं कि मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि अब तुम पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. अब मैं तुम्हे एक मित्र से ज़्यादा नहीं लेता हूँ,हाँ प्यार अब भी करता हूँ क्योंकि उसका कोई अंत नहीं है,पर अब उस प्यार का भी कोई महत्त्व नहीं है और मैं भी अब आगे बढ़ने में उत्सुक नहीं हूँ.
उसके ठीक विपरीत अर्चना ने पूरे समय यही जताने की कोशिश की कि ऐसा सोचना ग़लत है.मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए,जीवन में यह सब तो होता ही रहता है,हम अब भी अपने संबंधों की एक नई शुरुआत कर सकते हैं.उसने कहा कि चलो मैं मानती हूँ की मेरा ही दिमाग़ ख़राब था और मैंने ही तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया,पर उसके लिए मेरी परिस्थिति कहीं अधिक जिम्मेदार थीं और फिर मैं एक लड़की हूँ,मुझे तो बहुत सोच-समझकर चलना होता है.चलो अब जाने भी दो,हम एक नई शुरुआत करते हैं.पर मैं ऐसा करने को उत्सुक नहीं था.
"रवायत है कि हँस के है रोना,
किसी के आसूँ पौछ - अपने आसूओं में डूबना,
बहुत चाहा-बहुत प्यार किया किसी को,
फिर अपने ही ग़म में जलना ज़िन्दगी...."

मैं अब पुनः किसी दुःख पड़ने को उत्सुक नहीं था.
काश ममता, आज तुम होती तो देखती कि तुम्हारा यह राज कैसे-कैसे छलों से होकर गुजरा है.जीवन कहाँ से प्रारम्भ किया था और अब जीवन कहाँ आ पहुँचा है.इन दुखों की-इन पीड़ाओं की गठरी को कहाँ तक और कब तक ढोता रहेगा तुम्हारा यह राज.क्या कहीं कोई सुबह है तुम्हारे इस राज की यह रात ही अपना अँधेरा लिए सुबह के उजाले का रास्ता रोके खड़ी है.उजाले भी असहाय-निर्बल से खडे हैं.तुम्हारा यह राज अब क्या करे.अब मुझे बताओ कि क्या प्रेम अपने साथ सहजता के नाम पर इतनी असहजता को ढोता है?काश ममता, आज तुम होती.....!
अर्चना का पूरा ज़ोर इस बात पर था कि मैं एक बार फिर नए सिरे से प्रारम्भ करुँ.और मैंने अर्चना से कहा कि तुम मुझे छोड़कर किसी और अन्य लड़के को ढूंढ़ लो और उसके साथ शादी कर लो.तुम्हारी शादी की सबसे ज़्यादा खुशी मुझे होगी.फिर मैं भी,तुम्हारी शादी तक तुम्हारी हर मदद करने के लिए तैयार हूँ.तुम चाहो तो अपने खर्च के लिए कोई पार्ट-टाइम जॉब ढूंढ़ लो,इससे तुम्हे अनुभव और पैसा दोनों ही मिलेंगें.मैं यहाँ इंदौर में कुछ लोगों को जानता हूँ,मैं कहूँगा तो वह तुम्हे कोई-न-कोई जॉब तो दे ही देंगे.इसके लिए वह तैयार हो गई,पर इसके लिए उसे अपना होस्टल छोड़ना पर सकता था,तो इस पर मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए एक कमरे का भी इंतजाम कर दूंगा.मैंने उसके जॉब के लिए अपने एक परिचित से बात करी तो वह अर्चना को काम देने के लिए तैयार हो गए और उन्हीं से मैंने एक कमरा भी ढूंढने के लिए कह दिया.अर्चना ने भी अपनी सहमती दे दी. इस तरह हमारी वह मुलाकात खत्म हो गई और मैं वापिस बामनिया चल दिया.
फरवरी लग चुकी थी,भोपाल में मेरे मित्र राजेंद्र की शादी अहमदाबाद में थी.भोपाल में सभी मित्रों का आग्रह था कि मैं पहले भोपाल आऊं और फिर यहीं से सब साथ-साथ अहमदाबाद चलेंगे,जबकि मेरा मत था कि यहाँ बामनिया से अहमदाबाद पास में है तो मैं यहीं से सीधा अहमदाबाद पहुँच जाउँगा.उसके पहले मैं इंदौर आफिस के काम से गया और वहीँ मेरी अर्चना से भी भेंट हुई.हम दोनों साथ-साथ खजराना के गणेश मन्दिर भी गए.
"अभिव्यक्ति प्रेम की सिमट गई तुम स्वयं में,
फिर शरमाई-इठलाई या रूठी पता नहीं,
और विमूढ़-हतप्रभ-अवाक्-सा मैं,
क्या जानू कि भला रहा या बुरा रहा,
इस तरह, एक अर्चना में खो जाना मेरा,
पाप था क्या मेरे लिए,
प्यार करना-तुमसे मेरा."

इंदौर में खजराना में गणेशजी का प्रसिद्द मन्दिर है.इस मन्दिर की काफी मान्यता है.हर मंगलवार-बुधवार और हर चतुर्थी को यहाँ दर्शनार्थियों का मेला-सा लगता है.उस दिन भी हम-दोनों ने वहां दर्शन किए और पूरे दिन साथ-साथ ही रहे.
यहाँ से हमारे संबंधों का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ,शायद नियति ने ही यह अध्याय प्रारम्भ किया था और मुझे इसके अंत को लेकर भय-संशय आदि भी था.यहाँ से हमारे संबंधों के समीकरण बदल गए.शायद पहली बार हम-दोनों इतने क़रीब-क़रीब थें कि सारे फ़ासले,फ़ासलों पर छूट गए थें.निश्चित रूप से वह मुझे खोना नहीं चाहती थी,नहीं तो उसने कभी भी मुझे अपने इतने क़रीब नहीं आने दिया था.
"छुईमुई तुझे तो -
छूना भी पाप है......"

वह भावनाओं और उत्तेजना के नाजुक क्षण थें,जब मैंने उससे पूछ लिया,"अच्छा बताओ,अब मुझसे शादी कब कर रही हो?"
उसने कहा, "परीक्षा के बाद."
पर अगले ही क्षण मुझे लगा कि मैंने फिर एक नए स्वप्न को जन्म दे दिया है.पीड़ाओं के नए द्वार तो नहीं खोल दिए हैं.यह मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने एक गहरी साँस ली.मुझे लगा कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था.पर अब क्या, अब एक स्वप्न जन्म तो ले चुका था.अर्चना ने मुझे अनमना देख पूछा,"क्या हुआ?"
मैंने सिर झटककर कहा,"कुछ नहीं."
वह बहुत देर तक अपने अस्त-व्यस्त बालों-कपड़ों को सम्हालती-सवांरती,मेरे अनमनेपन को समझने की कोशिश करती रही या वह मेरे अनमनेपन को भाप चुकी थी.मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता.पर मुझे अन्दर से लग रहा था कि मुझे यह बहकना कहीं गहरे दुखों में न धकेल दे.
हाँ, यह सत्य है कि यदि अर्चना यहाँ इंदौर आने से पूर्व मुझसे सलाह लेती तो मैं उसे यहाँ आने ही नहीं देता.पर अब तो बात ही अलग हो चुकी थी. शाम को मैं उसे मेरे एक परिचित ज्योतिषी तारे के पास ले गया.इस बार मैंने अर्चना की पत्रिका उसे दिखाई तो उसने अर्चना को कई बातें बताई और साथ ही उसे उसके परिवार के विषय में भी बताया.अर्चना अवाक् उसे सुनती रही.मैंने अंत में तारेजी से कहा कि मैं इस लड़की से शादी करना चाहता हूँ,तो वह मुझे यह बतायें कि हमारी शादी के क्या योग हैं और हमारा जीवन कैसा व्यतीत होगा तो उन्होंने अर्चना की पत्रिका देखते हुए एक अनूठी ही बात कह दी.उन्होंने अर्चना से कहा कि तुम जिस लड़के से विवाह के बारे में सोच रही हो,उस लड़के से विवाह की तुम्हारी मानसिकता नहीं बन पा रही है,बस परिस्थितिवश तुम उससे विवाह करना चाहती हो.अर्चना चुप ही रही और मैं.........मेरे पास तो कुछ बोलने को बचा ही नही.
इस एक वाक्य ने मुझे अंतरात्मा तक छू लिया.काफी गहरे जाकर लगी मुझे यह बात.मुझे स्वयं पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जब मैं अर्चना को लेकर हर पहलु पर इतना सोचता था कि कई बार मुझे लगता था कि जैसे मेरे दिमाग़ की नसें ही फट जायेगीं,तब मेरे दिमाग़ में यह बात क्योंकर नहीं आई की जो लड़की गाहे-बगाहे मुझसे यह कहती रहती है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ और जिस तरह का व्यवहार वह मुझसे करती आई है,फिर उसका यह पल-पल रंग बदलना.....कहीं वह यह सब अपनी मनःस्थिति से तो नहीं बोलती है? और कहीं कोई मज़बूरी तो उसे मेरे क़रीब नहीं ला रही है?मेरे अंतरतम ऐसे कई प्रश्न मुझे मथने लगे.
"होगें तेरे सबसे क़रीब हम,यह ख्या़ल था हमें,
लमे हाथ जाते न जाते, सब ख़्वाब टूट चले.'

तारेजी के इस एक वाक्य ने सारे समीकरण ही बदलकर रख दिए. मैं अचानक गुरु-गंभीर हो गया.एक भारी चुप्पी लिए हम-दोनों वहाँ से बाहर निकल आए.अर्चना चुपचाप मेरे साथ चलती रही.उसके अन्दर क्या चल रहा था,मेरे पास इस सबका आंकलन करने का समय नहीं था.मैं स्वयं कि मनःस्थिति के आंकलन में लगा हुआ था और वह इसे अच्छी तरह समझ रही थी.हम दोनों इस समय महारानी रोड से निकलकर सब्जी-मंडी होते हुए कृष्णपुरा की छतरी तक चुपचाप ही चलते हुए आ गए थें और जब हमारे रास्ते अलग होने का समय आया तो चूँकि उसे कोठारी मार्केट अपने होस्टल तक जाना था और मुझे किशनपुरा से परदेशीपुरा के टेंपो पकड़ना था.छतरी एक कोने पर हम आकर रुके,सड़क के उस पार टेंपो-स्टैंड था और यह सीधी राह कोठारी मार्केट की और जा रही थी.कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने अर्चना से कहा,"अर्चना, दोपहर में मैंने जो कहा था,मैं उन सभी शब्दों को वापिस लेता हूँ और अब यदि तुम मुझसे शादी करना चाहती हो तो किसी मज़बूरी से नहीं,किसी भावनात्मक रूप से नहीं, वरन अपनी मनःस्थिति को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लेना.मुझे तुमसे किसी मज़बूरी के कारण शादी नहीं करनी है."
उसके पास मानो कुछ भी कहने को नहीं बचा हो.उसके लिए शब्द गुम हो चुके थें,ज़ुबान पर तालें पड़ चुके थें या पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था,यह तो वही बेहतर जानती होगी.बहरहाल,उसने कुछ भी नहीं कहा और ख़मोशी से मुझे सुनती रही.मैंने आगे कहा,"देखो अर्चना, यहाँ से दो रास्ते हैं,एक सामने वाला रास्ता है जो मुझे मेरे घर तक ले जाएगा और एक यह रास्ता है जो तुम्हे तुम्हारी मंज़िल तक ले जाएगा और हम दोनों आज ही यह रास्ते अलग-अलग कर लें तो.......?"
वह चुप रही.....और फिर हम कुछ देर तक बिना बोले ही वहाँ खड़े रहे.अंत में मैंने ही कहा,"चलें."
उसने पहली बार कहा,"हाँ,कल मिलते हैं."
और फिर वह बड़ी ख़मोशी से कोठारी मार्केट की और चल दी और मैं उसे वहीँ खड़ा हुआ जाता देखता रहा और फिर मैं भी परदेशीपुरा की और चल दिया.
उस पूरी रात मैं सो नहीं पाया.ढेरों विचार मुझे मथते रहें. हर बार यही लगा कि प्रेम के लिए भावनाओं का मूल्य चाहे जो भी रहा हो, मनःस्थिति भी उतनी ही आवश्यक है.मैंने पहले इस पहलु पर ध्यान क्यों नहीं दिया.अब तो यह बहुत ही आवश्यक हो गया है.वैसे भी मैं मनःस्थिति का पक्षधर रहा हूँ,यह मनःस्थिति ही है जो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाती है और जीवन के कई निर्णयों में यही मनःस्थिति सार्थक सिद्ध होती है.इस तरह कई-कई विचारों के साथ मैंने वह रात गुजार दी.दूसरे दिन सुबह मैं अर्चना के पास गया और हम उसके लिए एक आशियाना ढूंढने लगे.उस लेकर मैं अपने एक मित्र के घर गया और उससे भी मैंने एक कमरा किराये पर लेने बाबत कहा तो वह बोला कि एक कमरा मेरी नज़र में है,यदि मकान-मालिक मिलता है तो मैं तुम दोनों को वहाँ ले चलता हूँ और फिर वह मकान-मालिक को देखने चला गया.तब मैंने अर्चना को अपने पास बैठकर बड़ी संजीदगी से कहा कि अब यदि तुम्हे मुझे अपने पति के रूप में चुनना हो तो तुम्हे पहले अपनी मानसिकता उस अनुसार बनानी होगी.तुम्हारे जीवन में चाहे लाख कुछ घट रहा हो और तुम किसी दबाब में आकर मुझसे शादी करना चाहती हो और तुम्हे मुझसे प्रेम ही नहीं हो तो ऐसे विवाह का क्या फायदा?हम क्यों जीवन भर का दुःख मोल ले लें? फिर मैंने उसके सामने पहली बार अपने सारे आर्थिक-सामाजिक पहलू रख दिए और उससे यह भी कहा कि माना मैं शब्दों या वाकचातुर्य में निपुण हूँ,पर तुम मेरी किसी भी बात में मत आना.अपना निर्णय स्वयं के विवेक के आधार पर ही लेना.अब तुम्हे अपने भविष्य के विषय में स्वयं ही सोचना है.मुझे मत सोचना-मेरे बारे में मत सोचना.कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे बाद में पछताना पड़े और घर कलह का मैदान बन जाए.मेरे जीवन में प्रेम का महत्त्व है,यदि आपस में प्रेम है तो हम-दोनों हर परिस्थिति में भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर लेंगे,पर यदि प्यार ही नहीं है तो रिश्ते निभाने से ज़्यादा ढोने पड़ जाते हैं. मैं यह सब पसंद नहीं करूगाँ.अंतहीन दुखों का जो सिलसिला प्रारम्भ होगा,उसे मैं सहन नहीं कर सकता. मैं ऐसी किसी भी स्थिति के लिए तैयार नहीं हूँ.मैं बहुत अधिक सुख कि चाह में नहीं हूँ,पर जीवन में-घर में शान्ति अवश्य चाहता हूँ.जीवन में शान्ति है तो सारे सुख हैं.
वह भी मेरी बातों से सहमत हुई और तय हुआ कि वह इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करेगी और अपने निर्णय से मुझे अवगत करा देगी.
"प्यार कीजिये फूलों से कुछ इस तरह,
कि हँसते हुए कांटें भी साथ में कम लगें."

