सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018


व्यंग्य-
                 कहाँ हो तुम सब.....!

    देखो ज़माना बदल चुका है और गंगा में भी पानी बहुत बह चुका  है. उस अपने वाले दौर में तो ठीक था कि तुम सब सभी बातें सहन कर लिया करती थीं. पर अब ऐसा न करने के युग की शुरुआत हो चुकी है और मैं चाहता हूँ कि तुम सब भी अभी जहाँ भी हो इस नए युग में ढल जाओ और आओ #मीटू में शामिल हो जाओ.
    देखो मैं अभागा अभी तक किसी ने भी इस नए प्रचलन का मुझ पर उपयोग नहीं किया है. सभी मुझे चिड़ा रहे हैं कि क्या खाक साथ में पढ़े हो – क्या खाक में साथ में रहे हो. या तो झूठ बोल रहे हो या फिर शराफत का कम्बल ओढ़कर सोते रहे और सिर्फ़ हमारे सामने ही इतराते रहे कि मेरे संबंध तो इस-उससे हैं. सच में मैं बहुत ही परेशां हूँ. अब तुम सब बतलाओ कि मैं ज़माने में यूँ रुसवा हो रहा हूँ तो बुरा नहीं लग रहा है क्या. ध्यान रहे, रुसवाई तो तुम्हारी भी हो रही है.
    जिसे भी आस-पास देखो डरा-डरा फिर रहा है. सोशल-मीडिया पर सहमा-सहमा नज़र आ रहा है. भद्दे जोक्स से एलर्जी-सी हो गई है. अब तो राधे-राधे होने लगी है. जो देर रात तक जाग-जागकर मैसेज भेजा करते थे अब वो भी दस बजे रात को गुड-नाइट कहकर ऑफ हो जाते हैं. मुझे भी ऐसा की व्यवहार करना चाहिए पर हो यह रहा है कि मेरे दिन-रात सभी अच्छे से कट रहे हैं. अभी भी देर रात जग रहा हूँ पर सिर्फ राधे-राधे ही हो पा रही है जो कि अच्छा नहीं है.
    मैं मानता हूँ कि हम सभी पचास पार कर आगे साठ की तरफ़ बढ़ चुके हैं पर मेरा कहा मानों कि अभी साठ बहुत दूर है और अभी भी हम सब बहुत कुछ कर लेने का माद्दा रखते हैं. अभी स्मृति-लोप भी नहीं हुआ है. सच मानो यदि याद करोगी तो लगेगा कि कल ही की तो बात है.
    मैं मानता हूँ कि तुम सभी की जवानी बिदाई की बेला में है. शाम का धुंधलका छा रहा है. रात्री अपनी निस्तब्धता के आगोश में तुम सभी को लेने वाली है. यह भी मानता हूँ कि तुम सभी मध्यम वर्ग से हो और जिंदगी की जद्दोज़हद ने तुम्हारे सभी कसबल ढीले कर दिया हैं. जीवन में नीरसता को ही तुमने नियति मानकर जीना शुरू कर दिया है. तुम्हारे बच्चे भी अपनी-अपनी जवानी की दहलीज़ लांघकर इस नई दुनिया के क्लाउड कंप्यूटिंग के आकाश में आभासी बुद्धिमत्ता जिसे वो एआई कह रह हैं में रम गए हैं. अब तुम्ही सोचो कि आज तुम्हारे बच्चे ही तुम्हे पुराने ज़माने का कहकर छिटक रहे हैं और तुम सभी स्मार्ट फोन रखकर भी स्मार्ट नहीं बन पा रही  हो और मान ही बैठी हो कि अरे हम पिछड़ गए हैं – देखो यह दुनिया कितनी बदल गई है.
    क्या तुम सभी को यह नहीं लगता है कि तुम सभी आने वाले समय में कहीं अन्धेर्रों में खो जाओगी. कहीं गुम हो जायोगी.
    यही स्थिति अभी मेरे साथ भी है. मैं भी तुम सभी से अलग नहीं हूँ. पर जबसे यह #मीटू चला है कुछ आस बंधी है. यही एक अवसर है कि हम इस नीरसता के घटाटोप से बाहर आ सकते हैं. माना कि हम कोई सेलिब्रिटीज नहीं हैं. न ही फिल्मों से जुड़े हुए हैं और न ही राजीनीतिक हैं. लेकिन क्या तुम्हे लगता नहीं कि इस तरह के अभियान अभिज्यात वर्ग और अधिक अभिज्यात बना देते हैं. मोरल वेल्यु को इन्हांस कर देते हैं. आख़िर हम मध्यम वर्ग के लोग कब तक यूँ ही पीसते रहेंगे.
    इसलिए मैं कहता हूँ कि यह तुम्हारे लिए और मेरे लिए अंतिम अवसर है कि तुम सभी चैत जाओ – जाग जाओ और इस #मीटू के ज्वार पर सवार हो जाओ. मैं वहीँ जिसने कभी तो तुम्हे देखा होगा जिसे तुम सब घूरना कहती थीं. ज़रा याद करो वो दिन जब कभी तुमने मुझे देखकर अपनी किसी सहेली से कहा होगा कि इसने अपनी शकल भी देखी है या कभी तुम्हारे मन में मुझे अपने पिता से – भाइयों से पीटवाने का ख्याल आया होगा या स्वयं तुमने चाहा होगा कि इसे एक झापड़ मारकर सबक सिखाऊँ या चप्पलों से इसकी पिटाई कर दूँ. पर तुम्हे हमेशा गांधीजी ने रोक लिया होगा और हिंसा के मनोभावों को तुमने दबा दिया होगा. कहीं संस्कारो ने रोका होगा तो कहीं संस्कृति ने तुम्हे टोका होगा. तुम्हारी लड़की होने की कतिपय भावना ने तुम्हारे पैरों में बेड़ियाँ डाल दी होगीं.
    पर आज मैं चाहता हूँ कि तुम सभी उठों और #मीटू का लठ लेकर खडी हो जाओ. यह जानते हुए भी होना-जाना कुछ नहीं है पर नाम तो होगा. हाँ सच कह रहा हूँ कि तुम्हारा नाम होगा और मेरे नाम के आगे भी बद जुड जायेगा. यही हमारे-तुम्हारे प्रसिद्ध होने का प्रथम और अंतिम अवसर है. अपने-अपने नाती-पोतों को सुनाने के लिए कुछ तो होगा.
    यह कड़वा सच भी जान लो कि दुनिया के कोई भी अभियान लम्बे समय तक नहीं चलते हैं. सारे अच्छे-बुरे अभियान एक-न-एक दिन अपनी मौत स्वयं मर जाते हैं. इसलिए कहता हूँ कि इससे पहले कि यह अभियान भी दम तोड़ दे, इतिहास के गर्त में कहीं खो जाये, इसके किनारे सूख जाएँ और इससे पहले कि तुम्हारा शरीर झुर्रियों की चादर ओढ़ ले, तुम सभी को अल्जाइमर हो जाये उससे पहले इस अवसर का लाभ उठा लो. अपने जीवन में रोमांच के रंग भार लो और कुछ मुझ पर उड़ेल दो.
    मैं फिर आव्हान कर रहा हूँ कि कहाँ हो तुम सब......!


