सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 4 मई 2009

मेरा कथा-संसार.

उऋण


शहर की धनाड्य कालोनी में खड़ी हुई वह एकमात्र कोठी अपने वैभव और शिल्प के कारण पूरे शहर की शान समझी जाती थी.वह कोठी अपने अन्दर रहने वाले के व्यक्ति के कलाकौशल,प्रकृतिप्रेम ,सह्रदयता ,वैभव और कवि मन का परिचय देती थी.पर कोठी के आस-पास और अन्दर तक एक गहरी निस्तब्धता छाई रहती थी,जो बरबस ही किसी को ठिठक जाने को विवश कर देती थी.एक दिन सहसा ही उस कोठी की उस गहन निस्तब्धता को भंग करते हुए एक टैक्सी कोठी के द्वार पर आकर रुकी.टैक्सी से एक सुदर्शन नौजवान निकला.उसकी कदकाठी और रोबदाब से पता चलता था कि वह सेना का कोई उच्च अधिकारी होगा.टैक्सी को वापिस भेजकर वह नौजवान कोठी की और बढा,पर कोठी को देखकर कुछ क्षणों के लिए ठिठककर खडा हो गया.शायद उसे भी उस रहस्यमय निस्तब्धता ने अपने मोहपाश में बाँध लिया था.एक आकर्षक युवक को कोठी के द्वार पर आया देखकर,माली दौडा-दौडा आया,"क्या काम है साहब?"
नौजवान मोहपाश से मुक्त होता हुआ बोला,"क्या यही प्रियम्बरा कोठी है?"
"हाँ,साहब यही है प्रियम्बरा कोठी.आपको किससे मिलना है?"
"..वह मुझे शरतचंद्र जी से मिलना है.क्या वह अन्दर हैं?"
"हाँ हैं तो सही,पर वह आपसे मिलेगें या नहीं,इस बारे में कहना मुश्किल है.इस वक़्त वह किसी से नहीं मिलते हैं."पर माली यह भी समझ रहा थाकि यह युवक कहीं दूर से आया है,इसलिए बोला,"वैसे आपका क्या नाम है साहब?"
"मेरा नाम शिशिर है.पर तुम्हारे मालिक मुझे नहीं पहचानते हैं और ही मैं उन्हें पहचानता हूँ.फिर भी मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है."यह कहते हुए शिशिर ने जेब में से एक लिफाफा निकला और असमंजस में पड़े माली को देते हुए कहा,"यह लिफाफा तुम उन्हें दे दो,शायद वह मुझसे मिलना चाहे."
माली शिशिर को उद्यान में बैठकर अन्दर चला गया.
अन्दर राजस्थानी और मधुबनी शैली में सजी बैठक में टेपरिकार्डर पर रविशंकर का सितार गूंज रहा था.वहीँ पास में सोफे में धंसा शहर रईस का शरतचंद्र बैठा था.वह सामने मेज पर पैर फैलाए हुए अपने काग़जों में व्यस्त था.उसने आहट सुनकर बिना पलटे ही पूछा,"क्या है?"
"मालिक,कोई नौजवान आपसे मिलने आया है."
"कह दो,अभी हम नहीं मिलना चाहते."
"जी,वह तो कह दिया.पर उसने यह लिफाफा दिया और कहा कि इसे अपने मालिक को दे दो,शायद वह....."
माली की बात अधेड़ शरतचंद्र के पलटने के साथ ही अधूरी रह गई.ऐनक के पीछे से दो प्रौढ़ आँखों को अपनी और ताकता देख माली से आगे कुछ कह गया.
तब शरतचंद्र का ठंडा स्वर गूंजा,"लाओ लिफाफा दो."
माली ने झट से लिफाफा उनके हाथों में थमा दिया और फिर वहीँ रुककर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा.
शरतचंद्र ने लिफाफे को घूम-फिरा कर देख और फिर उसे खोल दिया.अन्दर तीन पन्नों का पत्र था.उसकी लिखावट देखकर शरतचंद्र चौँक गए.उन्होंने तेजी से पत्र के सभी पन्ने पलट डाले और भेजने वाले का नाम-पता पढ़ा.फिर माली की और देखते हुए बोले,"उसे अथिति-कक्ष मेंठहराओ.गोपाल से कहो कि वह उसके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करे.मैं अभी वहीँ आता हूँ."
माली आज्ञा पाकर लौट गया.
इधर शरतचंद्र ने फिर एक बार अपनी दृष्टि उस पत्र की सुन्दर लिखावट पर डाली,'आज इतने वर्षों के बाद.....तुम भी किसलिए."
पत्र में लिखा था;
आदरणीय शरत जी,
शरत जी आंखे भर आई,सोचने लगे,प्यार की प्रौढ़ता में आदर का ही स्थान सुरक्षित है.शेष तो जैसे चूक जाता है.आज तुम भी उसे बूढे हुए प्यार संबोधित कर रही हो. वह आगे पढ़ने लगे.
आज आपको अचानक मेरा पत्र इस तरह पाकर आश्चर्य होगा.
आश्चर्य...एक गंभीर मुस्कराहट शरतचंद्र के होंठों पर छा गई.बुदबुदाये,'आश्चर्य रहस्य से उपजता है.रहस्य चमत्कार से और तुम तो मेरे लिए रहस्य और चमत्कार दोनों ही थीं.
आज से वर्षों पहले जब हम-तुम साथ थें....तब एक दिन !
तब एक दिन ही क्यों ....मैं तो तुम्हारे साथ हर पल था-प्रतिदिन था.उस पहले दिन भी जब मैंने तुमसे अनजाने में दुर्व्यवहार किया था और तुम तो नाराज़ हुईं और ही कुछ कहा.सिर्फ चुप रहीं और तुम्हारी वही चुप्पी मुझे अंतर्मन तक भेदती चली गई.तुम्हारा निशाना अचूक बैठा.मैंने स्वयं को कभी भी इतना उद्वेलित नहीं पाया था.अतः जब मैंने तुमसे माफ़ी मांगी,तब भी तुम चुप ही रहीं.
तब मुझे लगा कि मेरा यह अपराध अब कभी भी क्षम्य नहीं होगा,पर उसी समय तुम मुस्कुरा उठीं.यह वही क्षण था जब मैंने तुम्हे अपने दिल में बसा चुका था,हमेशा-हमेशा के लिए.धीरे-धीरे जाने कब हम एक-दुसरे से प्यार करने लगे,हमे खुद ही पता नहीं चल और हम अपनी एक अलग ही सृष्टि का निर्माण करने लगे.पर प्यार के घरोंदे एक-एक करके बिखर गए.तुम भी खो गईं और मैं भी भटक गया.हमारे लिए प्यार का अर्थ सिर्फ प्यार ही था.जहाँ भी हमे अवसर मिलता,हम अपने प्यार का इज़हार करने से नहीं चूकते थें.हमारे सभी मित्र हमारे उस दीवानेपन पर हँसा करते थें.साथ में प्रशंसा भी करते थें.