यह हमारे संबंधों का - प्रेम का एक नया आयाम था.

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

पल- प्रतिपल ( भाग-छः)

मैं वापिस बामनिया लौट आया और फिर जब सुबह सोकर उठा तो मैं बिल्कुल ही दूसरा था.
इस घटना को कोई डेढ़ माह से ऊपर हो गया.इस बीच मैं अर्चना से नहीं मिला और न ही मिलने की कोई कोशिश की, जबकि इस बीच मैं तीन बार इंदौर होकर आ गया था,पर उससे मिलने की कोई इच्छा भी मुझे नहीं हुई और इस तरह मैं उसे धीरे-धीरे अपने ख्यालों से भी जुदा करता चला गया.इधर दीवाली पास आ रही थी.दीवाली की छुट्टियाँ लगीं तो अर्चना बामनिया आई.महाराज, जिनके घर में मैं अपने शुरूआती दिनों में खाना खाने जाया करता था और इस परिवार का मुझ पर विशेष प्यार था.उस दिन हमारी मुलाकात महाराज के घर पर हुई थी.मैं महाराज के घर गया हुआ था और वहीँ पर अर्चना किसी काम से आ पहुँची थी.मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया,वरन उसने ही मुझसे बात प्रारम्भ की.मैंने भी उससे एक दोस्त की तरह ही हालचाल पूछे.इससे ज़्यादा मैं हमारे बीच के संबंधों को कोई महत्त्व नहीं देना चाहता था.मैं वहां से चला आया.उसने मुझे वहां रोकने की कोशिश की,पर मैं उसे अनसुना करके चल दिया. दीवाली के दो दिन पहले मैं भोपाल चला आया.
यहाँ भोपाल में मेरे लिए वही काली दीवाली थी.मेरे जीवन की कई दीवालियाँ काली ही बीती थीं.हर दीवाली एक त्रासदी की तरह मनाता आ रहा हूँ.मेरे बचपन की एक दीवाली वह भी थी,जब मुझे चोर ठहरा दिया गया था और मुझे मेरे ही पिता ने घर से बाहर निकल दिया था.मैं छोटा-सा मासूम,लाख आंसुओं के साथ भी अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाया था और मुझे चोर ठहराने वाले मुझ पर हँसते हुए दीवाली मनाते रहे और मैं कई दिन तक फुटपाथों पर यहाँ से वहाँ भटकता रहा और मानवीय संबंधों पर से मेरा सदैव के लिए विश्वास उठ गया.मुझे किसी के घर तो क्या,अपने ही घर में प्रवेश करते हुए भी डर लगने लगा. फिर कुछ साल बाद एक दीवाली वह भी आई,जिस रात मैं ममता को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह आया था.उस रात हम-दोनों आखिरी बार मिले थें और एक-दूसरे से अपने-अपने दर्द भी बाँटना चाहते थें.पर बिना कुछ बोले,सिर्फ़ आंखों से बिदाई का भाव लिए हम-दोनों अलग-अलग चल दिए........फिर कभी न मिलने के लिए.आज जब मैं सोचता हूँ कि यदि हमनें उस रात अपने-अपने दर्द बाँटे होते तो क्या बाँटते........ममता 'दस्तक' से उपजी अपनी पीड़ा-अपने क्रोध को बाँटती और मैं उस प्यार में मिली कई कही-अनकही पीड़ा को बाँटता........शायद ऐसा ही होता.......शायद.......! आज इस शायद के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं.मेरे लिए यह अमावस्या की रात कभी उजाला लेकर नहीं आई. मैंने दीवाली मानना बंद कर दी.और आज यह दीवाली भी.........यहाँ में था और थी मेरी तन्हाईयाँ.
"अंधेरे में न डुबोइए ख़ुद को इतना,
कि रोशन होने के लिए सूरज कम लगे"

जब मैं बामनिया वापिस लौटा तो मुझे आफिस के काम से इंदौर जाना पड़ा.जब मैं सुबह की बस पकड़कर इंदौर जाने के लिए निकला तो उसी बस में अर्चना भी सवार हुई और पूरी बस खाली होने के बाद भी वह मेरे पास आकर बैठ गई.मुझसे हेलो कहा और उसने बातों की शुरुआत कर दी.बातों ही बातों में उससे कहा कि तुमने मुझे कहा था कि तुम किसी लड़के से प्यार करती हो, तो तुम एक काम करो कि तुम उस लड़के से ही शादी कर लो और यदि तुम्हे इस काम में मेरी मदद चाहिए तो मैं तुम्हारी मदद करने के लिए तैयार हूँ.मैंने उससे यह भी कहा कि मैंने तुमसे प्यार किया है और मैं जब तुम्हे इस तरह भटकते हुए देखता हूँ तो अच्छा नहीं लगता है.तुम घर में सबसे बड़ी हो और तुम्हे अपनी छोटी बहनों के बारे में भी सोचना चाहिए.इस तरह इंदौर तक हमारी इस विषय पर कई तरह से बातें हुईं.अंत मैंने उससे कहा कि यह मेरा सुझाव भर है और तुम इसे मानो ही यह भी ज़रूरी नहीं है.तुम्हारी ज़िन्दगी तुम्हारी अपनी है और उस पर निर्णय लेने का तुम्हे ही अधिकार है.हाँ, अब मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं हूँ.अतः यह मत समझाना कि इन सब बातों में या इन सब बातों के पीछे मेरा कोई स्वार्थ है.मैं तो सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि तुम खुश रहो.उसने मुझसे कहा कि वह इन बातों पर विचार करेगी और मुझे बाद में अवगत करा देगी.मैंने इंदौर में अपना काम करके पुनः बामनिया लौट आया.
"हमसे ही पूछते हैं,ख़ुद हम ही,
बता ऐ गा़फिल,तेरा नाम क्या है."

शीत की सिरहन शुरू हो चुकी थी.यहाँ बामनिया में ज़्यादा वृक्ष नहीं हैं,अतः यहाँ न तो ज़्यादा गर्मी पड़ती है और न ही उतनी बरसात होती है और न ही तेज़ ठंड पड़ती है.हर ठंड में मेरा एक शौक रहा है कि मैं हर ठंड में एक-दो स्वेटर खरीद लेता हूँ,पर यहाँ ठंड ही नहीं पड़ती तो इस बार मैंने असद से कहा कि मैं जब भोपाल आँउगां तो हम एक जैकेट खरीदेगें.पर ऐसा हो नहीं पाया.इस बीह अर्चना का जन्मदिन पड़ा तो मैंने औपचारिक रूप से उसे एक शुभकामना-पत्र प्रेषित कर दिया.इस दौरान मैं एक सप्ताह तक इंदौर में रहा और वहाँ पर मेरी और मेरी बहन की शादी की चर्चा चलती रही. यह सच है कि मैं अपनी बहन की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा हूँ.उसकी उम्र भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और लड़के हैं कि पता नहीं कहाँ जाकर गुम हो गए हैं.उसका विवाह मेरी प्राथमिकता में है और लगता है कि हर ब्राह्मण घर में मानो लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों.जिसे देखो वह मेरे लिए अपनी लड़की का रिश्ता लेकर चला आता है.पर मैं किस-किससे क्या कहूं.मेरी मनःस्थिति अभी शादी की नहीं है.मेरा जीवन क्या सिर्फ़ दुखों की बलिबेदी पर चढ़ने के लिए तो नहीं है.मैं तो एक लड़का ढूंढ रहा हूँ जिसके साथ अपनी बहन की शादी कर सकूं.पर यहाँ तो सब अपनी ही कहने में व्यस्त हैं,मुझे कोई नहीं सुनना-समझना नहीं चाहता है.
"आते रहे लोग मयकदे में और पीते रहे सुबह तक,
पर किसी ने न पूछा,ऐ 'बादल' तेरा जाम कहाँ."

अजीब फितरत है इस जहाँ की .यहाँ रोना चाहो तो हँसना पड़ता है.यहाँ हँसों तो लोग रुला देते हैं.यहाँ प्रेम पर लंबे-लंबे भाषण हैं-ग्रन्थ हैं-गीत हैं-प्रार्थनाएं हैं-विचार हैं-दर्शन है-व्याख्याएं हैं,पर इसके ठीक विपरीत इन्हीं लोगों को,प्रेम-प्रेमी-प्रेमिका,कोई भी स्वीकार नहीं है.इश्क-हकीकी की बातें हैं.इश्क से इस्म-ए-शरीफ़ (परिचय) भी नहीं है.यहाँ इश्क के लिए बेताबियाँ हैं.यहाँ हर हयात,इश्क-ए-हयात के मनगढ़ंत किस्से लिए घूम रही है और दूसरी तरफ़ आशिकों को काफ़िर करार दे उन्हें संगमार की सज़ा दी जा रही है.तब इश्क-ए-खुदा,खुदा-ए-इश्क के आलम में इश्क को लेकर जो बदगुमानियाँ हैं,उसमें तो यह नज़्म है......,
".......खुदा-खुदा में यह अन्तर,
इस खुदा-ए-आलम में,
तो क्यों कहें -
इश्क को खुदा हम......"

मैं वापिस बामनिया लौट आया.यहाँ शीत की सिरहन ज़्यादा नहीं थी और मैं शीत का आनंद लेने भोपाल चल आया.यहीं मेरा जन्मदिन भी पड़ा.पर मेरे लिए उसका कोई महत्त्व नहीं था सिवाय एक और आँकड़े के कि मैं और थोड़ा बड़ा होकर और थोड़ा कम हो गया हूँ.जीवन न तो राजनीति है और न ही आर्थिक बाज़ार,न क्रीडांगन,जहाँ मैं हर-वर्ष अपने गुण-दोषों की विवेचना करता फिरूँ.मैंने प्रारम्भ से जीवन को उसकी सहजता में जीने का प्रयास किया है,पर उसे कितनी सहजता से जी पाया हूँ,यह विश्लेषण या निष्कर्ष दूँ तो वह यह है कि मैं जीवन को कई बार उसकी असहजता में ही जी पाया हूँ.उपलब्धियाँ रहीं,पर उसके नक्श-ए-क़दम पर अनुपलब्धियाँ भी चलती रहीं और मैंने अपनी हर अनुपलब्धि को अपने ही गुण-दोषों की विवेचना पर स्वीकार्य किया है. कभी किसी अन्य को दोषी नहीं ठहराया है.मुझे याद है कि एक दिन मैंने यहीं इंदौर में अर्चना से यही कहा था,"अर्चना, तुम मुझे बताओ कि यकायक तुमने मुझे नापसंद क्यों कर दिया.मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम दोषी हो,दोषी मैं ही हूँ,पर तुम मुझे बताओ मुझसे कहाँ पर क्या और कैसी गलती हुई है.मैं अपनी हर भूल स्वीकार कर उसे सुधारने के लिए कटिबद्ध हूँ और सुए दुबारा न करने के लिए प्रतिबद्ध भी हूँ.क्योंकि मेरे अपने विचार से इस धरा पर,विशेषकर अपने भारत में तो कोई लड़की इतनी बेबकूफ़ नहीं होगी जो अपने प्रेमी को,जिसके पास शिद्दत-जूनून सब-खुछ हो,जो हर तरह से सक्षम हो और जिसे इस तरह से ठुकरा दिया जाए,यह मेरी समझ से बाहर है."
पर अर्चना ने कोई उत्तर नहीं दिया.
मैंने भी अर्चना के उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं की.पता नहीं मैं निर्दोष हूँ. मेरे सामने कभी भी जीवन न्यायपालिका बनकर नहीं आया.मैं जानता हूँ और आज उम्र के इस दौर में तो मैं अपने अनुभव से यह भी कह सकता हूँ कि जीवन परिस्थितियों पर ज़्यादा निर्भर करता है.परिस्थितियां आपके नियंत्रण में भी हो सकती हैं और अनियंत्रित भी हो सकती हैं.कारण- आपका जीवन दुसरे के जीवन से जुड़ा हुआ है,चाहे किसी भी रिश्ते से क्यों न हो,कोई न कोई तो आपसे जुड़ा ही रहता है.वहीँ आपके अन्दर का जीवन एकाकी भी हो सकता है,आपकी अपनी वैचारिकता-व्यैक्तिकता हो सकती है,पर जहाँ से दूसरा जीवन प्रारम्भ होता है,वहाँ से आपके स्पंदन को दूसरे स्पंदन के साथ ताल-मेल बैठाना ही पड़ता है.आप वस्तुतः अकेले नहीं हो सकते हैं.आपकी आन्तरिकता नितांत एकाकीपन का अनुभव कर सकती है,परन्तु वस्तुतः आप एकाकी कभी होते नहीं हैं.यह मेरा अनुभव रहा है.मेरे जीवन के इस एकाकीपन में भी बचपन से आज-तक कई लोग आए और गए.कई लोगों से मैं जुड़ा और कई लोग मुझसे जुड़ गए.समय की धारा में मिलना-बिछुड़ना लगा रहा.इन लोगों से मिझे सुख और दुःख दोनों मिले और अगर इन लोगों से पूछा जाए तो यह लोग मेरे से भी ऐसी ही प्राप्तियां निकलेगें. अगर बचपन से शुरू करुँ to मेरी पूरी कथा अपने ऐयारियों-तिलिस्मों के साथ एक और "भूतनाथ" बन सकती है.यही मेरा जीवन है.वैसे हम सभी जीवन को किसी-न-किसी स्तर पर तिलिस्म में ही जीते हैं.
"भटक आए द्वारे-द्वारे,
मेरे दीप के उजियारे,

स्वप्न गीत रह गए-
नींद भरे नयनों में,
चाँद कितना प्यासा रहा,
प्रेम की अंजुरी में,
रूठी चाँदनी को मना लाये,
अरे ऐसे कहाँ भाग्य हमारे."