    तुम सभी के #मीटू की प्रतीक्षा में, तुम्हारा वही –“वो वाला”

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

भारत के आज के सबसे बुरे चेहरे

भारत के आज के सबसे बुरे चेहरे

भारत में आज कुछ लोग और कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्होंने भारत की छबि बनाने की जगह आज भारत की छबि को दुनिया के सामने तो दाग़दार बनाया ही है साथ हम भारतवासियों को भी असीम दुःख दिया है.यह लोग और यह कार्य ऐसे हैं,जिन्हें उन लोगो के भरोसे पर छोड़ दिया गया या ऐसे लोगो को यह जिम्मेदारी सौपीं गई जिन्हें ईश्वर ने एक अवसर दिया था इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए एक सच्चे राष्ट्रभक्त-एक सच्चे हीरो की तरह दर्ज़ होने का,लेकिन यह लोग चूक गए और दूसरी तरफ हमने कुछ ऐसे लोगो को दण्डित किया या उन्हें उनके कामों से बेदखल किया जिन्होंने अपने कामों से न केवल भारत में वरन विश्व में भी भारत की शानदार शक्तिशाली छबि पेश की थी और यह वो लोग थें जिन्होंने जनता की गाढ़ी कमाई का एक पैसा भी नहीं खाया,पर प्रचार ऐसे किया गया कि यह तो राष्ट्रद्रोही हैं.यह है हमारे तंत्र का दोहरा चेहरा और हमारा भोलापन कि हम आज भी सही और गलत की पहचान नहीं कर पा रहे हैं.
आज मैं भारत के सबसे बुरे चेहरे आप लोगों के सामने रख रहा हूँ और इनसे परे मैं जिन लोगों की बात कर रहा हूँ उन्हें आपको पहचान कर मुझे बताना है.देखते हैं कि हमारे विचार यहाँ कितने मिलते हैं.....तो प्रस्तुत है भारत के आज के सबसे बुरे चेहरे.
१. सुरेश कलमाड़ी,
२. शरद पवार,
३. के.पी.एस.गिल,
४. जवाहर लाल नेहरु शहरी नवीनीकरण योजना (JNNRUM ),
५. महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार योजना (मनरेगा),
६. रेड्डी बंधु,
७. राज ठाकरे,
८. प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना,
९. ए.राजा
१०.नीरा राडिया

कविता, "कोई तुम-सा....,"

कोई तुम-सा....,

कोई तुम-सा,
रात स्वप्न में आकर छेड़ जाता है मुझे,
ख्यालों में हलचल मचा जाता है,
दिन भर काम में डूबे रहने के बाबजूद भी-
अचानक विचारों की एक श्रंखला बना जाता है,
शाम के डूबते सूरज के आगे बादल बन आ जाता है वो,

पता नहीं और मैं जानता भी नहीं-कि /
कौन है वो और -
क्यों इस तरह करता है,

ये शरारत है तो ठीक है,
ये मस्ती है तो ठीक है,
ये उसके जीने का एक आयाम है तो भी ठीक है,
मुझे भी कभी-कभी खुद को यूँ छेड़ा जाना अच्छा लगता है,
चाहता भी हूँ कि यह सिलसिला यूँ ही हर पल चलता रहे,
पर मैं - सीधा-सीधा यूँ तुम्हरी यादों का सामना नहीं कर पाता हूँ,
और -
कहता हूँ,
ये तुम नहीं.......,
कोई तुम-सा है.

सोमवार, 10 मई 2010

.....तुम्हारा दौड़ना.

इस धरा पर -
जब से खोली हैं हमने आँखें,
तुम्हे दौड़ता ही पाया है.
पहले हमारे बचपन को सहारा देने के लिए,
उसकी शरारतों को अपने आँचल से ढंकने के लिए,
हमे शिक्षित-संस्कारवान बनाने के लिए,
फिर हमारी सुघढ़ जीविका के लिए-
तुम्हे नर्बदा के किनारे तक दौड़ता हुआ देखा है मैंने,
फिर जब तुम्हारे लालन-पालन की सीमा से हम सब बाहर हुए तो -
तब तुम हमारी गृहस्थी बसाने के लिए भी दौड़ पड़ी थीं,
वह तुम्हारे- तुम्हारी अपनी नौकरी से रिटायरमेंट के दिन थें,
पर बहुओं ने तुम्हे सेवानिवृत नहीं होने दिया,
हाँ तुम्हे अपनी पोती के पीछे कहीं ज़्यादा सुकून से दौड़ता हुआ पाया,

हमारी असीम इच्छाएं पूरी करने के लिए,
अलसभोर से देर रात तक तुम्हे दौड़ता हुआ ही पाया है.

पर.......आज जब,
तुम अपनी एड़ी की वज़ह से चल भी नहीं पा रही हो,
जबकि हम जानते हैं कि-
तुम्हे आज भी हमारे पीछे दौड़ना अच्छा लगता है,
यहाँ हममे से किसी के पास भी समय नहीं है कि -
तुम्हे फिर से दौड़ने के काबिल बनाने के लिए -
तुम्हारा इलाज करा सके,
आज हम सब-
अपनी-अपनी ही दुनियाओं में दौड़ लगा रहे हैं.

...........और तुम कहीं पीछे छूट-सी गई हो.

सोमवार, 3 मई 2010

.......मोक्ष तक.

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर,
जहाँ-
मेरा प्रेम सावन बन बरस रहा था,
और वहीँ -
तुम्हारी देह - भादों-सी उफनकर मचल पड़ी थी,
इस अलौकिक प्रेम के ज्वार में,
तुम्हारी देह का वह सौन्दर्य -
मेरी देह के सप्तक से मिलकर,
मिलन का एक राग छेड़ बैठे थें,
उस रात में-उस राग में-उस बिछौने पर,
हम-तुम -
रच-बस-गुंथ-मिल-लिपट / कुछ यूँ यहाँ-वहां हो रहे थें / कि -
तुम्हारे घुंघराले केशों में मेरी उँगलियाँ -
मानो सितार पर मध्यम स्वर छेड़ रही हो,
और उधर - तुम्हारी आतप्त हथेलियाँ,
मानो मेरी पीठ पर नृत्य कर रही हों,
हमारी गहरी साँसों-स्पंदन-मचलती शिराओं के साथ,
फिर कुछ यूँ हुआ कि -
श्वासें - श्वासों में गुम,
धड़कने - धडकनों में बंद,
आँखें - आँखों में डूबी,
शहद-से घुलते होठों से होठ,
कंपकपाते - सरसराते उस आलिंगन में,
ख़ामोशी के आरोह-अवरोह में,
जो मस्त राग हम छेड़ बैठे थें / कि /
नसों में इठलाती-इतराती रागनियाँ,
मानों -
इस उदात्त मिलन के वृन्दगान सुना रही हों,
फिर -
कहाँ तुम - कहाँ मैं,
कौन जाने - क्या पता,
कितनी तुम मुझमे,
कितना मैं तुममे,
किसको संज्ञान - कौन बताये / कि /
कौन किसमे कितना-कितना,

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर -
हमने देह के संगम से आत्मा का मिलन किया था,
कि फिर - तू नहीं - तू रही,
कि फिर - मैं नहीं - मैं रहा,
हम दोनों मिलकर आधा-आधा,
एक पूरा हो गए,

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर -
तुम्हारी देह एक आकाशगंगा बन बह रही थी,
और मैं - उसमें डूबता-उतराता बहा चला जा रहा था,
समय की इस गतिमान परिधि में,
हम ही उसके एक सिरे पर रुक-से गए थें,
और - यह मान लिया था हमने कि -
समय को हमने रोक लिया है,
पर प्रिये - समय रुके या न रुके,
हम तो एक-दूसरे में रुक ही गए थें,
..........एक दूसरे में ठहर ही गए थें,

उस सुबह -
मैं मोक्ष पा चुका था,
और तुम.........!
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सोमवार, 4 मई 2009

मेरा कथा-संसार.