वह सब-कुछ तो अचानक ही घटा था.प्यार के शब्दकोष में तो वैसे भी पराजय कहीं पर नहीं होती है,वह तो हर हाल में जय ही होती है.
हवा में पत्र लहराया.शरतचंद्र अतीत की गलियों से निकलकर वर्तमान में गये.वह आगे पढ़ने लगे.
हमें किसी व्यक्ति ने अलग नहीं किया था.वह फैसला पूर्णता हमारा ही था.अपना था.वह हमारे ही नहीं हम लोगों जुड़े अन्य लोगों भविष्य का भी प्रश्न था....!
"हाँ,पर निर्णय लेने में हमने पूरे तीन घंटे लगा दिए थे." शरतचंद्र बड़बड़ाये,"शायद मेरी ही वज़ह से,क्योंकि तब मैं बहुत ही संवेदनशील हुआ करता था.साथ ही भावुकता ने भी पैर जकड़ लिए थे.जीवन की सच्चाईओं से दूर मैं सिर्फ तुम्हारे ही प्यार में डूबा हुआ था.तुम्हे खुद से अलग करने की कल्पना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक थी.ऐसे में तुमने वह सारी पीड़ा जैसे मुझे बाँट ली थी."
वह तीन घंटे खामोशी में डूबे हुए बीते थे.सिर्फ मन से मन की बातें हुई थीं और शब्द तो मानो किसी कोने में जाकर छिप गए थें,उन्हीं खामोश पलों में हम अपने प्यार को सदा-सदा के लिए जीवित रखने के लिए,अंततः अलग-अलग हो गए थें.
उस असहजता को भी तुमने इतना सहज बना लिया था कि पल भर को भी तुम्हारा विश्वास नहीं डिगा और उसी ठहरे हुए विश्वास का सहारा पाकर मेरा विश्वास भी तुममे बना रहा.उसके बाद कई बार मन तुम तक पहुँच ही जाता था,पर नहीं पहुँचा तो.....सिर्फ मैं.कितना मजबूर था मैं.
शरतचंद्र ने पत्र आगे पढ़ा.
तुम्हारा सपना था वायु-सेना में स्क्वार्डन-लीडर बनने का.किन्तु तुम डाक्टरी परीक्षा में असफल हो गए थे .तब तुम बहुत-बहुत आहत हो गएथे.उन्हीं आहत क्षणों में हमने अपने प्यार के स्वप्निल स्पर्श में एक सपना देखा था,तुमने उस दिन कहा था,हम अपने बेटे को वायु-सेना में भेजेगें.उस दिन तुमने मुझे अपनी बाँहों में भरकर कहा था,"चलो शादी कर लेते हैं.मुझे एक बेटा चाहिए,बहुत जल्दी...." और मैं शरमाकर तुम्हारी बाँहों में हसँती-मुस्कुराती रही.कितना भोलापन था.
फिर हम सब-कुछ भुलाकर उस भावी वायु-सैनिक के सपनें बुनने लगे थे.तुमने फिर एक दिन मुझसे आग्रह किया था,"चलो शादी कर लेते हैं......"पर मैं चुप रह गई थी और तुमने भी कुछ नहीं कहा और हम दोनों ही चुप रह गए थे.मुझे नहीं पता कि मैंने तुम्हारी संवेदनाओं का-भावनाओं का सम्मान किया था या मेरे ही मन के किसी कोने में उस भावी वायु-सैनिक को अपने गर्भ में उतारने तीव्र इच्छा रही थी.और शायद उसी स्वप्न को साकार करने के लिए हमने खुद को कब एकाकार कर लिया था ,हम जान ही नहीं पाए था,तब भी तुमने कहा था,"चलो अब शादी कर लेते हैं."
पर वह दिन कभी नहीं आया.हमे जीवन की नाजुक देहरी पर खड़ा देखकर,वर्षों से दबे पड़े जीवन के ढेरों प्रश्न,प्रश्नचिन्ह बनकर हमारे सामने खड़े हुए थे.और हमारी हर पराजय,हमारे प्यार की उस सनातन जय के आगे झुक गई थी,पराजित हो गए थे हम.
तुम्हारी शादी बड़ी धूमधाम से हुई थी.फिर हम दोनों ही अपनी-अपनी नई दुनिया बनाने में व्यस्त हो गए थे या व्यस्त रहने का बहाना करने लगे थे,आज क्या कहूँ नहीं जानती.क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे को वचन दिया था कि हम अब एक-दूसरे के जीवन में कोई दख़ल नहीं देगे और ही एक-दूसरे के बारे में जानने की कोशिश करेगें.तब भविष्य के प्रति,उस सुरक्षा के प्रति हम मनुष्य की मनःस्थिति अच्छी तरह जान चुके थे.
और शरत, मैं सब-कुछ भूल भी जाती.पर मेरी शादी के एक माह बाद मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि मेरे गर्भ में भावी वायु-सैनिक करवटें ले रहा है और अपने जनक का नाम पूछ रहा है.मैं तो घबरा ही गई थी.इस घबराहट को मेरे शक्की पति ने भी ताड़ लिया था.....!
"हाँ तब कितना बबेला मचा था,तब तुम्हे चरित्रहीन कहकर परित्यक्ता बना दिया था और मुझे अक्षम्य अपराधी."शरतचंद्र खुद से बोला,"तब तुम्हारेपूरे अस्तित्व का प्रश्न मेरे सामने अपनी अबोधता के साथ आया था.अदालत के कटघरों में उस अस्तित्व को बचाने के लिए कई बार गीता की झूठी कसमें भी खानी पड़ी थीं.कई बार चाहा कि सब सच स्वीकार कर लूँ और तुम्हे लेकर कहीं दूर चला जाऊं...पर तुमने ही चुप रह जाने को कहा था......और अंत में....!"
शरत,मैं तुम्हारा यह एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाउगीं कि किस तरह तुमने मेरे अस्तित्व को बचा लिया था,मुझे पूरी तरह नकारकर.मैं तुमसे कैसे उऋण हो पाउगीं,बरसों तक यही सोचती रही.जब शिशिर दस वर्ष का था,तब ही मेरे पति अपनी समूची दुनिया समेट कर चल बसे थे.जीवन एक बार फिर दोराहे पर था.तब मैंने अपने वैधव्य के अन्धकार में से एक सपना चुना कि अपने बेटे को वायु-सैनिक बनाउगीं-स्क्वार्डन-लीडर.
आज वही शिशिर अपना प्रशिक्षण पूरा करके कमीशन लेने जा रहा है.मैंने उससे कहा है कि जाने से पहले वो तुम्हारा आर्शीवाद लेकर जाए.उसे निराश मत करना.तुम्हारे आर्शीवाद से शायद मैं उऋण हो जाऊं..........
तुम्हारी
शुभचिंतक,
ममता
.