आज अपने ही जन्म-दिन पर मुझे यह सब कितना याद आ रहा था.आज मेरे जीवन की यायावरी द्वार-द्वार उजियारे की तलाश में भटकते हुए उन्तीस वर्ष पूर्ण कर रही थी और मैं इस पढाव के अगले पढाव की तैयारी में था.
"जीवन की सुध किसे -
अरे यायावर हम,

कितने अनजाने पथों की धूल छानी,
कितने तारें गिन डाले,
चूर नहीं हुए थककर हम,
अरे यायावर हम......"

सोमवार, 19 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग - पाँच)

पल-प्रतिपल (भाग - पाँच)

"राह-ए-मोहब्बत में हम-तुम चले भी तो क्या चले,
थोड़े फ़ासले से तुम चले,थोड़े फ़ासले से हम चले"

इंदौर मेरी जन्म-भूमि, मेरे बचपन का शहर,मेरी शरारतों का शहर,मेरी मस्ती का शहर,मेरी किशोरवय अठखेलियों का शहर,मेरे यौवन की उनींदी सुबह का शहर, मेरा जीया शहर.....मेरा इंदौर.वह इंदौर,जिसके कई हिस्सों में आज भी मेरी कई स्मृतियाँ मचल रहीं हैं,इठला रही हैं,इतरा रही हैं,उमड़-घुमड़ रही हैं.आज उसी शहर में मेरा यह सर्वथा अनूठे ढंग से - एक अलग ही नयेपन के साथ आगमन था.आज यह शहर मुझे अजनबी-सा लगा या हो सकता है कि मैंने ही यहाँ अजनबी की तरह प्रवेश किया हो.

आर्ची अब तुम ही बताओ कि किस तरह से मैं यह व्यक्त करुँ कि जिस शहर में मैं बहुत ही अपनेपन के साथ दौड़ा-दौड़ा चला आता था,आज तुम्हारे लिए यह राज कितने चुपके से यहाँ आया है,कितने परायेपन के साथ तुम्हारा पता पूछ रहा है,तुम्हे ढूंढ रहा है.क्या कोई अपने ही शहर में ऐसा करता है ? क्या कोई इस तरह से अपने ही शहर में पराया भी हो सकता है ? पर आर्ची को इससे क्या लेना-देना,प्रश्न तो मेरे अपने थें और इन सबके उत्तर भी मुझे ही ज्ञात करने थें.उसकी तो अब दुनिया ही अलग थी.अपनी ढेरों धड़कनों के साथ मैं आर्ची से मिला.जीवन की इस शतरंज की इस सर्वथा नई बिसात पर कुछ सर्वथा नई चालें....,"तुम यहाँ क्यों आए...?"
यह उसका पहला वाक्य था.
"प्रेम से आगे कुछ भी नहीं,
प्रेम में ही सब-कुछ समाया है,
कहा-सुना-लिखा यह बहुतों ने,
पर मुझ-सा हतभागी कोई हुआ नहीं है."

उस पहले वाक्य से हमारे संबंधों की जड़ों पर निर्मम प्रहार प्रारम्भ हुए.जब मैंने उसके सामने पुनः विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसने मुझसे कहा,"न मुझे तुमसे कोई संबंध रखने हैं और न ही मुझे तुमसे विवाह करना है."मैं बहुत-बहुत आहत हो गया.काश किसी भी भाषा में मुझे अपनी इस पीड़ा को लिखने के लिए शब्द मिल पाते.उन दिनों के वह सब पल मुझे शब्दशः स्मृत हैं.मैंने उसे समझाने की हर संभव कोशिश की, पर वह एक ही राग छेड़े रही," मैं तुमसे प्यार नहीं करती."
"क्यों मेरे पीछे पड़े हो ?"
"मेरे कालेज तक मत आया करो.नहीं तो अपने कालेज के लड़कों से पिटवाऊंगी."
"मैं किसी और से प्यार करती हूँ."
" मैं तुम्हारी रखैल नहीं हूँ."
"तुम तो जानवर हो."
"तुम तो जानवर से भी गए बीते हो. जानवर को दुत्कार दो तो वह फिर नहीं आता है.यह बात तुम्हे समझ में नहीं आती है."
"तुम्हारे जैसा बेशर्म मैंने आज तक नहीं देखा है.रोज़-रोज़ यहाँ आ जाते हो."
"तुम कौन, मैं तो तुम्हे जानती तक नहीं."
ऐसी ढेरों कड़वी बातें हैं,जो मुझे अपने इंदौर के चार-पाँच बार के प्रवास में गत एक माह में सुनने को मिली.यह सावन-भादों मुझे कितना रुला रहे थें-कितना तड़पा रहे थें.इस बार की बरसात ने मुझे कितना भीगोया-कितना मैं अपने ही आंसुओं से भीगा,यह हिसाब मेरे पास नहीं था और न ही यह हिसाब बरसात के पास था और आर्ची,उसे यह हिसाब रखना आता ही कहाँ था.पता नहीं वह किस मिट्टी की बनी हुई थी,मुझे समझ ही नहीं पा रही थी - न जाने मैं किस मिट्टी का बना हुआ था,स्वयं को ही नहीं समझ पा रहा था.मैं आर्ची के पास जाता रहा.उसकी कड़वी बातें सुनता रहा.रोता रहा-हँसता रहा.वाह रे सावन-भादो....!
"लोग क्यों रोकते थे हमें आँधियों का मुंतज़िर होने से,
आज तिनके-तिनके होकर यह बात समझ में आई है."

यह शब्द थें मेरी पीड़ा का गान और क्या लिखूं इससे ज़्यादा.बचपन से जीने के प्रति जिस प्रतिबद्धता को मैं समर्पित रहा,इतने दिनों में मैं अपनी इसी प्रतिबद्धता के चटखने की आवाज़ भी न सुन पाया.
"एक प्रेम बंधन में बंध -
आना बारम्बार सपनों का,
जीवन के नितांत उपास्य क्षणों में -
छलकर जाना सपनों का,
अपने सपनों के छल से परे,
और कोई नहीं है इतिहास मेरा."

इन छले हुए सपनों में से कई चेहरे - कई पल अनायास ही स्मृत हो आए.ममता,तुम्हे कितना छला था मैंने.तुम्हारे मन के हर द्वार पर मैंने बिना तुम्हारी सहमती-अनुमति के कई-कई बार दस्तक दी थी.तुम्हारे साथ मैंने एक ही सपना देखा था कि बस तुम होगी मैं हूगाँ,और फिर हमारे मिलन का साक्षी यह ब्रह्माण्ड हम में ही विलिन हो जाएगा......यह एक झूठा सपना था,क्योंकि तुम्हे तो ख़बर ही कहाँ थी कि तुम्हारा एक दीवाना ऐसा कोई सपना भी देख रहा है और मैंने तुम्हे इस सपने को बताने के लिए कई बार तुम्हारे द्वार पर दस्तक भी दी.जिस "दस्तक" की गूँज तुम्हारे जीवन में गूँजी थी और तुम तब कितनी-कितनी आहत हो गई होगी,यह मैं आज समझ पा रहा हूँ,जब तुम्हारे श्राप से आज मैं अपने ही द्वार के टूटने अनुगूंज सुन पा रहा हूँ.
"मैं चाँद और सूरज की -
काँवर लिए, तारों की पगडंडियों पर जाना चाहता था,
इस यायावरी ने,
मेरे लिए घर एक सपना बना दिया."

आज मैं अपनी ही पीड़ा का विषपान कर, विषजयी हो रहा था.चाँद था,चांदनियां थीं,सूरज था,किरणें थीं,तारें थें........पर अब इस यायावर के पास न काँवर थें और पगडंडियाँ न जाने कहाँ गुम होकर रह गई थीं.मैं जान नहीं पा रहा था और यह पल मैंने किसी से कह भी नहीं पा रहा था.
ममता, उस समय तुम मुझे बहुत याद आईं और मैंने तुम्हे ही केंद्रित करके एक लंबा पत्र आर्ची को लिखा कि वह एक बार तो मेरे बारे में ठंडे दिमाग़ से सोचे और अपने जीवन के विषय में कुछ सार्थक निर्णय ले.
ममता मेरे जीवन-आकाश पर पन्द्रह वर्ष तक देदीप्यमान रही थी.प्रेम वह भी था-प्रेम यह भी था.आरधना वह भी था-आराधना यह भी थी. अधूरा मैं वहां भी रह गया था - अधूरा मैं .......?

इन सब घटनाक्रमों के चलते मैं एक बार फिर बीमार पड़ गया और नन्द मुझे छोड़ने भोपाल तक आया.मैं किंकर्त्यव्यविमूढ़ था. कुछ समझ नहीं पा रहा था.जीवन का यह अनूठा ही दौर था.मैं जीवन में जब-जब भी परेशानियों में घिरा,तब-तब भोपाल के बड़े तालाब के किनारे जा पहुँचता था और उसकी लहरों के साथ अपने सुख-दुःख,जब-तब बाँट लिया करता था.बड़े तालाब में अजीब-सा आकर्षण मैंने अपने प्रति हमेशा से पाया था.इसके किनारों ने-इसकी लहरों ने मुझे कई बार बहुत ही आत्मिक शान्ति पहुंचाई है.आज जीवन ने मुझे फिर बड़े तालाब के उसी किनारे पर लाकर खड़ा कर दिया था,जहाँ से मैंने अपने जीवन के लिए कई निर्णय लिए थें.आज फिर एक अन्य निर्णय के लिए मैं वह था.मैंने लहरों के साथ स्वयं को बाँटना शुरू किया......,
"कितना प्यार करुँ मैं,
रहा बैठा ताल किनारे -
गुपचुप,गुमसुम-गुमसुम,
लहरों को कितना देखा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं...."

लहरों में मेरा अक्स था और फिर जैसे ही हम-दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना,बातें शुरू कर दीं.लहरों ने मुझसे कहा," राज, और कितना भटकोगे.कैक्टसों के जंगल में प्यार नहीं किया जा सकता है.वहाँ प्यार करने के लिए हथेलियाँ नहीं बिछाई जाती हैं.प्रेम के लिए तो फूलों की घाटी में जन्म लेना पड़ता है.मुझे तुमसे हमेशा यही शिकायत रही है कि तुम प्यार करते ही क्यों हो ?"
मैं चुप था.
"भागता है मन बहुत,
पर मैं ठहरा रहता,
गुम अपनी ही धुन में,
और कितना तड़पा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें फिर कह उठीं," राज,चुप न रहो.कुछ तो कहो कि आख़िर क्यों करते हो इतना प्यार ? क्या शब्दों को सान पर चढाने के लिए ? क्या प्यार में तड़पना तुम्हारा शगल है ? छोडो भी अब यह बेकार की बातें.तुम हमेशा गहराई से और गहरी बातें करते हो, जबकि लोग आज यहाँ कानों से सुनने के आदी हैं,यह ह्रदय से सुनते ही कहाँ हैं."
मैं क्या कहता.
"पहाडों को छू लिया,
नदियों में भीग लिया,
नाचा भी हरी दूब पर,
और कितना अभिव्यक्त करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें भला कहाँ चुप थीं," राज, आज का युग प्रेम में जीने का नहीं है,जब तुमने ममता को अपने अस्तित्व से अलग किया था,तब तुम दूसरे थें,किशोरवय के भीगे स्वप्न तुमने युवावस्था की देहरी पर तोड़े थें.तुम और ममता किसी प्रेमिल आकाशगंगा से आए थें और यहाँ इस धरा पर आज जबकि युग पल-पल बदल रहा है,तुम रहे वही आकाशगंगा वाले प्रेमी ही.इस धरा की गंगा में अब तक बहुत पानी बह चुका है.यह अर्चना है."
क्या कहूं मैं.
"देखता हूँ बहुत पास,
और छू लेना भी चाहता हूँ,
पर स्पर्श है स्वप्निल-सा,
कहो कितने स्वप्न देखा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं....."

लहरें मेरी एक-एक भाव-भंगिमा पढ़ रही थीं और कह रह थीं,"राज, स्वप्न सिर्फ़ स्वप्न ही होते हैं.तुम संवेदनशील हो.प्रेम कर सकते हो.पर यह अर्चना है.अगर यह अपना जीवन अपने ढंग से बीतना चाहती है तो तुम क्यों अपने प्रेम का अड़ंगा लगते हो.क्या यह आवश्यक है कि हर व्यक्ति प्यार के साये में ही जीवन व्यतीत करे ?"
मैं फिर भी नहीं बोला.
"तेरी-मेरी बात नहीं,
बने यह कथा जग की,
पर मिलन की बात नहीं,
कहो कितना इंतजार करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें बे-परवाह बोलती रहीं," राज, अर्चना को उसके हाल पर छोड़ दो.प्रेम में अधिकार सहज प्राप्य हो तो ठीक,पर अधिकार को अधिकार की तरह मत मांगो.किसी इंतजार की आवश्यकता नहीं है.लोगों ने तो तुमसे बहुत-कुछ कहा है,पर मेरी एक बात यह भी सुनो कि तुम्हारा भी अस्तित्व है,तुम्हारा भी स्वाभिमान है,तुम जानवर नहीं हो.तुम प्रेमी हो और यदि कोई तुम्हे समझ नहीं पा रहा है तो परेशां क्यों होते हो ?"
मैं सिर झुकाए चुपचाप सुनता रहा.
"तुम रहो एहसास में मेरे,
अँगुलियों का स्पर्श न सही,
ह्रदय की तस्वीर ही सही,
कितना स्पंदित रहूँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं....."

लहरें मुझे समझती रहीं," राज, अब छोडो भी यह किस्सा.तुममे जीवन को नए सिरे से शुरू करने का माद्दा है.अभी कई सूरज तुम्हारा इंतजार कर रहें हैं.कई चांदनियां भी तुमसे मिलने को बे-ताब हैं.कई तारें तुम्हारे जीवन में चमकने को तैयार हैं.कई फूल खिलने को तैयार हैं.अर्चना का अध्याय बंद करो.उसे प्यार करो.उसे प्यार करो जैसे कि प्यार किया जाता है,पर अपने जिस्म की हर ज़ुबां को बंद कर लो.मेरी लहर-लहर तुम्हारी है.
आख़िर हुआ भी वही.1 अक्टूबर 93 की सुबह,जब मैं कुछ क्षणों के लिए आर्ची से मिला तो मैं उसकी हाँ या न के लिए मानसिक रूप से पूर्णतः तैयार था.मैंने उससे पूछा," तुम्हे मेरा पत्र मिला ?"
"हाँ"
"तुम्हारा क्या निर्णय है ?""
वही पुराना निर्णय."
और मैं वहाँ से चल दिया,बिना एक भी शब्द और कहे.वह भी चल दी थी,मेरे पास से ही नहीं वरन मेरे जीवन से भी दूर जाने के लिए चल दी थी.मैं दुखी था,पर उसके तल्ख़ एहसास से बहुत दूर था.
"फासले इतने न कीजिये कि दुनिया कम लगे,
ज़िद इतनी न कीजिये कि उम्र कम लगे."