उऋण


शहर की धनाड्य कालोनी में खड़ी हुई वह एकमात्र कोठी अपने वैभव और शिल्प के कारण पूरे शहर की शान समझी जाती थी.वह कोठी अपने अन्दर रहने वाले के व्यक्ति के कलाकौशल,प्रकृतिप्रेम ,सह्रदयता ,वैभव और कवि मन का परिचय देती थी.पर कोठी के आस-पास और अन्दर तक एक गहरी निस्तब्धता छाई रहती थी,जो बरबस ही किसी को ठिठक जाने को विवश कर देती थी.एक दिन सहसा ही उस कोठी की उस गहन निस्तब्धता को भंग करते हुए एक टैक्सी कोठी के द्वार पर आकर रुकी.टैक्सी से एक सुदर्शन नौजवान निकला.उसकी कदकाठी और रोबदाब से पता चलता था कि वह सेना का कोई उच्च अधिकारी होगा.टैक्सी को वापिस भेजकर वह नौजवान कोठी की और बढा,पर कोठी को देखकर कुछ क्षणों के लिए ठिठककर खडा हो गया.शायद उसे भी उस रहस्यमय निस्तब्धता ने अपने मोहपाश में बाँध लिया था.एक आकर्षक युवक को कोठी के द्वार पर आया देखकर,माली दौडा-दौडा आया,"क्या काम है साहब?"
नौजवान मोहपाश से मुक्त होता हुआ बोला,"क्या यही प्रियम्बरा कोठी है?"
"हाँ,साहब यही है प्रियम्बरा कोठी.आपको किससे मिलना है?"
"..वह मुझे शरतचंद्र जी से मिलना है.क्या वह अन्दर हैं?"
"हाँ हैं तो सही,पर वह आपसे मिलेगें या नहीं,इस बारे में कहना मुश्किल है.इस वक़्त वह किसी से नहीं मिलते हैं."पर माली यह भी समझ रहा थाकि यह युवक कहीं दूर से आया है,इसलिए बोला,"वैसे आपका क्या नाम है साहब?"
"मेरा नाम शिशिर है.पर तुम्हारे मालिक मुझे नहीं पहचानते हैं और ही मैं उन्हें पहचानता हूँ.फिर भी मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है."यह कहते हुए शिशिर ने जेब में से एक लिफाफा निकला और असमंजस में पड़े माली को देते हुए कहा,"यह लिफाफा तुम उन्हें दे दो,शायद वह मुझसे मिलना चाहे."
माली शिशिर को उद्यान में बैठकर अन्दर चला गया.
अन्दर राजस्थानी और मधुबनी शैली में सजी बैठक में टेपरिकार्डर पर रविशंकर का सितार गूंज रहा था.वहीँ पास में सोफे में धंसा शहर रईस का शरतचंद्र बैठा था.वह सामने मेज पर पैर फैलाए हुए अपने काग़जों में व्यस्त था.उसने आहट सुनकर बिना पलटे ही पूछा,"क्या है?"
"मालिक,कोई नौजवान आपसे मिलने आया है."
"कह दो,अभी हम नहीं मिलना चाहते."
"जी,वह तो कह दिया.पर उसने यह लिफाफा दिया और कहा कि इसे अपने मालिक को दे दो,शायद वह....."
माली की बात अधेड़ शरतचंद्र के पलटने के साथ ही अधूरी रह गई.ऐनक के पीछे से दो प्रौढ़ आँखों को अपनी और ताकता देख माली से आगे कुछ कह गया.
तब शरतचंद्र का ठंडा स्वर गूंजा,"लाओ लिफाफा दो."
माली ने झट से लिफाफा उनके हाथों में थमा दिया और फिर वहीँ रुककर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा.
शरतचंद्र ने लिफाफे को घूम-फिरा कर देख और फिर उसे खोल दिया.अन्दर तीन पन्नों का पत्र था.उसकी लिखावट देखकर शरतचंद्र चौँक गए.उन्होंने तेजी से पत्र के सभी पन्ने पलट डाले और भेजने वाले का नाम-पता पढ़ा.फिर माली की और देखते हुए बोले,"उसे अथिति-कक्ष मेंठहराओ.गोपाल से कहो कि वह उसके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करे.मैं अभी वहीँ आता हूँ."
माली आज्ञा पाकर लौट गया.
इधर शरतचंद्र ने फिर एक बार अपनी दृष्टि उस पत्र की सुन्दर लिखावट पर डाली,'आज इतने वर्षों के बाद.....तुम भी किसलिए."
पत्र में लिखा था;
आदरणीय शरत जी,
शरत जी आंखे भर आई,सोचने लगे,प्यार की प्रौढ़ता में आदर का ही स्थान सुरक्षित है.शेष तो जैसे चूक जाता है.आज तुम भी उसे बूढे हुए प्यार संबोधित कर रही हो. वह आगे पढ़ने लगे.
आज आपको अचानक मेरा पत्र इस तरह पाकर आश्चर्य होगा.
आश्चर्य...एक गंभीर मुस्कराहट शरतचंद्र के होंठों पर छा गई.बुदबुदाये,'आश्चर्य रहस्य से उपजता है.रहस्य चमत्कार से और तुम तो मेरे लिए रहस्य और चमत्कार दोनों ही थीं.
आज से वर्षों पहले जब हम-तुम साथ थें....तब एक दिन !
तब एक दिन ही क्यों ....मैं तो तुम्हारे साथ हर पल था-प्रतिदिन था.उस पहले दिन भी जब मैंने तुमसे अनजाने में दुर्व्यवहार किया था और तुम तो नाराज़ हुईं और ही कुछ कहा.सिर्फ चुप रहीं और तुम्हारी वही चुप्पी मुझे अंतर्मन तक भेदती चली गई.तुम्हारा निशाना अचूक बैठा.मैंने स्वयं को कभी भी इतना उद्वेलित नहीं पाया था.अतः जब मैंने तुमसे माफ़ी मांगी,तब भी तुम चुप ही रहीं.
तब मुझे लगा कि मेरा यह अपराध अब कभी भी क्षम्य नहीं होगा,पर उसी समय तुम मुस्कुरा उठीं.यह वही क्षण था जब मैंने तुम्हे अपने दिल में बसा चुका था,हमेशा-हमेशा के लिए.धीरे-धीरे जाने कब हम एक-दुसरे से प्यार करने लगे,हमे खुद ही पता नहीं चल और हम अपनी एक अलग ही सृष्टि का निर्माण करने लगे.पर प्यार के घरोंदे एक-एक करके बिखर गए.तुम भी खो गईं और मैं भी भटक गया.हमारे लिए प्यार का अर्थ सिर्फ प्यार ही था.जहाँ भी हमे अवसर मिलता,हम अपने प्यार का इज़हार करने से नहीं चूकते थें.हमारे सभी मित्र हमारे उस दीवानेपन पर हँसा करते थें.साथ में प्रशंसा भी करते थें.
वह सब-कुछ तो अचानक ही घटा था.प्यार के शब्दकोष में तो वैसे भी पराजय कहीं पर नहीं होती है,वह तो हर हाल में जय ही होती है.
हवा में पत्र लहराया.शरतचंद्र अतीत की गलियों से निकलकर वर्तमान में गये.वह आगे पढ़ने लगे.
हमें किसी व्यक्ति ने अलग नहीं किया था.वह फैसला पूर्णता हमारा ही था.अपना था.वह हमारे ही नहीं हम लोगों जुड़े अन्य लोगों भविष्य का भी प्रश्न था....!
"हाँ,पर निर्णय लेने में हमने पूरे तीन घंटे लगा दिए थे." शरतचंद्र बड़बड़ाये,"शायद मेरी ही वज़ह से,क्योंकि तब मैं बहुत ही संवेदनशील हुआ करता था.साथ ही भावुकता ने भी पैर जकड़ लिए थे.जीवन की सच्चाईओं से दूर मैं सिर्फ तुम्हारे ही प्यार में डूबा हुआ था.तुम्हे खुद से अलग करने की कल्पना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक थी.ऐसे में तुमने वह सारी पीड़ा जैसे मुझे बाँट ली थी."
वह तीन घंटे खामोशी में डूबे हुए बीते थे.सिर्फ मन से मन की बातें हुई थीं और शब्द तो मानो किसी कोने में जाकर छिप गए थें,उन्हीं खामोश पलों में हम अपने प्यार को सदा-सदा के लिए जीवित रखने के लिए,अंततः अलग-अलग हो गए थें.
उस असहजता को भी तुमने इतना सहज बना लिया था कि पल भर को भी तुम्हारा विश्वास नहीं डिगा और उसी ठहरे हुए विश्वास का सहारा पाकर मेरा विश्वास भी तुममे बना रहा.उसके बाद कई बार मन तुम तक पहुँच ही जाता था,पर नहीं पहुँचा तो.....सिर्फ मैं.कितना मजबूर था मैं.
शरतचंद्र ने पत्र आगे पढ़ा.
तुम्हारा सपना था वायु-सेना में स्क्वार्डन-लीडर बनने का.किन्तु तुम डाक्टरी परीक्षा में असफल हो गए थे .तब तुम बहुत-बहुत आहत हो गएथे.उन्हीं आहत क्षणों में हमने अपने प्यार के स्वप्निल स्पर्श में एक सपना देखा था,तुमने उस दिन कहा था,हम अपने बेटे को वायु-सेना में भेजेगें.उस दिन तुमने मुझे अपनी बाँहों में भरकर कहा था,"चलो शादी कर लेते हैं.मुझे एक बेटा चाहिए,बहुत जल्दी...." और मैं शरमाकर तुम्हारी बाँहों में हसँती-मुस्कुराती रही.कितना भोलापन था.
फिर हम सब-कुछ भुलाकर उस भावी वायु-सैनिक के सपनें बुनने लगे थे.तुमने फिर एक दिन मुझसे आग्रह किया था,"चलो शादी कर लेते हैं......"पर मैं चुप रह गई थी और तुमने भी कुछ नहीं कहा और हम दोनों ही चुप रह गए थे.मुझे नहीं पता कि मैंने तुम्हारी संवेदनाओं का-भावनाओं का सम्मान किया था या मेरे ही मन के किसी कोने में उस भावी वायु-सैनिक को अपने गर्भ में उतारने तीव्र इच्छा रही थी.और शायद उसी स्वप्न को साकार करने के लिए हमने खुद को कब एकाकार कर लिया था ,हम जान ही नहीं पाए था,तब भी तुमने कहा था,"चलो अब शादी कर लेते हैं."
पर वह दिन कभी नहीं आया.हमे जीवन की नाजुक देहरी पर खड़ा देखकर,वर्षों से दबे पड़े जीवन के ढेरों प्रश्न,प्रश्नचिन्ह बनकर हमारे सामने खड़े हुए थे.और हमारी हर पराजय,हमारे प्यार की उस सनातन जय के आगे झुक गई थी,पराजित हो गए थे हम.
तुम्हारी शादी बड़ी धूमधाम से हुई थी.फिर हम दोनों ही अपनी-अपनी नई दुनिया बनाने में व्यस्त हो गए थे या व्यस्त रहने का बहाना करने लगे थे,आज क्या कहूँ नहीं जानती.क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे को वचन दिया था कि हम अब एक-दूसरे के जीवन में कोई दख़ल नहीं देगे और ही एक-दूसरे के बारे में जानने की कोशिश करेगें.तब भविष्य के प्रति,उस सुरक्षा के प्रति हम मनुष्य की मनःस्थिति अच्छी तरह जान चुके थे.
और शरत, मैं सब-कुछ भूल भी जाती.पर मेरी शादी के एक माह बाद मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि मेरे गर्भ में भावी वायु-सैनिक करवटें ले रहा है और अपने जनक का नाम पूछ रहा है.मैं तो घबरा ही गई थी.इस घबराहट को मेरे शक्की पति ने भी ताड़ लिया था.....!
"हाँ तब कितना बबेला मचा था,तब तुम्हे चरित्रहीन कहकर परित्यक्ता बना दिया था और मुझे अक्षम्य अपराधी."शरतचंद्र खुद से बोला,"तब तुम्हारेपूरे अस्तित्व का प्रश्न मेरे सामने अपनी अबोधता के साथ आया था.अदालत के कटघरों में उस अस्तित्व को बचाने के लिए कई बार गीता की झूठी कसमें भी खानी पड़ी थीं.कई बार चाहा कि सब सच स्वीकार कर लूँ और तुम्हे लेकर कहीं दूर चला जाऊं...पर तुमने ही चुप रह जाने को कहा था......और अंत में....!"
शरत,मैं तुम्हारा यह एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाउगीं कि किस तरह तुमने मेरे अस्तित्व को बचा लिया था,मुझे पूरी तरह नकारकर.मैं तुमसे कैसे उऋण हो पाउगीं,बरसों तक यही सोचती रही.जब शिशिर दस वर्ष का था,तब ही मेरे पति अपनी समूची दुनिया समेट कर चल बसे थे.जीवन एक बार फिर दोराहे पर था.तब मैंने अपने वैधव्य के अन्धकार में से एक सपना चुना कि अपने बेटे को वायु-सैनिक बनाउगीं-स्क्वार्डन-लीडर.
आज वही शिशिर अपना प्रशिक्षण पूरा करके कमीशन लेने जा रहा है.मैंने उससे कहा है कि जाने से पहले वो तुम्हारा आर्शीवाद लेकर जाए.उसे निराश मत करना.तुम्हारे आर्शीवाद से शायद मैं उऋण हो जाऊं..........
तुम्हारी
शुभचिंतक,
ममता
.