पत्र समाप्त होते-होते शरतचन्द्र की आँखे छलछला आईं,सोचने लगे," हे भगवान,यह कैसी परीक्षा की घडी आज मेरे सम्मुख गई है." वह उठे और उस स्क्वार्डन-लीडर से मिलने के लिए अथिति-कक्ष की और चल पड़े.

शरतचंद्र को देखते ही शिशिर उठ खड़ा हुआ.साथ ही सोचने लगा,"माँ ने सच कहा था,"बेटा, यह तुम्हारे पिता तुल्य हैं.तुम्हे स्क्वार्डन-लीडर बनाने का सपना उन्हीं का था." तो क्या यह यही वह रहस्यमयी पुरुष है.मैं जब-तब इनके विषय में सुनता आया हूँ माँ से.पहले-पहल को मैंने पूछा भी था कि माँ यह कौन हैं? और माँ ने भी बड़ी सहजता से उत्तर दिया था,बेटा,यह बहुत बड़े इन्सान हैं.इससे ज़्यादा माँ ने कभी कुछ नहीं कहा था और फिर मैंने भी धीरे-धीरे पूछना ही छोड़ दिया था.पर जब प्रशिक्षण पूरा हुआ तो माँ ने वह प्रसंग पुनः छेड़ा था.माँ के पैरों में झुकते ही माँ ने उसे कंधे से पकड़कर उठाते हुए कहा था,बेटा पहला आर्शीवाद उनका लेकर आओ.पहला अधिकार उन्हीं का है.उन्हीं का आर्शीवाद तुम्हरी माँ को ऋण मुक्त करेगा."
हैरान रह गया था मैं.आखिर माँ क्यों और किसलिए उस रहस्यमय पुरुष की बातें करती है और कौन-सा ऋण है,जिसका भार वह ढो रही है और उसका एक आर्शीवाद उसे इस ऋण से मुक्त कर देगा.वह लाख चाहकर भी नहीं समझ पा रहा था,पर माँ की बात तो माननी ही थी....सो.