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-चार)

पल-प्रतिपल (भाग-चार)

"सूत्रधार सुनो,
खेलना है अभी हमें,
इस जीवन के अनगिनत नाटक,
न जाने कितनी यवनिकाएं,
न जाने कितने पटाक्षेप."

जब मैं भोपाल से वापिस आया तो अर्चना को मैंने एक पत्र लिखा,जिसमें मैंने उसे साफ़ लिखा कि मैं कोई खिलौना नहीं हूँ,जिससे तुम जब-तब चाहो खेलती रहो.मैं भी इन्सान हूँ.प्यार की तरह प्यार कर सकती हो तो प्यार करो अन्यथा हमारें संबंधों को यहीं विराम दे दो.
इस तरह मैंने हमारे संबंधों का भविष्य तय करने का अधिकार उसे दे दिया.उसका जबाब सकारात्मक रहा.जब उसका दूसरा पेपर था तब उसी ने तय किया था कि हम रतलाम में पुनः मिलेगें.बाद में हम-दोनों यहाँ बामनिया से ही साथ-साथ रतलाम गए और उस दिन-उस शाम कई माह बाद, या शायद पहली बार हमनें कई विषयों पर खुलकर बात की.शायद पहली बार हम दोनों दो प्रेमियों की तरह साथ थें.वहीँ हमने हमारे जीवन-हमारे भविष्य को लेकर कई सार्थक बातें की और यह तय किया कि हम दोनों दीवाली के बाद शादी कर लेगें.शादी की पूरी व्यवस्था मैं ही करूगाँ.उस दिन हमने कई योजनायें बनाई.वह सचमुच एक नई शुरुआत थी और हम दोनों उस दिन खुशी-खुशी घर लौट आए.
यह जगह बामनिया मुझे शुरू से ही पसंद नहीं थी.मैं अपने आपको बहुत अकेला पता था.कोई नहीं था जिससे मैं अपने दिल की बात कह सकूँ और मैं मौन ही रह जाता था.ख़ुद से ही अनकहा-सा.अब आर्ची से मेरी शादी होने वाली थी और जो जगह मुझे पसंद नहीं वहाँ मैं अपनी पत्नी को कैसे रख सकता था, अतः मैंने यहाँ से निकलने के लिए ज़ोर लगना शुरू कर दिया.यहाँ से मेरा जाना ज़रूरी हो चला था और इसी तारतम्य में भोपाल आ गया.अपने स्थानांतरण में लग गया.मई की झुलसती गर्मी में मैं यहाँ से वहाँ भटकता रहा और कोई भी नतीजा हाथ नहीं आया.जहाँ भी गया सिर्फ़ आश्वासन के सिवाय कुछ भी नहीं मिला.मैं थक-हारकर वापिस बामनिया लौट आया.
"पत्थर हैं सरे-राह,ऊँची दीवारों की तरह,
कहाँ से रास्ता ढूंढें,सारे रस्ते बंद मिलते हैं."

मैं निराश ज़रूर था, पर एक आशा यह भी थी कि दीवाली तक कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा और मैं दीवाली का इंतजार करने लगा.बामनिया पहुँचते ही दो हादसों का सामना करना पड़ा.एक- आर्ची के घर में उसके पिता ने किसी बात पर महाभारत मचा रखी थी.उसी रात को उस यमराज ने तीनो बहनों को धक्के मारकर घर से निकल दिया.रात को तीनों बहनें मेरे पास आईं. मैंने उन्हें घर वापिस लौट जाने की सलाह दी,जिस पर तीनों ही तैयार नहीं हुईं.वह रात तो हमने जैसे-तैसे काट ली.सुबह दो बहने अपनी मौसी के पास जवारा चली गईं और आर्ची पेटलावद में अपनी सहेली के यहाँ चली गई.दुसरे मुझे अपने कार्यालय से एक शो-काज नोटिस मिला हुआ था जिसका मुझे तीन दिन में उत्तर देना था.अब प्रेम और कार्य के मध्य मैं था.एक दिन तो मुझे यह सोचने में ही लग गया कि मुझे करना क्या है?

मैं आर्ची की इस नई स्थिति से खुश नहीं था. मैं उसके लिए कुछ करना चाहता था. तब मैंने सोचा की क्यों न मुझे उससे अभी ही शादी कर लेनी चाहिए.हालाँकि उस समय मेरे पास विवाह के लिए,खासकर इस तरह के विवाह के लिए तो कोई तैयारी ही नहीं थी,परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में मेरा प्रेम,प्रेम के प्रति मेरी प्रतिबद्धता,मेरी नैतिकता,मेरी वैचारिकता आदि सभी इस विवाह के पक्ष में थें.अतः मैं खूब सोच-विचारकर आर्ची से मिलने पेटलावद जा पहुँचा.पहले तो वह मुझसे मिलने को ही तैयार नहीं हुई और फिर जब वह मुझसे मिली तो उसने जिस तरह का व्यवहार मेरे साथ किया,उसे तो मैं दुर्व्यवहार भी नहीं कह सकता.उसने मुझसे कहा कि मैं ही उसके इस आज के लिए जिम्मेदार हूँ और उसके बाप और मेरे में कोई अन्तर नहीं है.हूँ दोनों एक जैसे ही हैं और शादी के बाद मेरा व्यवहार भी उसके बाप जैसा ही रहने वाला है और वह ऐसे शख्स से शादी नहीं कर सकती है,जिस पर उसके बाप की छाया हो.मैं फिर छलनी-छलनी हो गया.दूसरी बार मैंने उसकी सहेली को समझाने की कोशिश की और हमारी दूसरी मुलाकात उसकी सहेली के साथ ही हुई.उसने भी उसे समझाया पर वह अपनी ही बात पर अडी़ रही.मैंने उससे कहा कि वह मुझे अपने बाप से अलग करके देखे.मैं तुम्हारे पिता का अक्स नहीं हूँ. मैं राज हूँ और मैं तुम्हे प्यार करता हूँ.हमारा जीवन प्यार की नींव पर व्यतीत होगा और मैं तुम्हे जीवन की हर खुशी देने की कोशिश करूगाँ......पर मेरी सारी बातें व्यर्थ ही चली गईं.उस पर कोई असर नहीं हुआ. मैं बिल्कुल ही असहाय होकर रह गया.मैं उसके लिए बहुत-कुछ करना चाहता था,पर बहुत....बहुत ही असहाय था. ओशो ने लिखा है,"घ्रृणा के बनिस्वत मनुष्य प्रेम में ज़्यादा असहाय होता है, क्योंकि वह अपने प्रेम के लिए सब कुछ कर लेना चाहता है और सब कुछ करके भी उसे लगता है कि अभी उसने कुछ भी किया ही कहाँ है.' मेरी भी स्थिति ऐसी ही थी.मैं भी सचमुच इतना ही असहाय हो चला था.

"खाई हैं जिन्होंने दर-दर की ठोकरें,

घर छोड़ा था उन्होंने,दुनिया को अपना समझकर."

यह शे'र जब मैंने आर्ची को सुनाया तो उसने मुझसे कहा कि अब वह नर्स बनने का सोच रही है और ट्रेनिग के लिए इंदौर जाना चाहती है.मैंने उसे फिर समझाया कि नर्स कि ज़िन्दगी कितनी कठिन है और वह इस लायक नहीं है.उसे कोई दूसरा काम कर लेना चाहिए.वो यह काम नहीं करे.पर वह अपनी ही ज़िद पर अडी़ रही.मैं फिर चुप हो गया.मुझे लगा कि हमारे संबंधों के अंत का समय आ गया है और मैंने उसे खो दिया है.एक दर्द-सा सीने में उठा और मैं बैचेनी महसूस करने लगा.क्या प्यार का हर अंत ऐसा ही होता है. क्या प्यार ऐसे ही छीन लिया जाता है.

"एक टुकडा धूप का,एक हिस्सा चाँद का.

मुझसे न छीनो,यह सब मेरे नसीब का."

पर यह सब मुझसे छीना जा रहा था.मेरे हिस्से के चाँद-सूरज,मेरे हिस्से की धूप,मेरे हिस्से की चांदनी,मेरे हिस्से की रोशनी,मेरे सपनें,मेरी कल्पनाएँ,मेरी आकांक्षाएं,मेरा प्रेम,मेरी तन्हाईयाँ, मेरा सब-कुछ......और छीनने वाला और कोई नहीं,वह थी स्वयं आर्ची.

जैसे-तैसे मैंने स्थितियां सम्हाली.घर की भी और प्रेम की और कार्यालय की भी.अर्चना को मैंने वहीँ पेटलावद में एक प्रायवेट स्कूल में नौकरी पर लगवा दिया.उसका संचालक मेरा मित्र था अता काम आसान रहा. और मुझे लगा कि अब स्थिति फिर मेरे नियंत्रण में है.मुझे आश्चर्य सिर्फ़ इस बात का था कि ठीक पन्द्रह दिन पहले हमनें अपने भविष्य के लिए कई सपने बुने थें. एक नई शुरुआत के लिए हम प्रतिबद्ध भी थें कि आज अचानक इतना बड़ा परिवर्तन? पठान ने मुझसे कहा कि राज यह तुझे बेबकूफ बन रही है.तुझसे प्यार नहीं करती है और तू भी यह मान ले,हमें तो यह खुली आंखों से दिखाई दे रहा है.मुझे पठान की बातों पर सोचने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि हालात ही कुछ ऐसे बन गए थें.मुझे भी लगा कि आर्ची वास्तव में मुझसे खेल ही रही है और प्यार तो उसे मुझसे है ही नहीं और मैं उसके लिए कुछ भी नहीं हूँ, वह तो बस जब चाहती है मुझे इस्तेमाल कर लेती है.

एक बार फिर आज ममता की याद आ गई.ममता के सपने देखते-देखता मैंने उस पर अपने प्यार को व्यक्त कर ही दिया था और वह इसे अच्छी तरह से समझती भी थी,पर मेरे प्रति उसका व्यवहार बिल्कुल ही अलग था.हम हर विषय पर बात कर लेने को तो तैयार रहते थें पर प्यार की किसी भी बात पर वह बात करने के लिए तैयार नहीं रहती थी.उसने कभी भी मेरी किसी भी प्रेम अभिव्यक्ति का कोई भी प्रतुत्तर नहीं दिया था. "दस्तक' में मैंने उसे लिखा था,'प्रियश्रुति सुनो, मैं बादल, विस्तृत नभ छोटा-सा त्रिशंकु और तुम ममता, इस विश्व में कहाँ हो, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की है." ममता मुझे अनसुना कर गई,उसे मुझे अनसुना करना ही था.मुझे उसके द्वारा अनसुना ही रह जाना था.हम-दोनों एक-दूसरे से बिना कुछ कहे-सुने ही रह गए.

लेकिन इस आर्ची को मैं कैसे समझाऊं? आर्ची और ममता में अन्तर है. ममता के साथ मेरे संबंध प्लेटोनिक थें, मैं उसके बहुत करीब था,पर कोसो दूर था.यह दूरियां मैं कभी भी नहीं पाट पाया था.उसके सामने मेरा मौन उससे बातें करता था और भावप्रवण आँखें मेरे उस मौन का प्रत्युत्तर हुआ करती थीं. हम दोनों कभी भी सहज नहीं हो पाये थें.इसके ठीक विपरीत आर्ची थी,जहाँ प्यार को हमने उसकी सहजता में स्वीकार किया था.हम मुखाग्र थें और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि हमारे संबंध प्लेटोनिक नहीं थे,यह बात अलग थी कि आर्ची मुझे समझ नहीं पाई थी या हो सकता है कि किसी कारणवश वह मुझे अनदेखा करती हो.मैं यह स्वीकार करने को तैयार था अब हम बिछुड़ चले थें.मैंने भी अपने आप को नई परिस्थिति के अनुरूप ढाल लिया था और उसकी तरफ़ ध्यान देना बिल्कुल ही बंद कर दिया था और स्वयं को समझा लिया था कि यदि वह ऐसे ही खुश रह सकती है तो ऐसा ही सही.प्रेम तो सहजता में ही होता है,मैं उसे अधिकार के नाम पर असहज क्यों बनाऊ.पर सपनें.....उनका क्या करुँ...?

"माना बिछुड़ गए हैं हम-तुम,

पर यह / जीवन से लेकर जीवन की बात थी,

सपनों को लेकर,

ऐसा सौदा कब हुआ था."

धीरे-धीरे मैं पठान और राजेश के साथ स्वयं को शतरंज की बाज़ियों में उलझता चला गया और यह भूल ही गया कि जीवन की बिसात पर नियति ने एक और चाल चल दी है. वह अगस्त 93 का माह था.सावन अपने पूरे शबाब पर था.बारिश ने तन-मन दोनों ही भीगो रखे थे.उन्हीं दिनों सावन की रिमझिम फुहारों के बीच आर्ची से मेरी मुलाकात हो गई और मैंने उससे उसके परीक्षा-परिणाम के विषय में पूछ लिया.उसने बड़े ही चहकते हुए मुझे उत्त्तर दिया और फिर हम कुछ देर तक बड़े ही अच्छे ढंग से बात करती रहे.इस दौरान मैंने नोटिस किया कि वह मुझसे बात करने के लिए ही बात कर रही है और मुझे फिर से आकर्षित करने की कोशिश कर रही है.मुझे लगा कि संबंधों की राख में एक नई आग लगा देने के लिए कहीं कोई चिंगारी अभी बाकी है.पर मैंने स्वयं कोई उतावलापन नहीं दिखाया.मैंने स्वयं के ऊपर बहुत ही नियंत्रण रखा.मेरे इस व्यवहार पर उसने भी ध्यान दिया और उसने मेरे साथ कुछ स्वतंत्रता लेने की भी कोशिश की.मैंने ख़ुद को अपनी ही खाल में बनाये रखा.यह सब क्यों हो रहा था मैं समझ नहीं पा रहा था.जीवन की शतरंज पर नियति अपनी ढाई घर की चाल चलने को तैयार थी.मैं इस चाल से पूरी तरह अनभिज्ञ था.

"दुःख,

कौन छोड़ जाता है तुम्हे मेरे द्वार पर,

उठता हूँ प्रातः तो पाता हूँ तुम्हे,

नित - नव रूप में अपने द्वार पर......"