पत्र समाप्त होते-होते शरतचन्द्र की आँखे छलछला आईं,सोचने लगे," हे भगवान,यह कैसी परीक्षा की घडी आज मेरे सम्मुख गई है." वह उठे और उस स्क्वार्डन-लीडर से मिलने के लिए अथिति-कक्ष की और चल पड़े.

शरतचंद्र को देखते ही शिशिर उठ खड़ा हुआ.साथ ही सोचने लगा,"माँ ने सच कहा था,"बेटा, यह तुम्हारे पिता तुल्य हैं.तुम्हे स्क्वार्डन-लीडर बनाने का सपना उन्हीं का था." तो क्या यह यही वह रहस्यमयी पुरुष है.मैं जब-तब इनके विषय में सुनता आया हूँ माँ से.पहले-पहल को मैंने पूछा भी था कि माँ यह कौन हैं? और माँ ने भी बड़ी सहजता से उत्तर दिया था,बेटा,यह बहुत बड़े इन्सान हैं.इससे ज़्यादा माँ ने कभी कुछ नहीं कहा था और फिर मैंने भी धीरे-धीरे पूछना ही छोड़ दिया था.पर जब प्रशिक्षण पूरा हुआ तो माँ ने वह प्रसंग पुनः छेड़ा था.माँ के पैरों में झुकते ही माँ ने उसे कंधे से पकड़कर उठाते हुए कहा था,बेटा पहला आर्शीवाद उनका लेकर आओ.पहला अधिकार उन्हीं का है.उन्हीं का आर्शीवाद तुम्हरी माँ को ऋण मुक्त करेगा."
हैरान रह गया था मैं.आखिर माँ क्यों और किसलिए उस रहस्यमय पुरुष की बातें करती है और कौन-सा ऋण है,जिसका भार वह ढो रही है और उसका एक आर्शीवाद उसे इस ऋण से मुक्त कर देगा.वह लाख चाहकर भी नहीं समझ पा रहा था,पर माँ की बात तो माननी ही थी....सो.