"बैठो बेटा." शरतचंद्र का स्वर गूंजा.
और जैसे जड़ बने शिशिर का सम्मोहन टूटा.वह तुंरत आगे बड़ा और उस अनजान-रहस्यमयी पुरुष के चरणों में आर्शीवाद के लिए झुक गया.शरतचंद्र भावुक हो उठे,वह जिन आँसुओं को पौछ्कर यहाँ आये थे,वह पुनः निकल पड़े.उन्होंने शिशिर को गले से लगा लिया और आर्शीवाद देते हुए बोले,"मेरे बेटे खूब खुश रहो और चिरंजीवी भवो." फिर शिशिर के दोनों कंधे पकड़कर आँखों के सामने करते हुए बोले,"हूँ,मुझसे भी लम्बा,मुझसे भी सुन्दर,मुझसे भी ज़्यादा स्वस्थ्य.बेटा,तुम्हे प्रकृति ने भारतीय वायु-सेना के लिए ही गढा है.अपने देश का-अपनी माँ का नाम रोशन करो.मुझे तुम पर गर्व है."
एक बार फिर शरतचंद्र ने उसे अपने अंक में भार लिया.
शिशिर किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया.इतना अपनापन,इतनी भावुकता,उसे अपनी माँ की ममता के बाद आज यहाँ ही इस व्यक्तित्व में पाई थी.वह स्वयं जाने क्यों भावुक हो उठा था.पल भर में ही जाने उसे क्या हो गया था.कुछ भी कह पाना उसके लिए असंभव था.शरतचन्द्र को लेकर उनसे जाने कितने स्वप्न देखे थे.कितनी उत्कंठा और उत्सुकता थी उसमें इस बड़े इन्सान से मिलने की.अब उसे क्या कहकर संबोधित करे,वह समझ नहीं पा रहा था.
शिशिर तो वहाँ से तुंरत निकल जाने के लिए आया था,पर अब जाने का कह नहीं पा रहा था और उधर शरतचंद्र भी उससे रुकने का नहीं कह पा रहेथे.दोनों ही भावनाओं के एक ही धरातल पर थें.
"शिशिर,आज तुमने मेरा एक बड़ा महत्वपूर्ण सपना पूरा कर दिया है.आज मैं कितना खुश हूँ बता नहीं सकता.अब तुम कहीं मत जाना.यही मेरे पास आकर रहो."शरतचंद्र भावुकता में कहे जा रहे थे.
तब शिशिर साहस करके इतना ही कह पाया,"मुझे कल ही इंदौर जाना है,वह माँ से मिलकर फिर जोधपुर कमीशन लेने जाना है."
तब शरतचंद्र ने उसे अगले दिन तक के लिए रुक जाने का आग्रह किया और शिशिर नहीं कर सका.
रात को खाने की मेज पर व्यंजनों की विविधता देखकर वह चकित रह गया.उसने जीवन में इतने व्यंजन कभी भी नहीं देखे थे,वह भी एक साथ तो कभी भी नहीं.अभी वह इस मनःस्थिति से उबर भी नहीं था कि शरतचंद्र ने उसके गले में एक सोने की चैन लाकर डाल दी.बोले,"बेटा,यह चैन मैंने वर्षों पहले एक-एक पैसा जोड़कर खरीदी थी,शायद इसी दिन के लिए..."
उसके बारे में कुछ भी जानते हुए,वह रहस्यमय पुरुष शिशिर को अपना-सा लगने लगा था.'बेटा' संबोधन संगीत बनकर उसकी रग-रग में उतरता जा रहा था.शिशिर ने पुनः शरत जी के पैर छू लिए.खाने के दौरान कोई भी नहीं बोला.शरतचंद्र खाना खाते समय बोलना पसंद नहीं करते थे.खाने के बाद काफी पीते हुए शरतचंद्र बोले,"बेटा,तुम्हारी माँ ने बहुत दुःख उठाए हैं. उसने अपने जीवन में कठोर से कठोर प्रहार सहे हैं,जो किसी भी नारी को तोड़ने के लिए काफी होते हैं.पर वह टूटी नहीं,उसने इन सबको एक चुनौती की तरह लिया और उसे बड़े साहस के साथ जीया भी.मैं बस यही चाहता हूँ कि तुम उसे कभी-भी कोई भी दुःख मत देना.उसकी सारी उम्मीदे तुम पर ही टिकी हैं.उसने आज तक कभी-भी किसी से कोई मदद नहीं ली है,यहाँ तक की उसने मुझसे भी कोई मदद नहीं ली."
यह सुनकर शिशिर चौका.अगर माँ ने इनसे कोई मदद नहीं ली है तो फिर माँ किस ऋण से मुक्त होना चाहती है.शिशिर तो माँ को समझ पा रहा था और ही इस पुरुष को.वह तो इन दोनों के विचित्र संबंधों में उलझकर रह गया था.
वही शरतचंद्र कह रहे थे,"उसके हिस्से में ढेरों,दुःख,उलहाने आये हैं.सुख के रूप में सिर्फ तुम ही उसके हाथ लगे हो.अपना वैधव्य भी उसने चुपचाप स्वीकार कर लिया.तुम्हे ही उसने अपनी हर आशा का केंद्र बना लिया.दुखो से लड़ने की उसमे अद्भुद शक्ति है.पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि वह भी थक चली होगी मेरी तरह."
थोडी देर के शरतचंद्र रुका,जैसे किसी गहरे विस्मृत अवसाद कूप का ढक्कन खुल गया हो और वह उसमें डूबता जा रहा हो.फिर वही डूबी हुई आवाज़ उभरी,"अब उसे कोई दुःख मत पहुँचाना."
शिशिर अपनी माँ,ममता का दुलारा था.उसे मनप्राण से चाहता था.फिर भी उस कातरता के आगे नतमस्तक हो गया.उसने बचपन से ही देखा था कि उसकी माँ ने किस तरह से अपने पति का-अपनी ससुराल का हर अत्याचार सहा था और कभी भी प्रतिकार नहीं किया,सब चुपचाप ही सहती रही थी वह.एक क्षण पति बरसता-गरजता तो वह दूसरे क्षण से ऐसे काम में लग जाती जैसे वह क्षण उसके पास आया ही नहीं हो.और वैधव्य के बाद तो और गहरे जाकर चुप हो गई थी.उसने देखा था कि माँ किस तरह से उसे बड़ा करने में जी-जान से जुट गई थी.
शिशिर भी अपनी माँ से बहुत प्यार करता था.
आज तो उसने स्वयं से एक वादा भी कर लिया था कि आज से माँ का हर दुःख उसका ही होगा और उसके सारे सुख माँ के होगें.मन ही मन यह वादा उसने उस रहस्यमय पुरुष से भी कर लिया था.
अचानक शिशिर को लगा कि उसके हाथों में इस विचित्र संबंधों की पहेली का एक हिस्सा अनजाने में खुल गया है.वह क्षण भर को चकित रहगया."तो क्या....?" शिशिर के मन में उथल-पुथल मच गई.वह रोमांचित हो उठा,"कितना पवित्र सम्बन्ध रहा होगा यह."
पर अभी भी बहुत कुछ अबूझ-सा रह गया था,जिसे समझने की कोशिश शिशिर चाहकर भी नहीं कर सका.
शरतचंद्र भावुकता से उभरे तो फिर वह बालसुलभ जिज्ञासा के साथ शिशिर से उसकी पढाई,प्रशिक्षण अदि के बारे में पूछता रहे अरु शिशिर भी मानो सम्मोहन में बंधा उत्तर देता रहा.यह सिलसिला अबाध रूप से जाने कब तक चलता रहता,यदि नौकर गोपाल उन्हें आकर सोने के लिए नहीं पूछता.
बिस्तर पर लेता शिशिर देर रात तक सोचता रहा.शरतचंद्र ने अपने विषय में बताया था कि किस तरह उन्होंने दिन-रात एक करके बिजनेस मेंयह छोटा-सा साम्राज्य खड़ा किया था.शादी देर से हुई थी.पहली बच्ची के बाद ही पत्नी नहीं रही.फिर उस छोटी-नन्ही बच्ची को ही गले से लगाये वह अपनी जीवन-यात्रा तय करते रहे.
कई बार लोगों ने छोटी बच्ची का हवाला देकर उनसे दूसरी शादी के लिए भी कहा,पर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुए.आज तक ऐसे ही निर्बाध रूप से जीवन व्यतीत करते चले रहे हैं.
"अब वह नन्ही बच्ची बड़ी हो गई है.बड़ा प्यारा नाम है उसका - उत्तरा .हाँ वह तुम्हारी छोटी बहन है.अभी छुट्टियों में अपनी नानी के यहाँ गई हुई है.जब आएगी तो तुमसे मिलवाऊगाँ ."यही कहा था उन्होंने.
शिशिर यह सुनकर भी रोमांचित हो गया था.छोटी बहन.क्या कहता वह.