उसी सावन की एक सुबह मुझे आर्ची की छोटी बहन से पाता चला कि आर्ची तो इंदौर किसी ट्रेनिग के लिए चली गई है और अब पूरे दो साल बाद लौटेगी.पल भर के लिए मैं स्तब्ध रह गया.नियति की ढाई घर की चाल.क्या वह नर्स की ट्रेनिंग के लिए.......सेवा के नाम पर नर्क.इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया.अब वह वापिस नहीं लौटेगी.एक छोटे से कस्बे की रहने वाली लड़की इतने बड़े शहर में कैसे रह पायेगी...क्या करेगी.शहरों की ज़िन्दगी बहुत की कठीन होती है.वहां हर सुख-सुविधा होती है,पर ख़तरे भी उतने ही हुआ करते हैं.वहां छल मुस्कुराता हुआ ही आता है.दुर्घटना की शक्ल नामालूम हुआ करती है.वहां पर यह लड़की क्या करेगी? क्या एक नर्क से दूसरे नर्क में जाया जा सकता है?ओशो का एक कथन स्मृत हो आया कि मनुष्य असमंजस की स्थिति में सदैव एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है.आर्ची भी यही कर रही थी.घर में पिता से नही बन रही थी तो पिता से बचने के लिए एक अति से दूसरी अति पर चली गई थी.यह एक नर्क छोड़कर सुख-शान्ति की तलाश में एक दूसरे नर्क का चुनाव भर ही तो था. ऐसा भी नहीं है कि उसे यह सब नहीं मालूम हो,इतनी समझदार तो हर लड़की होती ही है और मैंने उसे सब ऊँच-नीच बताई भी थी,फिर भी वह अपनी ही करने पर उतारू थी.मुझे लगा कि इससे तो अच्छा था कि वह मुझसे विवाह कर लेती.मैंने इस विषय में पेटलावद जाकर राजेश से बात की.उसने मुझसे कहा कि इससे तो अच्छा था कि वह तुमसे शादी कर लेती.उसी ने मुझसे कहा कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है,तुम कल ही इंदौर चले जाओ और उसे मनाकर उसे शादी के लिए राजी कर लो.

उसी रात जब हम दोनों इंदौर-खवासा बस से वापिस बामनिया लौट रहे थे,तो मन में मेरे यही निश्चय था कि मैं कल सुबह इसी बस से इंदौर चला जाउगां कि उसी बस में मुझे आर्ची की माँ मिल गई.वह आर्ची को इंदौर छोड़कर लौट रहीं थीं.मैंने अवसर पाकर उनसे बातचीत की तो उन्हीं से पता चला कि आर्ची इंदौर किसी नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए नहीं वरन एम.एस.डब्लू. याने मास्टर इन सोशल वर्क का कोर्स करने के लिए गई है.मेरे लिए यह एक नई बात थी.मैंने बामनिया में उतरकर राजेश से इस विषय में बात की तो उसने मुझे इस विषय के बारे में बताया और साथ ही बामनिया में एक मेडम हर्षलता पाल का नाम भी मुझे बताया कि मैं इन मेडम से जाकर मिल लूँ और वह मुझे इस बारे में और विस्तार से बतला देगीं क्योंकि उन्होंने यही कोर्स किया हुआ है. पठान की उनसे दोस्ती है.मैंने अगले दिन पठान को पकड़ा और उसके साथ उनके घर गया और मेडम पाल से इस विषय में पूरी जानकारी ली.साथ इंदौर में इस कालेज का पता भी ले लिया.उस दिन जब मैं घर लौटा तो मेरा तनाव काफी हद तक छट चुका था.



रविवार, 11 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-तीन)

पल-प्रतिपल (भाग-तीन)



नबम्बर का माह मेरे लिए अस्वास्थ्यकर सिद्ध हुआ.मेरी पुरानी बीमारी फिर उभरकर आ गई.मेरे फेफड़े 1984 के भोपाल गैस-कांड में बुरी तरह ख़राब हो गए थे जिसके कारण मुझे अब साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी.भोपाल में मैं जब तक भी रहा तब तक तो मैं रोज़ ही बड़े तालाब में तैरने जाया करता था और करीब दो घंटे तक तैरा भी करता था.सिगरेट-तम्बाकू-शराब मेरी आदत में शामिल नहीं थें.हालाँकि अपने कालेज के शुरूआती दिनों में मैंने सिगरेट और शराब दोनों का सेवन भी किया था, पर वह छः-आठ माह से ज़्यादा का दौर नहीं था.कभी-कभार बियर ज़रूर पी लेता था पर वह भी साल में दो-चार बार से ज़्यादा नहीं था.मतलब यह कि यह सब मेरी जीवन शैली नहीं थी जिसके कारण अक्सर फेफड़े खराब हो जाया करते हैं,मैं तो गैस का शिकार था.फिर यहाँ बामनिया में जहाँ सप्ताह में एक बार ही हाट लगा करती थी जिसमें साग-सब्जियां आया करती थीं.हम आख़िर कितनी सब्जी खरीद कर रख सकते थें. उस पर तुर्रा यह कि खाना कौन बनाए - पहल कौन करें,कौन बनाये.अतः पर्याप्त पोषण नहीं मिलने के कारण भी मेरी बीमारी उभरकर आ गई थी.आगे के दो माह मैंने एक दुःस्वप्न की भांति बीताये. मैं भोपाल चला आया और फिर अयोद्धा-कांड ने मुझे अपने ही घर में क़ैद कर दिया.अयोद्धा की रक्तरंजित गूँज भोपाल में भी सुनाई दी.

अर्चना को मैंने यहीं से खोना शुरू किया था.मैं जब ठीक होकर वापिस बामनिया पहुँचा तो मुझे पता चला कि आर्ची समोई में है और मैं नए साल में अर्चना से मिलने समोई जा पहुँचा.वह चौंकी थी,प्रेम अंततः चौंकता ही है.

"जीवन सुना जिसे, उसकी तलाश में निकले,
यह किस क़ातिल, की तलाश में निकले."


अर्चना वहां मुझसे बहुत प्यार से पेश आई.हम दोनों ने वहां एक ही कमरे में क़रीब दो घंटे साथ-साथ बीताये.वहीँ मैंने उसे अपनी बाहों में समेटते हुए उससे कहा कि क्यों न हम दोनों अगले माह या होली के आस-पास शादी कर लें.वह शर्मा गई-वह झिझक गई.मैं वहां से ढेरों मीठी स्मृतियाँ लेकर बामनिया लौट आया, पर उसे वहां कई-कई ताने सुनने को मिले.हमारे द्वारा बीताये गए वो दो घंटे उस पर भारी पड़े,यह दुनिया रंग-बिरंगी बाबा.इस बात पर वह मुझसे बहुत ही नाराज़ हुई और यह बात उसने मुझसे कई बार कही और मैं उससे हमेशा यही कहता रहा कि तुम समोई की बात को इतना तूल ही क्यों देती हो, पर वह मानती ही नहीं थी.फिर भी धीरे-धीरे ही सही हम दोनों लहरों की मानिंद अपने प्रेम को जीते रहे.

'अपने ही आंसुओं के भीगोये हैं,
क्यों इन बरसातों को दोष दें,
अपने ही ग़मों से घायल हैं,
क्यों इन तलवारों को दोष दें.'


थोड़ा और पीछे जाता हूँ या सच कहूं तो आज हवा में जीवन के गुजरे पल टेबिल पर पड़ी क़िताब के उड़ रहे पन्नों की भांति रह-रहकर ख्यालों को रोशन कर रहे हैं.आज 24 मार्च है और मैं गाथा कहना चाहता हूँ 23 मार्च की.एक हर्फ़ 30 मार्च 1990 से या रहने दीजिये,इस तरह तो इस राज की कहानी कुछ ज़्यादा ही लम्बी हो जायेगी.वह 30 जुलाई का दिन था और कोटरा में व्यवसाय के दौरान मुझे जो अर्चना मिली थी,जिसका ज़िक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ, उस अर्चना की यवनिका इसी दिन गिरी थी.तमाशा ख़त्म-पैसा हज़म.साहिर ने लिखा है कि,".......वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,उसे कहीं एक अच्छे मोड़ पर छोड़कर आगे बढ़ जाना ही अच्छा होता है." वहीँ मैंने लिखा था कि जब प्यार अपनी सार्थकता खोने लगे तब उसकी हर अर्चना बंद कर देना ही उचित है,क्योंकि जीवन के रंगमंच पर और भी कई अंक आपकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं.मैं साहिर के साथ स्वयं को खड़ा नहीं कर रहा हूँ पर यह सच है कि मैंने अपने जीवन के हर मोड़ पर प्यार की प्रतीक्षा की है और आज तक यह प्रतीक्षा मृग-मरीचिका ही साबित हुई हर शाम तन्हा ही घर लौटा हूँ.समय-जीवन,दोनों ही प्रवाहमान हैं ही,साथ ही मेरे जीवन में प्रेम भी प्रवाहमान रहा है.यह अर्चना भी उस दिन,ममता की तरह मुझसे कभी न लौटने वाले पल की तरह दूर चली गई.

आज यह सब बातें मुझे इसलिए याद आ रहीं हैं क्योंकि मुझसे जुड़ी यह नियति इस अर्चना को भी मुझसे दूर कर देने के लिए अपनी बिसात बिछा चुका थी.ऐसा मेरा सोचना था.
'ख़ता नहीं है इन खामोश पत्थरों की,
ज़ख्म पाये हैं हमने अपनी ही बारिशों में."


दिन, रात की तरफ़ भाग रहे थें और रातें दिन के लिए बेताब थीं और इन सबके बीच मैं त्रिशंकु बना हुआ था.अर्चना का व्यवहार मेरे प्रति बिल्कुल ही बदलता जा रहा था और वह मुझसे बात तक करना पसंद नहीं कर रही थी और यदि कभी बात हो भी जाती तो वह बहुत ही रुखा व्यवहार करती.इस पर मैंने उससे कई बार कहा कि वह मुझसे इस तरह का व्यवहार नहीं करे.प्रेम सिर्फ़ प्रेम होता है.अकारण-बेशर्त.यह दिल के बदले दिल की सौदागरी नहीं है.यहाँ हर व्यक्ति प्रेम करना चाहता है, पर हर व्यक्ति दूसरे के प्रेम के विरुद्ध है.पूरी मनुष्यता इसी दुबिधा के साये में जी रही है कि कोई तो उसे प्यार करे, पर वह स्वयं प्यार को नहीं समझ पा रहा है कि प्यार प्रतीक्षा नहीं है,प्यार तो पहल का नाम है, आप पहल करें कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ,इसकी परवाह मत करो कि कोई आएगा और तुमसे कहेगा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ.इस प्रतीक्षा में पूरा जीवन निकल जाता है और कोई नहीं आता है,कोई आहट खुशी की-सुख की सुनाई नहीं देती है, फूल खिलने से रह जाते हैं और हम अतृप्त ही मर जाते हैं.मेरा मानना है कि यदि आपने प्यार के कुछ पल भी अपने प्रेमी के साथ बीता लिए तो फिर शेष जीवन में परमात्मा की-मोक्ष की कोई प्रार्थना-कोई वासना नहीं रह जाती है.यहाँ हर व्यक्ति सुख की चाह में भटक रहा है और दूसरे के सुख के विरुद्ध खड़ा है.यह एक ऐसी अनबुझ पहेली है,जो किसी युग में शायद समझ में आ जाए या शायद नहीं आए,यहाँ तो मैं अपनी कहता हूँ.

"तेरे रुख़-ए-नक़ाब पर, ऐ ज़िन्दगी यह तसव्वुर,
कि हुआ करेगें बे-नक़ाब,हम भी कभी-कभी.'

अतीत के बाहर आज ज़िन्दगी के रुख़-ए-नक़ाब पर मेरी सूरत-ए-हाल यह है कि इतिहास के कई-कई पन्ने पलटते जा रहे हैं और जिसे इतिहास दोहराना कहते हैं,वही कर रहा हूँ.आज फिर 11 नवम्बर 1986 की तवारीख़ 23 मार्च 1986 के नक़ाब में बे-नक़ाब मेरे सामने है.साढ़े सात वर्ष का यह सफ़र कोई मामूली सफ़र नहीं है.सन 86 का वह प्रेमी,जिसके पास शिद्दत है-जूनून है,जो छात्र है,कमाने के नाम पर कुछ ट्यूशन हैं,बेरोज़गारी का लेबल लगा हुआ है,दुनिया भर की झिडकियां हैं जो उसे उसके रिश्तेदारों ने उसे दी है,पर जिसके पास शब्द हैं,आज की तरह,जिनसे 'दस्तक' देता-देता थक चुका है,जिसकी 'आराधना' धूमिल पड़ चुकी है.जिसके सपनों की गली अब कहीं नहीं जाती है.यह साधक जिसके स्वरों की गूंज सिसकियों में और उसकी यह सिसकियाँ अब एक गहरी खामोशी में बदल गई हैं.खंडित ताजमहल के साथ जिसने जीवन स्वीकार्य कर लिया है.आज सिर्फ़ शब्द रह गए हैं मेरी अभिव्यक्ति के साधन के रूप में और मैं इन्हीं शब्दों से घिरा हुआ हूँ.कई बार तो लगता है कि यही शब्द मुझे ज़िन्दा रखे हुए हैं.

जब मैंने पहली बार "दस्तक' लिखना शुरू की थी,ठीक-ठीक कह नहीं सकता कि इसका विचार मेरे मन में कहाँ से आया था,पर वह था एक क्रन्तिकारी और विद्रोही विचार.प्रेम तो अग्नि-शलाका सदृश्य होता है.प्रेम के धरातल पर ऐसे विद्रोही विचारों की निरंतरता बनी रहती है.इसे मैं विद्रोह कह रहा हूँ तो सिर्फ़ इसीलिए कि हमारे समाज ने प्रेम को-प्यार को रीति-परम्परा के विरुद्ध एक तरह से विद्रोह ही माना है.उसी समाज की तथाकथित मानसिकता और उसकी कतिपय रीति-परम्परा के अंहकार की संतुष्टि के लिए 'विद्रोह' कह रहा हूँ.पर 'दस्तक' का विचार निश्चित ही अनूठा-अदभुद और क्रन्तिकारी तो था ही क्योंकि उसके प्रारम्भ में भी उससे बहुत प्रभावित था. हालाँकि कई दृष्टिकोण से मैं तब गलत था.उस दिन भी ग़लत था और आज भी ग़लत ही हूँ. मुझे लिखना चाहिए था या नहीं यह तो अलग बात है,पर मुझे किसी को भी दुःख पहुचने का कोई नैतिक आधार नहीं है और 'दस्तक' के साथ यही अपराध मैंने किया था,पर जूनून हमेशा जीतता है,ऐसा मेरा सोचना है.तब शायद यही हुआ था.आज मैं कुछ भी सोचूं क्योंकि आज मैं बड़ा हो गया हूँ,पर उस समय...........!