"बैठो बेटा." शरतचंद्र का स्वर गूंजा.
और जैसे जड़ बने शिशिर का सम्मोहन टूटा.वह तुंरत आगे बड़ा और उस अनजान-रहस्यमयी पुरुष के चरणों में आर्शीवाद के लिए झुक गया.शरतचंद्र भावुक हो उठे,वह जिन आँसुओं को पौछ्कर यहाँ आये थे,वह पुनः निकल पड़े.उन्होंने शिशिर को गले से लगा लिया और आर्शीवाद देते हुए बोले,"मेरे बेटे खूब खुश रहो और चिरंजीवी भवो." फिर शिशिर के दोनों कंधे पकड़कर आँखों के सामने करते हुए बोले,"हूँ,मुझसे भी लम्बा,मुझसे भी सुन्दर,मुझसे भी ज़्यादा स्वस्थ्य.बेटा,तुम्हे प्रकृति ने भारतीय वायु-सेना के लिए ही गढा है.अपने देश का-अपनी माँ का नाम रोशन करो.मुझे तुम पर गर्व है."
एक बार फिर शरतचंद्र ने उसे अपने अंक में भार लिया.
शिशिर किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया.इतना अपनापन,इतनी भावुकता,उसे अपनी माँ की ममता के बाद आज यहाँ ही इस व्यक्तित्व में पाई थी.वह स्वयं जाने क्यों भावुक हो उठा था.पल भर में ही जाने उसे क्या हो गया था.कुछ भी कह पाना उसके लिए असंभव था.शरतचन्द्र को लेकर उनसे जाने कितने स्वप्न देखे थे.कितनी उत्कंठा और उत्सुकता थी उसमें इस बड़े इन्सान से मिलने की.अब उसे क्या कहकर संबोधित करे,वह समझ नहीं पा रहा था.
शिशिर तो वहाँ से तुंरत निकल जाने के लिए आया था,पर अब जाने का कह नहीं पा रहा था और उधर शरतचंद्र भी उससे रुकने का नहीं कह पा रहेथे.दोनों ही भावनाओं के एक ही धरातल पर थें.
"शिशिर,आज तुमने मेरा एक बड़ा महत्वपूर्ण सपना पूरा कर दिया है.आज मैं कितना खुश हूँ बता नहीं सकता.अब तुम कहीं मत जाना.यही मेरे पास आकर रहो."शरतचंद्र भावुकता में कहे जा रहे थे.
तब शिशिर साहस करके इतना ही कह पाया,"मुझे कल ही इंदौर जाना है,वह माँ से मिलकर फिर जोधपुर कमीशन लेने जाना है."
तब शरतचंद्र ने उसे अगले दिन तक के लिए रुक जाने का आग्रह किया और शिशिर नहीं कर सका.
रात को खाने की मेज पर व्यंजनों की विविधता देखकर वह चकित रह गया.उसने जीवन में इतने व्यंजन कभी भी नहीं देखे थे,वह भी एक साथ तो कभी भी नहीं.अभी वह इस मनःस्थिति से उबर भी नहीं था कि शरतचंद्र ने उसके गले में एक सोने की चैन लाकर डाल दी.बोले,"बेटा,यह चैन मैंने वर्षों पहले एक-एक पैसा जोड़कर खरीदी थी,शायद इसी दिन के लिए..."
उसके बारे में कुछ भी जानते हुए,वह रहस्यमय पुरुष शिशिर को अपना-सा लगने लगा था.'बेटा' संबोधन संगीत बनकर उसकी रग-रग में उतरता जा रहा था.शिशिर ने पुनः शरत जी के पैर छू लिए.खाने के दौरान कोई भी नहीं बोला.शरतचंद्र खाना खाते समय बोलना पसंद नहीं करते थे.खाने के बाद काफी पीते हुए शरतचंद्र बोले,"बेटा,तुम्हारी माँ ने बहुत दुःख उठाए हैं. उसने अपने जीवन में कठोर से कठोर प्रहार सहे हैं,जो किसी भी नारी को तोड़ने के लिए काफी होते हैं.पर वह टूटी नहीं,उसने इन सबको एक चुनौती की तरह लिया और उसे बड़े साहस के साथ जीया भी.मैं बस यही चाहता हूँ कि तुम उसे कभी-भी कोई भी दुःख मत देना.उसकी सारी उम्मीदे तुम पर ही टिकी हैं.उसने आज तक कभी-भी किसी से कोई मदद नहीं ली है,यहाँ तक की उसने मुझसे भी कोई मदद नहीं ली."
यह सुनकर शिशिर चौका.अगर माँ ने इनसे कोई मदद नहीं ली है तो फिर माँ किस ऋण से मुक्त होना चाहती है.शिशिर तो माँ को समझ पा रहा था और ही इस पुरुष को.वह तो इन दोनों के विचित्र संबंधों में उलझकर रह गया था.
वही शरतचंद्र कह रहे थे,"उसके हिस्से में ढेरों,दुःख,उलहाने आये हैं.सुख के रूप में सिर्फ तुम ही उसके हाथ लगे हो.अपना वैधव्य भी उसने चुपचाप स्वीकार कर लिया.तुम्हे ही उसने अपनी हर आशा का केंद्र बना लिया.दुखो से लड़ने की उसमे अद्भुद शक्ति है.पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि वह भी थक चली होगी मेरी तरह."
थोडी देर के शरतचंद्र रुका,जैसे किसी गहरे विस्मृत अवसाद कूप का ढक्कन खुल गया हो और वह उसमें डूबता जा रहा हो.फिर वही डूबी हुई आवाज़ उभरी,"अब उसे कोई दुःख मत पहुँचाना."
शिशिर अपनी माँ,ममता का दुलारा था.उसे मनप्राण से चाहता था.फिर भी उस कातरता के आगे नतमस्तक हो गया.उसने बचपन से ही देखा था कि उसकी माँ ने किस तरह से अपने पति का-अपनी ससुराल का हर अत्याचार सहा था और कभी भी प्रतिकार नहीं किया,सब चुपचाप ही सहती रही थी वह.एक क्षण पति बरसता-गरजता तो वह दूसरे क्षण से ऐसे काम में लग जाती जैसे वह क्षण उसके पास आया ही नहीं हो.और वैधव्य के बाद तो और गहरे जाकर चुप हो गई थी.उसने देखा था कि माँ किस तरह से उसे बड़ा करने में जी-जान से जुट गई थी.
शिशिर भी अपनी माँ से बहुत प्यार करता था.
आज तो उसने स्वयं से एक वादा भी कर लिया था कि आज से माँ का हर दुःख उसका ही होगा और उसके सारे सुख माँ के होगें.मन ही मन यह वादा उसने उस रहस्यमय पुरुष से भी कर लिया था.
अचानक शिशिर को लगा कि उसके हाथों में इस विचित्र संबंधों की पहेली का एक हिस्सा अनजाने में खुल गया है.वह क्षण भर को चकित रहगया."तो क्या....?" शिशिर के मन में उथल-पुथल मच गई.वह रोमांचित हो उठा,"कितना पवित्र सम्बन्ध रहा होगा यह."
पर अभी भी बहुत कुछ अबूझ-सा रह गया था,जिसे समझने की कोशिश शिशिर चाहकर भी नहीं कर सका.
शरतचंद्र भावुकता से उभरे तो फिर वह बालसुलभ जिज्ञासा के साथ शिशिर से उसकी पढाई,प्रशिक्षण अदि के बारे में पूछता रहे अरु शिशिर भी मानो सम्मोहन में बंधा उत्तर देता रहा.यह सिलसिला अबाध रूप से जाने कब तक चलता रहता,यदि नौकर गोपाल उन्हें आकर सोने के लिए नहीं पूछता.
बिस्तर पर लेता शिशिर देर रात तक सोचता रहा.शरतचंद्र ने अपने विषय में बताया था कि किस तरह उन्होंने दिन-रात एक करके बिजनेस मेंयह छोटा-सा साम्राज्य खड़ा किया था.शादी देर से हुई थी.पहली बच्ची के बाद ही पत्नी नहीं रही.फिर उस छोटी-नन्ही बच्ची को ही गले से लगाये वह अपनी जीवन-यात्रा तय करते रहे.
कई बार लोगों ने छोटी बच्ची का हवाला देकर उनसे दूसरी शादी के लिए भी कहा,पर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुए.आज तक ऐसे ही निर्बाध रूप से जीवन व्यतीत करते चले रहे हैं.
"अब वह नन्ही बच्ची बड़ी हो गई है.बड़ा प्यारा नाम है उसका - उत्तरा .हाँ वह तुम्हारी छोटी बहन है.अभी छुट्टियों में अपनी नानी के यहाँ गई हुई है.जब आएगी तो तुमसे मिलवाऊगाँ ."यही कहा था उन्होंने.
शिशिर यह सुनकर भी रोमांचित हो गया था.छोटी बहन.क्या कहता वह.