जब दुसरे दिन दोपहर के भोजन के बाद शिशिर चलने लगा तो तो द्वार तक उसे विदा करने आये शरतचंद्र ने उसके हाथों में एक चेक थमा दिया,पूरे ग्यारह लाख का चेक था.हतप्रभ रह गया था शिशिर.अनायास ही उसके मुहँ से निकला,"यह क्या है?"
मुस्कुराते हुए शरतचंद्र बोले,"यह एक भेंट है मेरे बेटे को,जिसे उसे लेते हुए कोई हिचक नहीं होनी चाहिए."
"पर मैं माँ से पूछे बगैर ...."शिशिर फिर भी हिचकिचाया.
उसकी बात बीच में ही काटकर वह बोले,"मैं यह भेंट तो ममता को और ही उसके बेटे शिशिर को दे रहा हूँ,मैं तो यह भेंट देश के एक होनहार स्क्वार्डन-लीडर को दे रहा हूँ."फिर वह भावुक स्वर में बोले,"बेटा,तुम हमारे हजारों देखे गए सपनों में से वो सपना हो,जिसे हम सच कर पाए हैं.अब तुम्हारा काम इस सच को बनाये रखने का.वैसे भी एक दिन मैं अपनी समूची दुनिया तुम लोगों के लिए छोड़ ही जाउगां.यह तो केवल एक छोटी-सी भेंट भर ही है.
दोनों के बीच चुप्पी छा गई.क्या कहता शिशिर,वह समझ नहीं पा रहा था.माँ ने यह किस दुविधा में डाल दिया है.यहाँ ऋण चढ़ रहा है या उतर रहाहै,वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.कितना विचित्र है यहाँ सब-कुछ.सच ही कहते हैं लोग कि यह कोठी रहस्यों से भरी हुई है.यहाँ मेरी एक छोटी बहन भी है,जिसे मैंने देखा भी नहीं है,जिसे मैं जानता तक नहीं था,पर अब वही बहन शब्द मानो मेरी नस-नस में उतरता चला जा रहा हो.कहीं माँ बुरा तो नहीं मान जायेगी.माँ ने हमेशा ही उसे अजनबियों से कुछ भी लेने को मना किया है.पर क्या यह माँ के लिए अजनबी हैं या जैसा कि माँ अक्सर कहा करती है-बड़ा इन्सान.यह किस बंधन में बांध दिया है माँ ने मुझे. अब मैं क्या करूँ.अपनी विचारों की श्रृंखला से बाहर आते हुए शिशिर बोला,"अच्छा अब चलता हूँ."
"हाँ बेटा,पर अब आते रहना.मालिक को कभी इतना खुश नहीं देखा,जितना तुम्हारे आने के बाद देखा है."सहसा ही पास खड़ा माली बोल पड़ा.
"देखो,भगतराम भी मेरा समर्थन कर रहा है."हसँते हुए शरतचंद्र बोले.
शिशिर ने पुनः झुककर शरतचंद्र के पाँव छू लिए.थोडी देर तक दोनों आलिंगनबद्ध होकर खड़े रहे.शिशिर उस आलिंगन में अब पूर्ण अपनापन महसूस कर रहा था.

कार शिशिर को लेकर चली गई.

शरतचंद्र भी अपने मन की गहराइयों में खो गए.अतीत के जाने कितने पल,कितनी स्मृतियाँ,कितने सुख-दुःख मन को मथने लगे,कार को आँखों से ओझल होते देख बरबस ही उनके मुहँ से निकल गया,"ममता, तुम तो मुझसे उऋण हो गईं.पर अब मैं तुमसे कभी भी उऋण नहीं हो सकूँगा."

=================== समाप्त =================


सोमवार, 27 अप्रैल 2009

मेरा कथा-संसार.