"जब हदों से गुजर गए आसूँ,

कितनी यादों को जगा गए आसूँ.'

और आज साढ़े सात साल बाद,फिर वही फाल्गुन माह और इसके छिटके-छिटके रंगों से बे-रंग मैं.आज मैं परिपक्व हो गया हूँ,कुछ ज़्यादा समझदार हो गया हूँ.नौकरी कर रहा हूँ,बे-रोज़गारी का लेबल मुझ पर से हट चुका है.रिश्तेदारों की झिड़कियां कम या लगभग बंद हो चुकी हैं,आख़िर उन्हें अपनी या अपने किसी रिश्तेदार की किसी योग्य कन्या से मेरा विवाह करना है,तो अभी तो उन्हें मुझमे ढेर सारी खूबियाँ दिख रही हैं. पर इन सबसे परे आज भी शब्द मेरे अपने हैं.विचारों की परिपक्व श्रृंखला है.जीवन को, उसकी विषम परिस्थितियों को - समताओं -विषमताओं को समझने-बूझने की शक्ति है-सामर्थ्य है.हालाँकि आज मैं पहले से ज़्यादा एकाकी हूँ,फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं है.प्रेम के प्रति मेरी प्रतिबद्धता आज भी वही है.पर आज राज बदला-बदला है.विघटित,टूटा हुआ,बिखरा हुआ.

"मैं किरणों से -

भर देना चाहता था अपना घर,

और इस चाह में -

अपनी छत खो बैठा."

अर्चना और मैं जिस दिन से मिले थें,कभी भी एक पल के लिए भी साथ बैठकर दो बातें चैन से नहीं कर पाए थें.धीरे-धीरे हमारे संबंध तनावपूर्ण होते जा रहे थें.इसका असर मेरे काम और मेरे स्वास्थ्य दोनों पर पड़ रहा था.मेरी पढ़ाई के दौरान ही मेरी नौकरी लग गई थी,अतः मेरी परीक्षा के दिन भी आ चुके थें,मैं राजनीति-शास्त्र में एम.ए. कर रहा था. अब मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया और फिर सारी बातों को दरकिनार कर दिया.इन सबके बीच हमारी बातचीत फिर शुरू हुई.हुआ यह कि एक दिन अर्चना को देखने लड़के वाले आए और उसे वह लड़का पसंद नहीं आया.इधर ठीक एक दिन पहले मैंने पावर-हॉउस ख़रीदा था.इस विषय पर उसने मुझसे पूछा तो मैंने मज़ाहिया लहज़े में कहा कि हमारी शादी के बाद जब मैं दिनभर ऑफिस में रहूगां तब तुम बोर न हो इसलिए मैंने यह पावर-हॉउस ख़रीदा है. फिर कुछ दिन अच्छे निकलें.

यहाँ से शुरू हुआ सिलसिला एक नया मोड़ लेकर उस दिन आया,जब उसका पहला पेपर था,वह समाजशास्त्र में एम.ए. कर रही थी.उस दिन पेपर के बाद हमारा मिलना तय हुआ था,उसी दिन मुझे भी भोपाल जाना था.ठीक दो दिन बाद मेरी भी परीक्षा प्रारम्भ होने वाली थी.सब-कुछ तय होने के बाद भी उसे लेने उसकी बुआ का लड़का वहां पहचान और वह उसके साथ चली गई.यह घटना हमारे संबंधों की आधारशिला को हिलाकर रख गई.पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि मैं अर्चना के लिए किसी खिलोने से कम नहीं हूँ,जब भी उसका जी चाहता है,वह मुझसे खेलती है और जब जी नहीं चाहता है तो फिर नज़र उठाकर भी नहीं देखती है.मैं जिस घर में रहता था,उसके पीछे वाले छज्जे में मैं घंटों उसकी एक झलक पाने के लिए खड़ा रहता था.मेरे क़रीबी नन्द,पठान.राजेश और अन्य मुझे इसके लिए टोकते भी थें,लानतें भी भेजते थें,खरी-खोटी भी सुनते थें.पर मुझ पर इन सबका कोई असर नहीं होता था.पठान अक्सर मुझसे कहता था कि,'राज,यह लड़की तुझे बेबकूफ बना रही है.यह तुमसे प्यार नहीं करती है.इनके खानदान में कभी किसी ने प्यार किया है जो यह करेगी."

मैं इन सब बातों को अनसुना कर जाता.घंटों कि तपस्या के बाद जब मैं उसकी एक झलक पा भी जाता तो पाता उसका लटका हुआ चेहरा,झुकी हुई आँखें.उन दिनों वह मुझे तब ही देखती थी,जब वह चाहती थी.हमारे बीच संवादहीनता की स्थिति थी.हालाँकि वह अयह सब जान-बूझकर करती थी. उसकी इन हरकतों से मुझे दुःख होता था.पर मैं हर बार यही सोचता था कि आज नहीं तो कल वह मेरे प्यार को-अपने प्यार को समझ ही जायेगी और सब-कुछ ठीक हो जायेगा.प्रेम अपनी शाश्वतता सिद्ध कर ही देगा.मैंने उससे कई बार पूछा भी कि यदि उसे कोई परेशानी हो तो वह मुझसे कहे.मैं उसके लिए सब-कुछ करने के लिए तैयार था.परन्तु वह हर बार चुप लगा जाती और मैं आहत-सा रह जाता.

'दे दिया जब -

सपनों को जन्म फिर,

हुआ थोड़ा हतप्रभ,

थोड़ा चकित,

थोड़ा क्रोधित....,

कि यह क्या कर बैठा मैं.......!"

मेरी स्थिति बड़ी विचित्र हो चुकी थी.मैं किससे अपने दिल का हाल कहूँ समझ में नहीं आ रहा था.बिल्कुल अकेला पड़ गया था.मुझसे रोज़ ही हमारे संबंधों को लेकर ढेरों सवाल पूछे जाते और मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.ज़्यादा ज़ोर देने पर मैं यही कहता कि हमारे संबंध अच्छे हैं.















बुधवार, 7 जनवरी 2009

उपन्यास- पल-प्रतिपल -(भाग-दो)

पल-प्रतिपल -(भाग-दो)

"सुनो दिलदार मेरे,
आओ की किसी ख्वा़व की ताबीर करें,
आज कुछ ऐसा हम-तुम करें,
कि हो भी इंतजार बहारों को आने का,
एक ऐसी ज़मीं मोहब्बत की तैयार करें."

यह गाथा उसी दिलदार की है.इस गाथा में भी प्रेम को पा लेने की उत्कंठा में स्वयं को खो देने की चाहत है.प्रेम में पूरी तरह ख़ुद को डुबो देने की लालसा है.प्रेम कर प्रेम जैसा सब-कुछ पा लेने की इच्छा है.और खोने की धुन में यह परवानगी ख़ुद शमां बन जाने की दास्ताँ है."जलता हुआ दीया हूँ, मगर रोशनी नहीं....." की तर्ज़ पर.यह प्रेम भी बड़े अजीब किरदार हमारे आस-पास जुटा देता है और फिर यही प्रेम उन्हें आपसे खेलने की पूरी-पूरी इजाज़त भी दे देता है. दरअसल प्रेम में आप, आप कहाँ रह जाते हैं......आप तो वो हो जाते हैं, जो आपका प्रेम होता है और यही प्रेम का हो जाना ही दुनिया को कई-कई बातें कहने का अवसर देता है.यह उसी प्रेम की कथा है.
अर्चना का आगमन मेरे जीवन में,जीने का एक नया संदेश फूँक गया था. अब मुझे लगता था की अर्चना के साथ मेरी परिस्थितियां एकदम अलग हैं.ममता के समय तो मैं कुछ भी नहीं था.स्कूल-कालेज में पढ़नेवाला एक मामूली लड़का, जिसके पास आज कुछ भी नहीं है सिवाय सपनों के,जो इस उम्र में बहुतायत हुआ करते हैं और उन सपनों पर सवार होकर किसी भी आसमान तक जाया जा सकता है पर यथार्थ इस सफर की वसूली बहुत निर्ममता के साथ करता है, जैसा कि उसने मुझसे इन सपनों की कीमत वसूली थी,मुझे ममता से अलग करके.पर अब मुझे लगता था कि अब परिस्थिति एकदम अलग हैं, मैं एक बेहतर नौकरी में हूँ.सपने और सच की दूरियां समझने लायक परिपक्व्व उम्र हो चुकी है.ऐसे में यह प्रेम जीवन-पथ पर साथ जीने-मरने की रस्म अदा अवश्य करेगा. पर शायद यहाँ भी पीड़ा अनाहट चली आई.ओशो ने कहीं लिखा है,"प्रेम अपने साथ पीड़ा अवश्य लता है.आप प्रेम करेंगे तो पीड़ा अवश्य ही मिलेगी."
अर्चना, उसे मैं प्यार से आर्ची कहकर बुलाने लगा था.उसकी अपनी समस्याएँ थीं. आर्ची के पिता की आँखें ख़राब ही तथा वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थें,चूँकि उन्हें ठीक-ठीक से दिखाई नहीं देता था तो आर्ची अक्सर उन्हीं के साथ रहा करती थी.उनकी नौकरी यहाँ बामनिया से करीब सौ किलोमीटर दूर राणापुर के पास समोई नमक गॉंव में थी. दशहरे के आस-पास उसके पिता उसे अपने साथ लेकर चले गए और फिर वहीँ से गुजरात में नवसारी में वह अपनी आँख के आपरेशन के चले गए.यह सब मुझे पता नहीं था.मैं अर्चना का यहाँ बामनिया में इंतजार कर रहा था कि नवरात्री के बबाद जब वो यहाँ आएगी तो मैं उसके साथ रतलाम जाउगां.पर मैं यह सोचता ही रहा और वो नहीं आई. मैं थोड़ा निराश हो गया और यह पता करने में जुट गया तब मुझे यह सब बातें पता चलीं.वहीँ मुझे पहली बार उसके पिता के विषय में भी पता चला . यह एक पढ़ा-लिखा बौद्धिक व्यक्ति है.साहित्य और कला में उसकी खूब रूचि है,पर सामाजिक-पारिवारिक रूप से ठीक विपरीत धूरी पर खड़ा हुआ है."यमराज", जैसा कि मुझे आर्ची की छोटी बहनों ने बताया था,उन्होंने अपने पिता का यही नाम रख रखा था क्योंकि उनका अपने घर में कुछ इसी तरह का व्यवहार था.मेरे लिए यह विचित्र बात थी.पर मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया.आर्ची घर की सबसे बड़ी सदस्य थी.कुल उम्र २१ साल.खैर जब हम लंबे विछोह के बाद मिले तो मैंने उससे कहा,"मुझे तुम्हारा इस तरह जाना अच्छा नहीं लगता है." तब उसने मुझसे कहा कि, "अभी मैं दूसरे बंधन में हूँ, जब तुम्हारे बंधन में बंधुगी, तब तुम ही देखना."
यह बात कितनी सच थी. मैं इसमें नहीं पड़ना चाहता. हाँ, यदि वह मुझसे दूर रहती तो ऐसा ज़रूर लगता था कि अब विश्व में करने को और कुछ नहीं रह गया है.कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और स्वयं को असहाय महसूस करता था.संगीत का मुझे बहुत शौक है और मैंने संगीत के प्रत्येक आयाम को जानने-छूने की कोशिश भी की है, यह अलग बात है कि मैं इसमें अनाड़ी ही सिद्ध हुआ हूँ. अपनी किशोरावस्था में मेरे पास मेरे मित्र का वाकमेन था जिसे मेरे पिता ने मुझसे छीन लिया था,क्योंकि उन्हें लगता था कि मैं बिगड़ रहा हूँ और अपनी पढ़ाई पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रहा हूँ. उन्ही दिनों मैंने एक स्वप्न बुना था कि एक दिन मेरे पास अपना टेप-रिकार्डर होगा.जब यहाँ मेरी नौकरी लगी, तब यह स्वप्न मुझे यदा-कदा आकर छेड़ जाया करता था.परन्तु मुझे सिर्फ़ रूपये नौ सौ चालीस ही बतौर तनख्वाह के मिला करते थें, जिसमे मेरा रहना-खाना और अन्य खर्चे भी शामिल थें. अतः यह स्वप्न मैं कैसे साकार करता. फिर भी यह स्वप्न एक आकांक्षा बन मुझे पर हावी हो रहा था.मैं यह आकांक्षा पूरी करना चाहता था पर एक तरफ़ मेरा प्रेम भी था.आर्ची उस समय समोई में थी और मुझे लगता था कि अब मेरे सारे सुख तो उसी के साथ जुड़े हैं और उसने मुझे बताया था कि वहां समोई में न बिजली का पता है, न रेडियो-न टेप,अतः मैं यहाँ कौन-से शौक पालता.हम एक-दूसरे से प्यार करते थें, पर आर्ची हमेशा ही मुझसे कहती थी कि मैंने तो आज-तक तुमसे यह कहा ही कहाँ कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ. मुझे इसका दुःख तो होता पर मैं हंसकर टाल जाया करता था.समोई से उसके आने कि तारीख निश्चित हुआ करती थीं, अतः मैं राणापुर पहुँच जाता था और फिर हम-दोनों ही वहां से साथ-साथ बामनिया तक आते थें,रास्ते में ढेर सारी बातें हुआ करती थीं.साथ में उसके पिता भी रहते थें.मेरा ऑफिस जिस भवन में था वह उन्ही का था, अतः उनसे मेरा परिचय होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा और परिणामतः मेरा आर्ची के घर भी आना-जाना शुरू हो गया.इससे हमारा मिलन सुगम हो गया.हालाँकि प्रेम के विषय में मेरी धारणा यही रही है कि यदि प्रेम छुपाने से नहीं छुपता है तो उसे छुपाओ भी मत,बल्कि जैसे ही प्रेम हो जाए तो और सहज-सरल हो जाओ.
इसी सहज-सरल प्रेम ने आर्ची के घर की देहरी पर करते ही जीवन की बिसात पर एक नई बाज़ी शुरू कर दी.
अजीब शै है यह ज़िन्दगी,
सोने-सा इसे बनाया,
चांदी-सा इसे सजाया,
माटी के मोल बिक चली जिंदगी."
ज़िन्दगी की यह शै दीवाली के दूसरे दिन ब्रह्म-मुहूर्त में प्रारम्भ हुई.उस ब्रह्म-मुहूर्त में आर्ची मेरी बाँहों में थी और उसी ब्रह्म-मुहूर्त में हमारे प्रेम की निष्ठुर नियति अमरबेल की तरह बढ़ने लगी थी. उस दिन जब सूर्य अपनी रश्मियों से धरा का श्रृंगार कर रहा था,हम-दोनों के प्रेम के किस्से बामनिया के घर-घर में पहुँच चुके थें.मुझे याद है कि एक दिन आर्ची ने मुझसे कहा था कि,"ज़्यादा प्यार अच्छा नहीं होता है."
ज़िन्दगी की राह में हर शख्स रहज़न ही मिला,
जब भी मिला-जो भी मिला एक दर्द-सा मिला."