जब दुसरे दिन दोपहर के भोजन के बाद शिशिर चलने लगा तो तो द्वार तक उसे विदा करने आये शरतचंद्र ने उसके हाथों में एक चेक थमा दिया,पूरे ग्यारह लाख का चेक था.हतप्रभ रह गया था शिशिर.अनायास ही उसके मुहँ से निकला,"यह क्या है?"
मुस्कुराते हुए शरतचंद्र बोले,"यह एक भेंट है मेरे बेटे को,जिसे उसे लेते हुए कोई हिचक नहीं होनी चाहिए."
"पर मैं माँ से पूछे बगैर ...."शिशिर फिर भी हिचकिचाया.
उसकी बात बीच में ही काटकर वह बोले,"मैं यह भेंट तो ममता को और ही उसके बेटे शिशिर को दे रहा हूँ,मैं तो यह भेंट देश के एक होनहार स्क्वार्डन-लीडर को दे रहा हूँ."फिर वह भावुक स्वर में बोले,"बेटा,तुम हमारे हजारों देखे गए सपनों में से वो सपना हो,जिसे हम सच कर पाए हैं.अब तुम्हारा काम इस सच को बनाये रखने का.वैसे भी एक दिन मैं अपनी समूची दुनिया तुम लोगों के लिए छोड़ ही जाउगां.यह तो केवल एक छोटी-सी भेंट भर ही है.
दोनों के बीच चुप्पी छा गई.क्या कहता शिशिर,वह समझ नहीं पा रहा था.माँ ने यह किस दुविधा में डाल दिया है.यहाँ ऋण चढ़ रहा है या उतर रहाहै,वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.कितना विचित्र है यहाँ सब-कुछ.सच ही कहते हैं लोग कि यह कोठी रहस्यों से भरी हुई है.यहाँ मेरी एक छोटी बहन भी है,जिसे मैंने देखा भी नहीं है,जिसे मैं जानता तक नहीं था,पर अब वही बहन शब्द मानो मेरी नस-नस में उतरता चला जा रहा हो.कहीं माँ बुरा तो नहीं मान जायेगी.माँ ने हमेशा ही उसे अजनबियों से कुछ भी लेने को मना किया है.पर क्या यह माँ के लिए अजनबी हैं या जैसा कि माँ अक्सर कहा करती है-बड़ा इन्सान.यह किस बंधन में बांध दिया है माँ ने मुझे. अब मैं क्या करूँ.अपनी विचारों की श्रृंखला से बाहर आते हुए शिशिर बोला,"अच्छा अब चलता हूँ."
"हाँ बेटा,पर अब आते रहना.मालिक को कभी इतना खुश नहीं देखा,जितना तुम्हारे आने के बाद देखा है."सहसा ही पास खड़ा माली बोल पड़ा.
"देखो,भगतराम भी मेरा समर्थन कर रहा है."हसँते हुए शरतचंद्र बोले.
शिशिर ने पुनः झुककर शरतचंद्र के पाँव छू लिए.थोडी देर तक दोनों आलिंगनबद्ध होकर खड़े रहे.शिशिर उस आलिंगन में अब पूर्ण अपनापन महसूस कर रहा था.

कार शिशिर को लेकर चली गई.

शरतचंद्र भी अपने मन की गहराइयों में खो गए.अतीत के जाने कितने पल,कितनी स्मृतियाँ,कितने सुख-दुःख मन को मथने लगे,कार को आँखों से ओझल होते देख बरबस ही उनके मुहँ से निकल गया,"ममता, तुम तो मुझसे उऋण हो गईं.पर अब मैं तुमसे कभी भी उऋण नहीं हो सकूँगा."

=================== समाप्त =================


सोमवार, 27 अप्रैल 2009

मेरा कथा-संसार.