(कहानी) अर्चना

वो सुबह ,शायद अन्य सभी सुबहों से कहीं अलग थी,जब जलज को जीवन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान के दर्शन हुए थे.जलज के लिए वह सुबह भी उसके जीवन के बीते चौबीस सालों की तरह ही गुजर जाती यदि उसे उस दिन सुबह वह सांवली-सी लड़की कोटरा के बस-स्टाप पर नहीं मिलती.कंधे पर स्कूल बेग लटकाए,गहरी काली आँखों से उसने जलज को देखना शुरू किया तो जलज को लगा कि मानों वह उसके अन्दर कुछ ढूंढ़ रही हो और फिर जैसे वह सांवला उसमें ही खोने लगा हो और जलज भी, जो पहले तो थोड़ा असहज महसूस कर रहा था,वह भी उसमें कुछ खोजने लगा.उसका धड़कता मन कहने लगा,"जलज यही है तेरा प्यार."
फिर तो सब यंत्रवत-सा हुआ.कब बस-स्टाप पर बस आई और कब वह दोनों उसमें चढ़े,उन्हें पता ही नहीं चला और कब जवाहर चौक आ गया और..... ! जलज को जाना था कहीं और और वह पँहुच गया उस सांवली-सलोनी के स्कूल.यह भी कैसे हुआ और कब हो गया यह भी पता नहीं चला.फिट तो यह सिलसिला चल पड़ा.जलज रोज़ कतरा के बस-स्टाप पर पँहुच जाता,फिर दोनों वहीँ से बस में चदते और फिर एक-दुसरे को देखते-देखते सफ़र तय कर डालते.
फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह....फिर शाम....! आखिर एक दिन दोनों का परिचय भी हुआ.दोनों मुस्कुरा भर दिए.नाम के अलावा और क्या परिचय हो सकता था,फिर मिले भी कुल दो-चार सेकेण्ड थें.हर समय धीर -गंभीर बनी रहने वाली वह आज ही तो मुस्कुराई थी.अब हर सुबह जलज कोटरा बस-स्टाप पर होता और शाम उसकी यादों के साथ होता.जलज हमेशा हर काम में ध्यैर्य रखने वाला,उस दिन शाम को उसे अकेला पाकर,अपने को संभल नहीं पाया,बोल उठा."अर्चना....मैं तुमसे प्यार करता हूँ.....!"
और वह लड़की,वो अर्चना,विधायक आवास गृह के पास फुटपाथ पर मानो उसकी फर्शियां गिनती हुई चल रही हो.पल भर के लिए उसकी गहरी-काली आँखें उठी और फिर झुक गई उन्हीं फर्शियों पर.कोई उत्तर नहीं दिया और कोई उत्तर न पाकर जलज और धड़क उठा,और असहज हो उठा.पर सिलसिला यहीं नहीं रुका.कभी उन फर्शियों को गिनते-गिनते,कभी जवाहर चौक से नेहरु नगर तक बस और टेंपो के चक्करों जलज कहीं न कहीं प्यार के धागों में मोती के मनकों की तरह उलझ गया था.और उधर वो अर्चना भी.....पता नहीं,वो तो चुप ही थी.जलज जान नहीं पा रहा था कि उसकी धड़कनों में भी वो तूफान उमड़ रहा है या नहीं जो उसका जीना मुश्किल किये हुए है.हर बार जलज मौका पाकर कहता,"अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ." हर बार अर्चना चुप रह जाती.
जलज प्रति दिन अपना धड़कता मन लेकर घर से निकलता और धड़कता मन लेकर ही लौट आता.सोचता,यह अर्चना किस दिन मुझसे कहेगी,"हाँ जलज...मेरे जलज....मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ,जितना कि तुम मुझे...."इस तरह जलज अर्चना के सपने देखता और सपने में अर्चना को देखता.हर वक़्त उसकी यादों-उसकी कल्पनाओं में खोया-खोया रहता.कल्पना और सपनों के धरातल पर नित्य नये सपने बुनता रहता-नई बातें करता रहता.उसे लगता,क्या अर्चना भी सपने में मुझे देखती होगी ?यूँ तो करने को ढेरों बातें थी करने को उसकी जिंदगी में,पर अब मनो सब अस्त-व्यस्त हो गया हो.क्या प्यार के आगे दुनिया कुछ भी नहीं है?
एक दिन - एक सुबह हजारों बार की तरह जवाहर चौक पर जलज कह उठा,"सुनो अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ."
पहली बार अर्चना बोली,"एक ही वाक्य हज़ार बार कहने से क्या अर्थ है?"
"ताकि तुम भी कहो की जलज मुझे भी तुमसे प्यार है."
वह हंस पड़ी,"कभी आईने में अपनी सूरत देखी है?"
अधीर जलज ने कहा,"हाँ अर्चना, तुम्हारी इन गहरी काली आँखों में मैंने कई बार अपने को देखा है.अब तुम कभी आईने के सामने कड़ी होकर देखना,अपनी ही इन गहरी काली आँखों में झाँकना,,,,तुम मुझे वहीँ पाओगी."
"..........................."
"तुम अब चुप क्यों हो गई अर्चना...."
"तुम्हारे इस पागलपन का क्या जबाब दूँ,यही सोच रही हूँ."
धड़कते मन वाले जलज ने कहा,"कुछ मत सोचो......कोई जबाब मत दो.बस मुझे इतना भर बता दो कि तुम मुझसे प्यार करती हो,बिलकुल वैसे ही जैसे मैं कह देता हूँ."
अर्चना चिहुंक उठी,"मैं क्यों करूँ तुमसे प्यार.क्या तुम्हे कोई और लड़की नहीं मिली?"
हवा में मुक्का-सा लहरता हुआ जलज बोला,"हाँ, बहुत सी लड़कियां मिली,पर उनमें से किसी के पास भी तुम्हारी तरह गहरी काली आँखें नहीं थीं,उनमें से कोई भी अर्चना नहीं थी."
"तो ढूंढ़ ली,ऐसी लड़की तो कहीं भी मिल जायेगी."
"अब मैं तुमसे आगे नहीं जाना चाहता हूँ."जलज ने धीर-गंभीर स्वर में कहा.
"तो मत जाओ....पर इतना जन लो कि मैं भी तुमसे प्यार नहीं करती हूँ."
यह सुनकर जलज आहत हो गया,फिर उसी आहत मन से बोला,"अच्छा चलो तुम मुझसे प्यार मत करना......कभी मत करना.पर अर्चना, मेरी इस बीती-ताहि ज़िन्दगी में केवल एक ही इच्छा है कि तुम मुझे प्यार करो...पल भर के लिए ही...झूठा ही सही.....पर मुझे प्यार करो.बस एक बार सिर्फ झूठमूठ ही सही,पर मुझे प्यार करो अर्चना,इससे आगे मेरी और कोई इच्छा नहीं है."
"............."और फिर मानो अर्चना के पास कहने को कुछ भी नहीं रह गया हो.