जुलाई से प्रारम्भ इस प्रेम-कथा में यह शे'र नवम्बर में जुड़ गया था. है न प्रेम विचित्र. मैंने "आराधना' या "दस्तक" में ग़लत नहीं लिखा था कि प्रेम अपने तमाम आनन्द और सुख के बाद अपनी विविधता और विचित्रता के लिए भी जाना जाता है. ममता के बाद यह मेरा दूसरा अनुभव था.हालाँकि अब परिस्थितियां भिन्न थीं,फिर भी प्रेम यहाँ भी अपनी शाश्वतता के साथ उपस्थित था ही. ममता के साथ मेरा बचपन बीता था और अपने केशौर्य का प्रारम्भ भी उसी के साथ किया था. हम बचपन में खेलते-खेलते कब बड़े हो गए और इस बड़ेपन ने कब हमारे बीच दूरियां बनानी प्रारम्भ कर दी थीं हम दोनों ही नहीं जान पाए.पर उसके लिए मैं ज़्यादा दोषी था.ममता तो शायद ही यह जान पाए कि हमारे बीच यह सब आख़िर क्या था,क्या यही प्यार था.ममता के साथ मैं कभी भी खुलकर नहीं रह पाया था.मनोविज्ञान में जिसे 'प्लेटोनिक लव' कहते हैं,ममता के साथ मेरे संबंध प्लेटोनिक ही ज़्यादा थें. वह लड़की कभी भी मुझे समझ नहीं पाई.हाँ,उसने कभी मुझे कोई पीड़ा या दुःख नहीं पहुँचाया.मैं हर बार उससे इस आशा से मिलता था कि अब तो वह बदल चुकी होगी,अब तो वह मुझे समझेगी.....हालाँकि आज यह बात मैं अपनी उम्र के तीसवें साल में बहुत सहजता से लिख रहा हूँ, पर उस समय सहज शब्द से मेरा परिचय ही कहाँ हुआ था.तब मैं अधीरता का मित्र हुआ करता था.सुबह के स्वप्न संध्या के नाम कर देता था और संध्या के स्वप्न सुबह की झोली में डाल देता था.स्वप्न मुझसे और मैं स्वप्नों से यही अठखेलियाँ किया किया करते थें.ममता को मेरे परती न बदलना था, न ही वह बदली. यहाँ तक मेरी 'दस्तक' की आहट भी वह अनसुनी कर गई थी.
न तुम मेरे और न मैं तुम्हारा,
पर संबंधों का गणित है उलझा-उलझा,
हर पल कोई अर्थ लिए हुए,
उन आंखों में झाँककर तो देखो."

आंसुओं से परे जीवन सूखे पत्ते की तरह जब आर्ची के द्वार तक जा पहुँचा,उसमें बड़ा परिवर्तन यह आया कि वह मुझसे कटने लगी. मैंने अपनी डायरी में 5 जुलाई 1990 को संबंधों के विषय में लिखा था कि स्वार्थ कप्रभाव जीवन में इतना बढ़ता जा रहा है कि आज जब कोई नया संबंध बनता है अथवा कोई पुराना संबंध टूटता है तो मुझे कोई अचरच नहीं होता है.पर आर्ची को लेकर मैं अपने ही शब्दों के विरुद्ध जा खडा हुआ.उसका इस तरह मुझसे कटना मुझे सहन नहीं हुआ.दूसरी तरफ़ ढेरों बातें लिए कई-कई मुहँ थें."राज शायद तुम्हे मालूम नहीं, यह लोग अपने को कहने को जैन कहते हैं, पर यह लोग असल में जैन नहीं हैं.इनकी असल जात तो ख़ुद इन्हें ही नहीं मालूम है.यह लोग वर्णसंकर हैं.इनके पिता अपनी जवानी में बहुत अय्याश रहे हैं.शबाब और शराब के विशेष शौकीन....किसी आदिवासी महिला से इनके संबंध भी रहे हैं और उनसे इनके भाई-बहन भी हैं,फिर मास्टरजी ने एक जैनी लड़की से शादी कर ली और ख़ुद को जैन लिखने लगे........" और क्या-क्या सुनोगे. अर्चना का भी एक लड़के से संबंध रहा है और भी एक मुसलमान लड़के से. ऐसी ही बदनामी के चलते यह परिवार पेटलाबाद से यहाँ बामनिया में रहने को मजबूर है.अब बाप की क्षमता इतनी नहीं है कि वह चार-चार लड़कियों की शादी कर सके. अतः वह कहीं भी - कैसे भी इन लड़कियों को ठीकाने लगाना चाहता है. अगर यह लड़कियां अपनी मर्जी से शादी भी कर लें तो उसे क्या करना है,क्या आपत्ति होगी.
किस्से कहानियाँ हैं यहाँ हर मुहँ में,
और होंठ सिले हैं हमारे अपने ही डर से,
होगीं क्या आरजुएँ अब जवाँ यहाँ,
कि है फूलों से रिश्ता पर दामन में कांटें ज़िन्दगी."

कैक्टस मेरे घर-आँगन में भी फैलने लगे.उनकी चुभन मुझे असहज करने लगी.इन किस्सों में कुछ तो सच्चाईयां तो होगी ही,तब तो यह किस्से यहाँ हर मुहँ में फैले हुए हैं.यह सच था कि आर्ची के पिता के विवाहोत्तर संबंध थें और उसके दादा के भी ऐसे ही कुछ संबंध थे और यह भी सच था की यह परिवार वर्णसंकर-विश्रृंखलित था.मुझे यह सब बातें अंतर तक आहत कर जाती थीं,पर प्रेम क्या कभी 'इस या उस बात' में बंधा है.तब मुझसे ही यह आशा क्यों.मैं किसी भी बात पर पर ध्यान नहीं देता था. पर जिस बात से मुझे सबसे ज़्यादा दुःख पहुँचा था वह बात थी कि आर्ची मुझसे दूर-दूर रहने लगी थी,जैसे कि हम कभी मिले ही नहीं थे.मैं कभी उसकी जिंदगी में आया ही नहीं. मैं घर के पीछे गैलरी में खड़ा उसकी एक झलक पाने के लिए घंटों इंतजार करता और वह बाहर किसी काम से आती पर मुझे देखे बगैर या देखकर अनदेखा कर जाती और मैं अपने ही दुःख में डूबता-उतराता रह जाता.उसका यह कहना कि उसने अभी मुझसे यह कहा ही कहाँ है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ.......हाँ,सचमुच उसने मुझसे प्यार नहीं किया.
मेरे साथ यहाँ एक और समस्या थी.संबंधों को लेकर मैं बड़ा अंतर्मुखी रहा हूँ. कहने को तो मेरे संबंधों कि सूची लम्बी है परन्तु वह लोग जिनके सामने मैं अपने जीवन की पुस्तक के पन्ने खोलकर रख दूँ, ऐसे सिर्फ़ दो-चार मित्र ही हैं और वह भी सब भोपाल में.यहाँ आकर तो आज तक ऐसे संबंध बन ही नहीं पाए हैं.हालाँकि यहाँ मेरे रूम-पार्टनर धीर और नन्द हैं .दोनों ही ग्वालियर से यहाँ मेरे साथ ही नौकरी करने आए हैं. धीर तो वापिस लौट गया और फिर नन्द और मैं ही रह गए.हम दोनों के सम्बन्ध ऐसे नहीं थे कि वह मेरे जीवन की पुस्तक का उन्मान भी पढ़ पता.हम दोनों का एक ही छत के नीचे रहना सिर्फ़ परिस्थितियों के आगे एक समझौते से ज़्यादा नहीं था.इन सबके विपरीत धूरी पर एक और व्यक्तित्व था- युनुस खान का,जिसे हम पठान या भाई जान कहते थे.पठानों जैसा लंबा-पूरा और ऐसी ही मस्त मौला तबियत का मालिक था. ग़ज़ल और शतरंज का शौकीन.एक अन्य नाम है राजेश का, यह व्यक्ति पी.डब्लू.डी. में उपयंत्री था.इसको दुनिया के विषय पर वाद-विवाद का शौक था.भांग का बेहद शौकीन.भांग की तरंग में इसके पास या तो दुनिया के हर मसले का हल होता था या फिर हर मसले में से एक और नया मसला होता था.इसी के साथ मैंने भांग का स्वाद भी चखा था, पहली और आखिरी बार.फिर इसने जब भी कहा मैंने बाबा भोलेनाथ को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और भांग से तौबा कर ली.इन सबके विषय में बताने का अर्थ यही है कि मैं इन सबसे दिन-रात जुड़ा हुआ था.कारण सिर्फ़ इतना था कि मेरा मकान बामनिया के बाज़ार के मध्य में था और काफी बड़ा भी था,अतः पठान और राजेश की बैठक भी यहीं थी.शतरंज और चाय की चुस्कियों के बीच भाईजान इसे ऐशगाह कहा करता था.पर, एक राज, मैं राज.....इन सबसे बहुत दूर था.बामनिया इतनी छोटी जगह है कि यदि आप यदि यहाँ एक सिरे पर छींक दे तो दूसरे सिरे पर लोगों को पता चल जाएगा.अतः यह सब भी आर्ची और मेरे बीच के सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव के साक्षी थें.फिर भी ऐसा बहुत कुछ हमारे बीच घट रहा था, जिनसे यह सब भी अनभिज्ञ थे.जब मेरे पास ढेरों कही-अनकही बातें इकठ्ठी हो जाती तो मैं भोपाल में अपनी पुरानी मित्र-मण्डली में जा धमकता और फिर बियर की चुस्कियों के बीच हर बात हाला बन जाती. इस तरह मैं कुछ हल्का हो जाता और पुनः भर जाने के लिए बामनिया वापिस लौट आता.



रविवार, 4 जनवरी 2009

उपन्यास, पल-प्रतिपल (भाग-एक)

पल-प्रतिपल (भाग-एक)

"किसे सुनाये यह दास्ताँ कि हमने भी बनाया था एक आसमां,
और उड़ने की चाह में दर-दर भटकते फिरे थे"

आज 24 मार्च 1994 है और मैं इस गाथा कि शुरुआत 23 मार्च 1994 से कर रहा हूँ. यह दिन मेरे जीवन में एक विचित्र-सा मोड़ लेकर आया. मेरे सपनों,मेरी कल्पनाओं,इच्छाओं,उमंगों,जीवन जीने की चाहतों के लिए यह दिन महत्वपूर्ण बन गया.इतना महत्वपूर्ण कि मैंने अपनी डायरी जो 1990 से लिखना बंद कर दी थी या सच-सच कहूं तो समय की धारा में मेरा लिखना छूटता चला गया था, तब इस एक दिन मन की टीस बाहर आने के लिए मचल उठी,टीस का मचलना 23 मार्च से शुरू हुआ और आज 24 मार्च की सुबह मैं यह कथा लिखने बैठ गया हूँ. पर इस 23 मार्च 1994 तक ठीक-ठीक पहुँचने के लिए मुझे अपने जीवन के इतिहास के पिछले कई-कई पृष्ठ पलटने होंगे.इतिहास ऐसे ही लिखा जाता है. एक दिन के इतिहास के लिए विगत के कई-कई पृष्ठ समेटने पड़ते हैं.यही जीवन के इतिहास के साथ भी होता है.

पर सबसे पहले मैं अपना परिचय दे देता हूँ, आख़िर पूरी कथा मुझे ही कहनी है और इस पूरी कथा में मेरा और आपका साथ रहेगा ही.मैं राज हूँ, एक साधारण-सा इन्सान, बिल्कुल एक आम इन्सान की तरह. पर कितना साधारण और कितना असाधारण यह तो इस कथा का परिवेश-इसकी पृष्ठभूमि और इस कथा में आने वाले पात्र ही बता पाएंगे और अंत में आप सब.

"इस सफ़र का इतना-सा है अफ़साना 'बादल',
हर मोड़-हर गली में है, यादों की बस्ती हमारी"

मैंने जीवन को जितने ही दुस्साहस के साथ जीने की कोशिश की,जितना ही जीवन की वैचारिकता को व्यवहारिकता के साथ जीने की कोशिश की, उतना ही हर बार कमज़ोर और हारा हुआ सिद्ध हुआ हूँ.हर बार न जाने किस भ्रम(भ्रम कहना ही ठीक होगा),रेत को अपनी मुठ्ठी में इस आशा से भरता रहा कि एक न एक दिन तो रेत मेरी मुठ्ठी में बंद हो ही जायेगी, पर रेत कभी भी अपनी प्रकृति से मुँह नहीं मोड़ सकी.रेत और मेरे बीच के इस विचित्र द्वंद के चलते-चलते मैं स्वयं रेत हो गया.स्वयं ही घरौंदा बनता - स्वयं ही बिखर-बिखर जाता और फिर-फिर किसी नीड़ के निर्माण के लिए उठ खड़ा होता.
" डरे आँधियों से घरौंदें बनाने वाले,
हम तो रेत हैं,रेत ही हो जायेंगे."