(कहानी) अर्चना

वो सुबह ,शायद अन्य सभी सुबहों से कहीं अलग थी,जब जलज को जीवन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान के दर्शन हुए थे.जलज के लिए वह सुबह भी उसके जीवन के बीते चौबीस सालों की तरह ही गुजर जाती यदि उसे उस दिन सुबह वह सांवली-सी लड़की कोटरा के बस-स्टाप पर नहीं मिलती.कंधे पर स्कूल बेग लटकाए,गहरी काली आँखों से उसने जलज को देखना शुरू किया तो जलज को लगा कि मानों वह उसके अन्दर कुछ ढूंढ़ रही हो और फिर जैसे वह सांवला उसमें ही खोने लगा हो और जलज भी, जो पहले तो थोड़ा असहज महसूस कर रहा था,वह भी उसमें कुछ खोजने लगा.उसका धड़कता मन कहने लगा,"जलज यही है तेरा प्यार."
फिर तो सब यंत्रवत-सा हुआ.कब बस-स्टाप पर बस आई और कब वह दोनों उसमें चढ़े,उन्हें पता ही नहीं चला और कब जवाहर चौक आ गया और..... ! जलज को जाना था कहीं और और वह पँहुच गया उस सांवली-सलोनी के स्कूल.यह भी कैसे हुआ और कब हो गया यह भी पता नहीं चला.फिट तो यह सिलसिला चल पड़ा.जलज रोज़ कतरा के बस-स्टाप पर पँहुच जाता,फिर दोनों वहीँ से बस में चदते और फिर एक-दुसरे को देखते-देखते सफ़र तय कर डालते.
फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह....फिर शाम....! आखिर एक दिन दोनों का परिचय भी हुआ.दोनों मुस्कुरा भर दिए.नाम के अलावा और क्या परिचय हो सकता था,फिर मिले भी कुल दो-चार सेकेण्ड थें.हर समय धीर -गंभीर बनी रहने वाली वह आज ही तो मुस्कुराई थी.अब हर सुबह जलज कोटरा बस-स्टाप पर होता और शाम उसकी यादों के साथ होता.जलज हमेशा हर काम में ध्यैर्य रखने वाला,उस दिन शाम को उसे अकेला पाकर,अपने को संभल नहीं पाया,बोल उठा."अर्चना....मैं तुमसे प्यार करता हूँ.....!"
और वह लड़की,वो अर्चना,विधायक आवास गृह के पास फुटपाथ पर मानो उसकी फर्शियां गिनती हुई चल रही हो.पल भर के लिए उसकी गहरी-काली आँखें उठी और फिर झुक गई उन्हीं फर्शियों पर.कोई उत्तर नहीं दिया और कोई उत्तर न पाकर जलज और धड़क उठा,और असहज हो उठा.पर सिलसिला यहीं नहीं रुका.कभी उन फर्शियों को गिनते-गिनते,कभी जवाहर चौक से नेहरु नगर तक बस और टेंपो के चक्करों जलज कहीं न कहीं प्यार के धागों में मोती के मनकों की तरह उलझ गया था.और उधर वो अर्चना भी.....पता नहीं,वो तो चुप ही थी.जलज जान नहीं पा रहा था कि उसकी धड़कनों में भी वो तूफान उमड़ रहा है या नहीं जो उसका जीना मुश्किल किये हुए है.हर बार जलज मौका पाकर कहता,"अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ." हर बार अर्चना चुप रह जाती.
जलज प्रति दिन अपना धड़कता मन लेकर घर से निकलता और धड़कता मन लेकर ही लौट आता.सोचता,यह अर्चना किस दिन मुझसे कहेगी,"हाँ जलज...मेरे जलज....मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ,जितना कि तुम मुझे...."इस तरह जलज अर्चना के सपने देखता और सपने में अर्चना को देखता.हर वक़्त उसकी यादों-उसकी कल्पनाओं में खोया-खोया रहता.कल्पना और सपनों के धरातल पर नित्य नये सपने बुनता रहता-नई बातें करता रहता.उसे लगता,क्या अर्चना भी सपने में मुझे देखती होगी ?यूँ तो करने को ढेरों बातें थी करने को उसकी जिंदगी में,पर अब मनो सब अस्त-व्यस्त हो गया हो.क्या प्यार के आगे दुनिया कुछ भी नहीं है?
एक दिन - एक सुबह हजारों बार की तरह जवाहर चौक पर जलज कह उठा,"सुनो अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ."
पहली बार अर्चना बोली,"एक ही वाक्य हज़ार बार कहने से क्या अर्थ है?"
"ताकि तुम भी कहो की जलज मुझे भी तुमसे प्यार है."
वह हंस पड़ी,"कभी आईने में अपनी सूरत देखी है?"
अधीर जलज ने कहा,"हाँ अर्चना, तुम्हारी इन गहरी काली आँखों में मैंने कई बार अपने को देखा है.अब तुम कभी आईने के सामने कड़ी होकर देखना,अपनी ही इन गहरी काली आँखों में झाँकना,,,,तुम मुझे वहीँ पाओगी."
"..........................."
"तुम अब चुप क्यों हो गई अर्चना...."
"तुम्हारे इस पागलपन का क्या जबाब दूँ,यही सोच रही हूँ."
धड़कते मन वाले जलज ने कहा,"कुछ मत सोचो......कोई जबाब मत दो.बस मुझे इतना भर बता दो कि तुम मुझसे प्यार करती हो,बिलकुल वैसे ही जैसे मैं कह देता हूँ."
अर्चना चिहुंक उठी,"मैं क्यों करूँ तुमसे प्यार.क्या तुम्हे कोई और लड़की नहीं मिली?"
हवा में मुक्का-सा लहरता हुआ जलज बोला,"हाँ, बहुत सी लड़कियां मिली,पर उनमें से किसी के पास भी तुम्हारी तरह गहरी काली आँखें नहीं थीं,उनमें से कोई भी अर्चना नहीं थी."
"तो ढूंढ़ ली,ऐसी लड़की तो कहीं भी मिल जायेगी."
"अब मैं तुमसे आगे नहीं जाना चाहता हूँ."जलज ने धीर-गंभीर स्वर में कहा.
"तो मत जाओ....पर इतना जन लो कि मैं भी तुमसे प्यार नहीं करती हूँ."
यह सुनकर जलज आहत हो गया,फिर उसी आहत मन से बोला,"अच्छा चलो तुम मुझसे प्यार मत करना......कभी मत करना.पर अर्चना, मेरी इस बीती-ताहि ज़िन्दगी में केवल एक ही इच्छा है कि तुम मुझे प्यार करो...पल भर के लिए ही...झूठा ही सही.....पर मुझे प्यार करो.बस एक बार सिर्फ झूठमूठ ही सही,पर मुझे प्यार करो अर्चना,इससे आगे मेरी और कोई इच्छा नहीं है."
"............."और फिर मानो अर्चना के पास कहने को कुछ भी नहीं रह गया हो.

उस शाम सूरज बहुत ही तन्हा होकर डूब गया.जलज बड़े तालाब के किनारे खडा-खडा उसे डूबता हुआ देखता रहा.देखता रहा और सोचता रहा कि क्या अर्चना उससे सचमुच प्यार नहीं करती है.क्यों प्यार नहीं करती है,क्या कमी है उसमें.क्या अर्चना उसे एक झूठा पल भी नहीं दे सकती है,वह पल जिसे पाकर वह तृप्त हो जायेगा-कृतार्थ हो जायेगा......शायद यही उसका मोक्ष भी हो.
सोचते-सोचते बड़े तालाब के किनारे रह गया लहरों का करतल और उसका उदास मन.और रह गए जीवन के ढेरों प्रश्न,जिनका उत्तर वह ढूंढ़ नहीं पाया था या उत्तरों की उन टेडी-मेढ़ी पगडंडियों में कहीं उलझकर रह गया था.क्या प्यार म कोई असफल होता है.....लहरों का करतल वहीँ छोड़कर जलज अपना उदास मन लिए घर लौट चला.
जलज,वह पागल फिर सपने बुनने लगा.पल-दर-पल....अनगिनत पल तो जलज ने सपने देखकर ही गुजार दिए.वह नियमित रूप से जवाहर चौक पहुंचता,फिर बस या टेंपो से कोटरा तक.कोशिश करता कि अर्चना उसके सामने ही बैठे और ऐसा होता भी,वह भी उसके सामने ही आकर बैठती.कभी वह उसे देखता और कभी अर्चना अपनी गहरी काली आँखों से उसे देखती.कभी दोनों इतने क़रीब होते कि जलज को लगता कि अभी अर्चना का हाथ पकड़कर चूम ले-कभी इस तरह क़रीब होते कि साँसों से साँसें टकराती-सी महसूस होती और जलज को लगता कि वह उसके भाल पर एक चुम्बन टाँक दे और जिस एक झूठे पल की प्रतीक्षा में जी रहा है उसे यूँ ही सही-जबरदस्ती ही सही पर सचमुच जी ले.
उसने फिर कई बार अर्चना को उस एक पल की याद दिलाई,पर हर वह हँसकर टाल जाती,कहती,"ऐसी भी जल्दी क्या है,सोचो,अगर वो पल आया तो उस पल को गुजरते हुए कितना समय लगेगा.फिर क्या करोगे?"
जलज कहता,"तब मैं उस पल को अपनी मुठ्ठी में क़ैद कर लूगाँ,ऐसे....." और फिर वह मुठ्ठी बनाकर दिखता.
अर्चना हँस पड़ती,"मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी ठहरा है कहीं आज तक जो तुम यह सब करने चले हो.पागलपन है यह.अपना पागलपन कम करो.ऐसा कहीं होता है?"
जलज भी पलट कर कहता,"अरे अर्चना तुम मुझसे प्यार तो करो,मैं तुम्हे मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी भी ठहराकर दिखाऊगाँ."
"पर वह पल तो झूठा होगा."
"झूठा ही सही,पर तुम मुझसे प्यार तो करो."