उस शाम सूरज बहुत ही तन्हा होकर डूब गया.जलज बड़े तालाब के किनारे खडा-खडा उसे डूबता हुआ देखता रहा.देखता रहा और सोचता रहा कि क्या अर्चना उससे सचमुच प्यार नहीं करती है.क्यों प्यार नहीं करती है,क्या कमी है उसमें.क्या अर्चना उसे एक झूठा पल भी नहीं दे सकती है,वह पल जिसे पाकर वह तृप्त हो जायेगा-कृतार्थ हो जायेगा......शायद यही उसका मोक्ष भी हो.
सोचते-सोचते बड़े तालाब के किनारे रह गया लहरों का करतल और उसका उदास मन.और रह गए जीवन के ढेरों प्रश्न,जिनका उत्तर वह ढूंढ़ नहीं पाया था या उत्तरों की उन टेडी-मेढ़ी पगडंडियों में कहीं उलझकर रह गया था.क्या प्यार म कोई असफल होता है.....लहरों का करतल वहीँ छोड़कर जलज अपना उदास मन लिए घर लौट चला.
जलज,वह पागल फिर सपने बुनने लगा.पल-दर-पल....अनगिनत पल तो जलज ने सपने देखकर ही गुजार दिए.वह नियमित रूप से जवाहर चौक पहुंचता,फिर बस या टेंपो से कोटरा तक.कोशिश करता कि अर्चना उसके सामने ही बैठे और ऐसा होता भी,वह भी उसके सामने ही आकर बैठती.कभी वह उसे देखता और कभी अर्चना अपनी गहरी काली आँखों से उसे देखती.कभी दोनों इतने क़रीब होते कि जलज को लगता कि अभी अर्चना का हाथ पकड़कर चूम ले-कभी इस तरह क़रीब होते कि साँसों से साँसें टकराती-सी महसूस होती और जलज को लगता कि वह उसके भाल पर एक चुम्बन टाँक दे और जिस एक झूठे पल की प्रतीक्षा में जी रहा है उसे यूँ ही सही-जबरदस्ती ही सही पर सचमुच जी ले.
उसने फिर कई बार अर्चना को उस एक पल की याद दिलाई,पर हर वह हँसकर टाल जाती,कहती,"ऐसी भी जल्दी क्या है,सोचो,अगर वो पल आया तो उस पल को गुजरते हुए कितना समय लगेगा.फिर क्या करोगे?"
जलज कहता,"तब मैं उस पल को अपनी मुठ्ठी में क़ैद कर लूगाँ,ऐसे....." और फिर वह मुठ्ठी बनाकर दिखता.
अर्चना हँस पड़ती,"मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी ठहरा है कहीं आज तक जो तुम यह सब करने चले हो.पागलपन है यह.अपना पागलपन कम करो.ऐसा कहीं होता है?"
जलज भी पलट कर कहता,"अरे अर्चना तुम मुझसे प्यार तो करो,मैं तुम्हे मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी भी ठहराकर दिखाऊगाँ."
"पर वह पल तो झूठा होगा."
"झूठा ही सही,पर तुम मुझसे प्यार तो करो."


ऐसे ही जब अंगड़ाईयों पर अंगड़ाईयाँ लेते हुए मौसम पर मौसम बीत चले,तब एक स्वर्णिम सुबह के बाद.....एक सुनहरी श्यामल शाम के बाद,जब चिर-प्रतीक्षित धड़कती सुहागरात आई तो,जलज ने अर्चना का घूँघट उठाकर कहा,"चलो,आज तुम मुझे पल भर के लिए ही सही,झूठा ही सही,पर प्यार करो....."
अर्चना का सर्वांग लजा उठा,वह जलज के इस तरह छेड़ने पर बोली,"जलज,वह झूठा पल मेरी ज़िन्दगी में न पहले कभी आया था और न ही कभी आएगा."
"क्यों....?"जलज ने आश्चर्य से पूछा.
"क्योंकि झूठा प्यार पाने की-करने की तुम्हारी इच्छा थी और मैं,यदि मुझे किसी से प्यार करना ही है तो मैं उसे झूठा प्यार क्यों करूँ...." अपनी उन्हीं गहरी काली आँखों से,जिसमें जलज डूबा हुआ था,जलज की प्यार भरी-प्रश्न भरी आँखों में झाकते हुए अर्चना बोली,".........उसे सचमुच ही प्यार करूँ न.जलज....."
"........"
"जलज....."
"हूँ.......!"
"जलज,मैं तुमसे प्यार करती हूँ....."अर्चना लाज से और सिमट गई यह कहकर.
फिर आने वाले कई पल चुप,गुपचुप गुजरे,पर खाली नहीं.आज जलज के सामने था एक आश्चर्य,वही शब्द,वही शब्द,वही आवाज़,वही अंदाज़,वही चेहरा.....जिसकी उसे न जाने कितने युगों से प्रतीक्षा थी,जिसका वह आराधक था.उसका वही प्यार,वह पल भी अब किसी एक पल के लिए नहीं वर्ण जन्म-जन्मान्तर के लिए उसके पास थें,उसके अपने बनकर.कोई प्यार क्यों करता है,मुठ्ठी में रेत या छन्नी में पानी जमता है या नहीं.....अब जलज और अर्चना दोनों ही इन सवालों से बहुत दूर थें.सितारों भरी-चांदनी से नहाकर आई इस गुजरती रात में गुजरते चुप पलों की चुप्पी तोड़ते हुए जलज बोला,"अर्चना......"
"हूँ बोलो......"
"अर्चना....."
"हूँ..........."
"अर्चना......"
"..............."
"................"



फिर सुबह होने तक दोनों प्रेमी चाहकर भी कुछ न कह सके.
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मंगलवार, 31 मार्च 2009

हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिकल फिल्में......