और फिर....फिर रेत होता चला गया. रेत जैसी फितरत लेकर पैदा नहीं हुआ था.'दस्तक" लिखने के बाद तो एक बारगी लगा था कि अब इस जुनून से लिखना नहीं हो पायेगा.'दस्तक" मैंने नहीं, मेरे उन ख्यालों ने लिखी थी जो ममता के प्रेम की कुनकुनी पीड़ा से जन्मे थें. प्रेम राजनीति का छिछला प्रांगण नहीं होता है कि जहाँ एक होते ही यह प्रश्न उठ खड़ा हो कि अब इसके बाद कौन? ममता जब तक रही, तब तक मेरे प्रेम की परिधि एवं केन्द्र दोनों वह ही रही. हालाँकि हमारे मिलन के साथ ही हमारा बिछुड़ना नियति के हाथों लिखा जा चुका था. शायद हर मिलन ऐसा ही होता है.हर मिलन के साथ ही विरह भी चुपके से साथ आ खड़ा होता है.यह बात मेरे सामने 28 जून 1982 को आई. इस तारीख से से लेकर 11 नबम्बर 1986 तक, इन चार वर्षों के बीच सिर्फ़ मैं था और थी ख्यालों के उजाले की मानिंद ममता.तब मुझे उससे हमेशा-हमेशा बिछुड़ जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने में बहुत-बहुत समय लगा था.पूरे चार वर्ष और पाँच माह. यह समय शायद ज़्यादा लगे, लेकिन कभी जब कोई 'राज' बनकर जन्म लेगा और किसी 'ममता' से प्यार करेगा, तब वह ही स्वयं ही यह अनुभूति भी करेगा कि यह समय तो कुछ भी नहीं है,क्योंकि प्रेम की वह तीव्रता पागल कर देने की सीमा छू सकी थी. दोष अंततः मेरा ही था, क्योंकि ममता को तो शायद स्वप्न में भी यह भान न होगा कि कोई उसके पीछे इतना दीवाना है. अगर वाग्देवी कि कृपा से 'दस्तक' न लिखी जाती तो शायद आज यह राज भी मर चुका होता. 'दस्तक' की कथा प्रेम और मन के अन्तर्द्वन्द से प्रारम्भ होती है और इन दोनों के बीच मैं, इस अन्तर्द्वन्द का न केवल साक्षी हूँ, वरन इनका पंच भी मैं ही हूँ और इन सबसे परे मैं साधक भी हूँ. शब्द को कहीं से भी लिखना शुरू करुँ, वह ममता को छू ही लेते थें.'दस्तक' में मैं अपनी भूमिका से संतुष्ट था और यह सन्तुष्टी मेरे लिए उस दिन वरदान बन गई, जिस दिन उससे जुड़ा इतिहास 11 नबम्बर 1986 का दिन लेकर आया.
'आगे कुछ नहीं, अंधेरे ही अंधेरे हैं दोस्त,
अब कब तक सफ़र करोगे एक रोशनी के लिए.'

मैं तब बीमारी से उठा था, उस वर्ष मैं एम.एस.सी,शायद पूर्वार्ध में था. एक दिन आनन्द ने आकर मुझसे कहा कि राज 5 फरवरी को ममता की शादी है.एक आग-सी सीने में उतरती चली गई.पल भर के लिए नहीं वरन मैं फिर कई-कई पलों के लिए उदास हो गया. वह सभी स्वप्न जिन्हें बहुत पीछे कहीं छोड़ आया था, एकाएक आकर जैसे सिसकने लगे हों. वह समय 'आराधना' का था.
कहीं दूर चलकर हम-
करेंगे आराधना हम-तुम,
आधी मैं-
आधी तुम...."

'आराधना' लिखे जाने तक मैं पद्ममाली अपने मन सहित विचलित-सा इस आसमां-ज़मीं के बीच डोलता रहा. ममता और मुझे नहीं मिलना था, नहीं मिले. उसकी शादी 5 फरवरी को न होकर 23 जून को हुई और मैं औघड़ तब तक स्वयं को इतनी कुशलता से सम्हाल चुका था, जैसा कि किसी माहिर पियक्कड़ को देखकर यह कहना मुश्किल होता है कि इसने अभी पी रखी है या नहीं.उस पूरे दौर में मैंने पाँच महीने तक एक भी रचना नहीं लिखी थी.साथ ही 29 जून 1987 को हम घर से बे-घर हुए थें.मनुष्यता के रिश्तों की संज्ञाओं को मैंने उन्हीं दिनों नए अर्थों में देखा था.
'अक्षरों से संबंध-शब्दों से दोस्ती,
पर नहीं कोई आहट तक कहीं,
कहने को है अखिल-विश्व -
पर नहीं है दूर तक अपना कोई,
देकर पीडाएं संबंध-संबोधनों की,
किसी ने कहा -नहीं कोई प्यार."

टूटे स्वप्नों को मैंने बहुत सहजकर रख दिया और नए सिरे से जीवन शुरू किया. नए स्पंदन के साथ स्वयं को मैं ढालने लगा था.कोटरा में हमने स्टेशनरी की एक दुकान खोल ली थी और स्नातक के बाद से बे-रोज़गारी के ढो रहे बोझ को कुछ हल्का कर दिया.वहीँ एक दिन एक सांवली-सी लड़की से मेरी मुलाकात हुई.उसका नाम अर्चना था.पर हम-दोनों हमेशा एक-दूसरे को देखते ही थें और नयनो की भाषा के यह द्वार भी जब एक दिन बंद हो गए तो मैंने उस भाषा के रोमांस को "अर्चना" में तथा उस भाषा के आंसुओं को "वह क्यों रोई" में शब्दांकित कर लिया.हम अपनी सीमाओं में मिले थें, अपनी सीमाओं में ही रहे और अपनी सीमाओं में ही रह गए.
कितने दर्द थें यहाँ आने को बेताब,
आते-आते उन्हें छुपा गए आंसू."
'कोई प्यार करेगा 'बादल' से,
आंखों को थका गए आंसू"

बीतता समय और बीतने लगा. कभी तेज़ी से - कभी धीरे से. जीवन की मृत्युपरंत यात्रा यायावरी ढंग से चलती रही.जुलाई 1991 में मेरी नौकरी लग गई और मुझे भोपाल छोड़ना पड़ा, यही कोई 400 किलोमीटर. मैं गोल-गोल घूमती रोटी के पीछे-पीछे चलता हुआ झाबुआ जिले एक छोटे-से कस्बे बामनिया में जा पंहुचा,जहाँ मेरे भाग्य की वह रोटियां मेरा इंतजार कर रही थीं.जीवन की यह सर्वथा एक नई शुरुआत.यायावरी की एकाकी अब और बढ़ गई थी.अब मैं था, मेरे कमरे की छत थी और मेरे विचारों-स्वप्नों-कल्पनाओं की अनंत-अनादि श्रृंखला थी. इसी मध्य मैं इंदौर में प्रशिक्षण के लिए आया और पूरे दो माह तक इंदौर में ही रहा.नए मित्र मिले.एक बार फिर संबंधों के नए अर्थ मिलें. मैं प्रशिक्षण के बाद कई मीठी स्मृतियां लेकर बामनिया पुनः लौट आया. यह छोटा-सा क़स्बा मुझे पहले दिन से ही पसंद नहीं आया था. मैं आज भी यहाँ हूँ, पर सिर्फ़ शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से तो मैं यहाँ रहने के लिए आज तक स्वयं को तैयार नहीं कर पाया हूँ.यह रोटी बुरी चीज़ है या यह पेट बुरा है, मैं नहीं जानता. मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि यह मेरा रास्ता न था. मेरी आकांक्षाएं घुट रही हैं और मैं चुप हूँ. एक दिन मैंने यहाँ एक गीत लिखा और मुझे एक चेहरा याद हो आया. ललिता का चेहरा. वह लड़की बहुत अच्छी थी. पर मेरे लिए वह एक दोस्त थी. अब कहाँ है, यह मुझे नहीं पता. पर जीवन के प्रति उसकी अदम्य जीजिविषा मुझे कई बार प्रभावित करती थी. लोग उसके विषय में चाहे जो कुछ भी कहें, मैं जानता था कि वह एक बहुत अच्छी लड़की थी.ईश्वर उसका कल्याण करें.हाँ, मैं गीत की बात कह रहा था.उस दिन यह गीत लिखते हुए उसकी याद आई थी क्योंकि वह हमेशा मुझसे कहती थी कि तुम तो अपने घर में अपने लोगों के साथ रहते हो न, इसलिए तुम्हे मेरे आंसू बकबास नज़र आते हैं. काश तुम मेरी उदासी को छू पाते.....!
जिस दिन मुझे भी यहाँ जन-अरण्य में यह अनुभूति हुई, मैंने ललिता की बात को नमन कर स्वीकार कर लिया. यह गीत आज भी मेरी उदासी को बहलाने के लिए सबसे अच्छा साधन है.
"अश्रु नीर बहा गया कोई,
मन पीर बता गया कोई,
उदास थीं रातें,
चांदनी छुई-मुई-सी,
चाँद के आँगन में -
दर्पण तोड़ गया कोई......"

उदास गीत का यह राज सावन की पहली फुहार में उस समय सिहर उठा, जिस समय एक सांवली-सी लड़की ने अपनी सावन की बूंदों से भरी आंखों से पल भर के लिए ठिठाक्कर उसे देखा था. जुलाई का वह महिना, शायद 22 तारीख़ थी, जीवन के सर्वथा नए अध्याय की शुरुआत की.मैं प्रेम की अनूठी अनुभूति से - उसके मृदुल स्पर्श से भर गया था, जिस दिन उसने घर में पहला क़दम रखा था.
मैं अब तक इस कथा में जो कुछ भी लिखता आ रहा हूँ.दरअसल वह सारे शब्द, अब आगे लिखे जाने वाले शब्दों के सूत्रधार भर थें. नाटक की यवनिका तो अब उठी है. मैंने "आराधना' में लिखा था कि प्रेम में जितनी विचित्रताएं पाई जाती हैं, उतनी विविधता-विचित्रता इस ब्रह्मांड की किसी अन्य विधा में नहीं पाई जाती हैं. सच यह है कि प्रेम का अपना कोई गणित-मापदंड नहीं होता है.प्रेम सहज-स्वाभाविक है.प्रेम ने स्वयं को आज तक अस्वाभाविक ढंग से जीया ही कहाँ है.प्रेम कब दबे पाँव - गुपचुप आपके मन-आँगन में आ धमकेगा,कब आपके मन में हौले से एक आहट कर जाएगा, कब आपके दिल का द्वार खटखटा जाएगा, यह कौन जानता है ! अब यह निश्चित रूप से ममता नहीं थी और न ही यह समय ममता से बंधा हुआ था. न ही मैं......मैं तो कई पड़ावों में से गुजरता हुआ आज एक सर्वथा नए परिचय के साथ स्वयमेव में था. प्रेमिका का स्पर्श प्रेमी को और प्रेमी का स्पर्श प्रेमिका को प्रेम के कई-कई स्त्रोत या कहूँ कि सहस्त्रधारा को जन्म दे जाता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. आज मैं 'दस्तक' वाले त्रिशंकु से मुक्त था. ढाई आखर नई रोशनी से लिखे जाने लगे. उस दिन शाम हुई थी, वर्षा के बाद बादलों के बीच में से भास्कर-रश्मियाँ हरीतिमा पर थिरक रही थीं और नृत्यमय मैं बामनिया के प्लेटफार्म पर यहाँ से वहां तक कुलांचे भर रहा था. क्या मैं ही था वहाँ या कोई और.......?
'भटक आया होगा, कोई और छत पर,
मैं तो उस सावन का 'बादल' नहीं."

विचित्र-सा सावन अब मेरे आँगन में था. बूंद-बूंद नृत्य कर रहीं थीं. तृण-तृण झूम रहा था.पतदल को तो अपनी ही झंकार से होश कहाँ था. हवाएं मुझे छूकर शरारत पर उतारू थीं. बादलों का इतराना क्या कहूँ.
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शनिवार, 3 जनवरी 2009

उपन्यास- पल-प्रतिपल

पल-प्रतिपल
भूमिका

आज से चौदह वर्ष पहले मैंने एक उपन्यास की नींव रखी थी.मेरे कुछ साहित्यिक मित्रों ने जब यह पढ़ा तो मुझे इसे विस्तार करते हुए फिर से लिखने को प्रेरित किया था.पर तब मैं यह कर नहीं पाया क्योंकि मुझे लगता था कि मेरे जीवन का एक अध्याय जो समाप्त हो चुका है उसे ही बार-बार कुरेदने से क्या हासिल होगा और फिर मैं उस दर्द से-उस पीड़ा से दुबारा गुजरना भी नहीं चाहता था.अतः इस उपन्यास को जस का तस ही छोड़ दिया.
पर कहते हैं न कि समय कहीं न कहीं करवट लेता ही है. गुजरे चौदह वर्षों में मैंने बहुत ही कम इस विषयवस्तु पर बात की है.करता भी किससे.यहाँ सुनने वालें तो बहुत हैं और आपसे सहानुभूति रखने वालें भी बहुत हैं पर आपको समझने वाला कौन है? यह एक प्रश्न है जिसकी प्रतीक्षा में सारा जीवन बीत जाए और उत्तर अनुत्तरित ही रह जाए.फिर ख़ुद को ही समझा लें कि शायद यही हमारा प्रारब्ध है.करीब-करीब जीवन ऐसे ही जीया जाता है.
पर मेरे लिए तो समय फिर एक करवट के साथ आया है.अभी कल की ही बात है.मुझसे कहा गया कि मैं लड़कियों में ज़्यादा दिलचस्पी लेता हूँ और ऐसा कुछ करता हूँ कि लड़कियां ख़ुद ही मुझ तक खींची चली आती हैं.यह एक ऐसा आरोप है जिसे मैंने हर बार अपने ऊपर पाया है और कभी परवाह भी नहीं की है क्योंकि ऐसा हुआ होगा मुझे स्वयं पर ही शक़ है.पर उस बातचीत ने मेरे लिए इस उपन्यास के लिए एक नया आयाम खोल दिया. इस उपन्यास का एक ही पात्र है - राज,और यह राज कई-कई पात्रों के साथ,कई-कई घटनाओं के साथ,कई-कई स्थानों के भटकाव के साथ अपने ही जीवन का ताना-बाना कई-कई शब्दों में बुनता हुआ चला है.कथा के केन्द्र में प्रेम है और प्रेम से उपजी पीड़ा है.प्रेम जीवन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है,इससे चूके नहीं.एक बार प्यार ज़रूर करें.प्रेम से बड़ा जीवन में कुछ भी नहीं है.प्रेम हमारी प्रकृति है और प्रकृति से मुंह नहीं मोडे,इससे भागे नहीं.अगर जीवन में प्रेम नहीं है तो फिर जीवन भी जीवन नहीं है.आज चौदह वर्ष बाद ऐसे ही एक एक प्रेम कथानक के पन्ने फिर से खोलने जा रहा हूँ.उस दिन भारत-भवन में यह सब बातें नहीं होती तो शायद मैं खामोश ही रहता.चूँकि ब्लाग की अपनी सीमा है अतः मैं यह उपन्यास कुछ भागों में लिखूगां.
आशा है आप पसंद करेंगें.
आपका,
-नीरज गुरु "बादल"
भोपाल.