ऐसे ही जब अंगड़ाईयों पर अंगड़ाईयाँ लेते हुए मौसम पर मौसम बीत चले,तब एक स्वर्णिम सुबह के बाद.....एक सुनहरी श्यामल शाम के बाद,जब चिर-प्रतीक्षित धड़कती सुहागरात आई तो,जलज ने अर्चना का घूँघट उठाकर कहा,"चलो,आज तुम मुझे पल भर के लिए ही सही,झूठा ही सही,पर प्यार करो....."
अर्चना का सर्वांग लजा उठा,वह जलज के इस तरह छेड़ने पर बोली,"जलज,वह झूठा पल मेरी ज़िन्दगी में न पहले कभी आया था और न ही कभी आएगा."
"क्यों....?"जलज ने आश्चर्य से पूछा.
"क्योंकि झूठा प्यार पाने की-करने की तुम्हारी इच्छा थी और मैं,यदि मुझे किसी से प्यार करना ही है तो मैं उसे झूठा प्यार क्यों करूँ...." अपनी उन्हीं गहरी काली आँखों से,जिसमें जलज डूबा हुआ था,जलज की प्यार भरी-प्रश्न भरी आँखों में झाकते हुए अर्चना बोली,".........उसे सचमुच ही प्यार करूँ न.जलज....."
"........"
"जलज....."
"हूँ.......!"
"जलज,मैं तुमसे प्यार करती हूँ....."अर्चना लाज से और सिमट गई यह कहकर.
फिर आने वाले कई पल चुप,गुपचुप गुजरे,पर खाली नहीं.आज जलज के सामने था एक आश्चर्य,वही शब्द,वही शब्द,वही आवाज़,वही अंदाज़,वही चेहरा.....जिसकी उसे न जाने कितने युगों से प्रतीक्षा थी,जिसका वह आराधक था.उसका वही प्यार,वह पल भी अब किसी एक पल के लिए नहीं वर्ण जन्म-जन्मान्तर के लिए उसके पास थें,उसके अपने बनकर.कोई प्यार क्यों करता है,मुठ्ठी में रेत या छन्नी में पानी जमता है या नहीं.....अब जलज और अर्चना दोनों ही इन सवालों से बहुत दूर थें.सितारों भरी-चांदनी से नहाकर आई इस गुजरती रात में गुजरते चुप पलों की चुप्पी तोड़ते हुए जलज बोला,"अर्चना......"
"हूँ बोलो......"
"अर्चना....."
"हूँ..........."
"अर्चना......"
"..............."
"................"



फिर सुबह होने तक दोनों प्रेमी चाहकर भी कुछ न कह सके.
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मंगलवार, 31 मार्च 2009

हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिकल फिल्में......

आज मैं बात कर रहा हूँ हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की.यह वो फिल्में हैं जिन्हें देखना एक सुखद अनुभव होता है और बार-बार देखने की इच्छा बनी रहती है.और यदि बार-बार देखने को न मिले तब भी यह फिल्में आपके अंतर्मन में चलती ही रहती हैं और जब भी फिल्म की शास्त्रीयता की बात होती है तो इन्हीं चंद फिल्मों का नाम ज़ुबान पर आता है.इन्हें आप फिल्मों का जादू भी कह सकते है और यदि फिल्मों को परिभाषित करना हो तो तब भी यही फिल्में सामने आती हैं.फिल्मों का यदि कोई स्कूल हो तो तब भी वो यही फिल्में होगीं जो उस स्कूल का प्रतिनिधित्व करेगीं.
एक शास्त्रीयता में ढली-रची-बसी यह फिल्में,सुन्दर-सुघड़ सौन्दर्य का जीवंत उदहारण प्रस्तुत करती हैं.फ्रेम-दर-फ्रेम फिल्म कुछ यूँ आगे बढती हैं कि देखनेवाला अपने को भूलने लगता है और जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह उसके जीवन का स्थाई भाव बन जाती है.उसे लगता है कि वह फिल्म देखकर नहीं वरन उसे जीकर आ रहा हो या उसे लगता है कि अरे यह तो उसी पर बनी है,उसी के परिवेश की बात कह रही है.कितना सच कहा गया है,कितना अपनापन है,कितना आंदोलित करती है,हाँ समाज को बदलना ही होगा.अब यह सब नहीं चलेगा.ऐसी ढेर सारी बातें उस देखने वाले के मनो-मस्तिष्क में चलती ही रहती हैं.यह फिल्में एक अलग छाप छोड़ती हैं.
क्या ऐसी कोई फिल्म आपको याद आ रही है,क्या कहा हाँ......पता नहीं.....नहीं.....,चलिए मैं ही बताये देता हूँ.मैंने हिंदी फिल्मों की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की सूची तैयार की है,जो आज भी अपनी एक अलग जगह रखती हैं और एक फिल्म बनाने वाले के लिए यह फिल्में आज भी एक श्रध्दा का भाव रखती हैं और एक ऐसी क्लासिक देने की चाह उस हर व्यक्ति के मन में होती है,जो कहीं-न कहीं फिल्म के निर्माण-निर्देशन से जुड़ा हुआ है.प्रस्तुत है यह सूची -
१. अछूत कन्या -
अपने दौर की बाम्बे टाकीज की वो क्लासिक है,जिसका जबाब आज भी कहीं नहीं है.
२. आदमी -
व्ही.शांताराम की सबसे क्लासिक कृति है यह फिल्म और अपने दौर की एक बोल्ड प्रेम कहानी भी है.
झाँसी की रानी -
सोहराब मोदी का ऑपेरा,पारसी थियेटर की शैली,इस जादू का आज भी तोड़ नहीं है.इतिहास की ऐसी प्रस्तुति आज संभव नहीं है.
४. दो बीघा ज़मीन -
यह फिल्म उस दौर में जितनी जीवंत थी,आज उससे कहीं ज़्यादा जीवंत है.प्रगति के तमाम पायदानों के ऊपर बैठे हुए हम लोगों के नीचे आज भी असंख्य लोगो के लिए दो बीघा ज़मीन के लिए संघर्ष वैसा का वैसा ही है
५. जागते रहो -
आरके की यह फिल्म.सिर्फ़ फिल्म ही नहीं समाज का आइना भी है,जो आज भी वैसा ही है.बल्कि आज तो यह आइना और भी कारपोरेट हो गया है.
६. बंदिनी -
नहीं देखी हो देख लें और प्रेम की पावन उत्कंठा को अपनी आत्मा तक महसूस करें.मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस प्रेम की बेकरारी आप अपने लिए भी चाहेगें.
७. देवदास -
के.एल.सहगल और दिलीप कुमार दोनों जैसे एक ही धारा के दो रूप हों,जैसे एक राग-दो रागनियाँ हों.
८. तीसरी कसम -
जीवन कितना भोला और मासूम हो सकता है कि हम सब हीरामन हो जाना चाहेगें.
९. साहब-बीवी और गु़लाम -
इस फिल्म की विशेषता यही है कि इस पर बोलना-लिखना आसान लगता है,पर है मुश्किल.पर गुरुदत्त का ही हो जाने का जी चाहता है.करीब १३०० पन्नों के उपन्यास को तीन घंटे के रूपक में बदल देना और वो भी मूल कहानी और उसकी आत्मा से बिना छेड़छाड़ किये हुए अदभुद है अदभुद.
१०. शतरंज के खिलाडी -
प्रेमचंद की कलम का जादू तो है ही पर सत्यजीत राय का जादुई स्पर्श इस कहानी को इतिहास में बदल देता है.
मैं जानता हूँ कि सिर्फ़ दस फिल्मों को इस तरह शामिल करना स्वयं के साथ ही नहीं सिनेमा की रचनाधर्मिता के साथ भी अन्याय ही है,पर यह तो शुरुआत भर है.उक्त सूची को पढ़कर आपके ज़ेहन में भी ऐसी कई फिल्मों के नाम चलचित्र की तरह उभर रहे होगें जो इस सूची में शामिल नहीं हैं, पर आप उन्हें मुझसे शेयर कर सकते हैं.
आज इतना ही,
शेष फिर......!