आज मैं बात कर रहा हूँ हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की.यह वो फिल्में हैं जिन्हें देखना एक सुखद अनुभव होता है और बार-बार देखने की इच्छा बनी रहती है.और यदि बार-बार देखने को न मिले तब भी यह फिल्में आपके अंतर्मन में चलती ही रहती हैं और जब भी फिल्म की शास्त्रीयता की बात होती है तो इन्हीं चंद फिल्मों का नाम ज़ुबान पर आता है.इन्हें आप फिल्मों का जादू भी कह सकते है और यदि फिल्मों को परिभाषित करना हो तो तब भी यही फिल्में सामने आती हैं.फिल्मों का यदि कोई स्कूल हो तो तब भी वो यही फिल्में होगीं जो उस स्कूल का प्रतिनिधित्व करेगीं.
एक शास्त्रीयता में ढली-रची-बसी यह फिल्में,सुन्दर-सुघड़ सौन्दर्य का जीवंत उदहारण प्रस्तुत करती हैं.फ्रेम-दर-फ्रेम फिल्म कुछ यूँ आगे बढती हैं कि देखनेवाला अपने को भूलने लगता है और जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह उसके जीवन का स्थाई भाव बन जाती है.उसे लगता है कि वह फिल्म देखकर नहीं वरन उसे जीकर आ रहा हो या उसे लगता है कि अरे यह तो उसी पर बनी है,उसी के परिवेश की बात कह रही है.कितना सच कहा गया है,कितना अपनापन है,कितना आंदोलित करती है,हाँ समाज को बदलना ही होगा.अब यह सब नहीं चलेगा.ऐसी ढेर सारी बातें उस देखने वाले के मनो-मस्तिष्क में चलती ही रहती हैं.यह फिल्में एक अलग छाप छोड़ती हैं.
क्या ऐसी कोई फिल्म आपको याद आ रही है,क्या कहा हाँ......पता नहीं.....नहीं.....,चलिए मैं ही बताये देता हूँ.मैंने हिंदी फिल्मों की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की सूची तैयार की है,जो आज भी अपनी एक अलग जगह रखती हैं और एक फिल्म बनाने वाले के लिए यह फिल्में आज भी एक श्रध्दा का भाव रखती हैं और एक ऐसी क्लासिक देने की चाह उस हर व्यक्ति के मन में होती है,जो कहीं-न कहीं फिल्म के निर्माण-निर्देशन से जुड़ा हुआ है.प्रस्तुत है यह सूची -
१. अछूत कन्या -
अपने दौर की बाम्बे टाकीज की वो क्लासिक है,जिसका जबाब आज भी कहीं नहीं है.
२. आदमी -
व्ही.शांताराम की सबसे क्लासिक कृति है यह फिल्म और अपने दौर की एक बोल्ड प्रेम कहानी भी है.
झाँसी की रानी -
सोहराब मोदी का ऑपेरा,पारसी थियेटर की शैली,इस जादू का आज भी तोड़ नहीं है.इतिहास की ऐसी प्रस्तुति आज संभव नहीं है.
४. दो बीघा ज़मीन -
यह फिल्म उस दौर में जितनी जीवंत थी,आज उससे कहीं ज़्यादा जीवंत है.प्रगति के तमाम पायदानों के ऊपर बैठे हुए हम लोगों के नीचे आज भी असंख्य लोगो के लिए दो बीघा ज़मीन के लिए संघर्ष वैसा का वैसा ही है
५. जागते रहो -
आरके की यह फिल्म.सिर्फ़ फिल्म ही नहीं समाज का आइना भी है,जो आज भी वैसा ही है.बल्कि आज तो यह आइना और भी कारपोरेट हो गया है.
६. बंदिनी -
नहीं देखी हो देख लें और प्रेम की पावन उत्कंठा को अपनी आत्मा तक महसूस करें.मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस प्रेम की बेकरारी आप अपने लिए भी चाहेगें.
७. देवदास -
के.एल.सहगल और दिलीप कुमार दोनों जैसे एक ही धारा के दो रूप हों,जैसे एक राग-दो रागनियाँ हों.
८. तीसरी कसम -
जीवन कितना भोला और मासूम हो सकता है कि हम सब हीरामन हो जाना चाहेगें.
९. साहब-बीवी और गु़लाम -
इस फिल्म की विशेषता यही है कि इस पर बोलना-लिखना आसान लगता है,पर है मुश्किल.पर गुरुदत्त का ही हो जाने का जी चाहता है.करीब १३०० पन्नों के उपन्यास को तीन घंटे के रूपक में बदल देना और वो भी मूल कहानी और उसकी आत्मा से बिना छेड़छाड़ किये हुए अदभुद है अदभुद.
१०. शतरंज के खिलाडी -
प्रेमचंद की कलम का जादू तो है ही पर सत्यजीत राय का जादुई स्पर्श इस कहानी को इतिहास में बदल देता है.
मैं जानता हूँ कि सिर्फ़ दस फिल्मों को इस तरह शामिल करना स्वयं के साथ ही नहीं सिनेमा की रचनाधर्मिता के साथ भी अन्याय ही है,पर यह तो शुरुआत भर है.उक्त सूची को पढ़कर आपके ज़ेहन में भी ऐसी कई फिल्मों के नाम चलचित्र की तरह उभर रहे होगें जो इस सूची में शामिल नहीं हैं, पर आप उन्हें मुझसे शेयर कर सकते हैं.
आज इतना ही,
शेष फिर......!

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्में...

मित्रों, मैं पिछले दिसम्बर से 100 सबसे ज़्यादा देखे जाने वाली हिंदी फिल्म्स् की सूची बनाने में लगा हुआ हूँ.और पिछले तीन माह का अनुभव बताता है कि यह सूची 100 से ऊपर भी जा सकती है,पर मैं एक अनुशासन बनाये रखने को प्रतिबद्ध हूँ.अभी जब संजीव सारथीजी का ब्लॉग पर लेख पढ़ रहा था तो मुझे लगा की मेरे जैसे और भी लोग हैं जो इस तरह के कार्य में संलग्न हैं.यह अच्छी बात नहीं,वरन बहुत ही सुखद बात है. हिंदी सिनेमा ने हमे बहुत गहरे तक छुआ है और यही वह सिनेमा है जो हिकारत की नज़रों से भी देखा गया है.मुझे अक्सर सुनने को मिलता रहा है कि तुम जैसे लेखक को-बुद्धिजीवी को सिनेमा पर नहीं लिखना चाहिए.मैंने उनसे पूछता हूँ कि क्या हिंदी सिनेमा इतना दोयम दर्ज़े का है कि उस हम जैसे लोगों को बात नहीं करना चाहिए,तो फिर उन असंख्य दर्शकों का क्या,क्या वह भी दोयम दर्ज़े के हैं.क्या दोयम दर्ज़े के लोगों द्वारा दोयम दर्ज़े के लोगों के लिए ही सिनेमा है? अगर ऐसा है तो फिर आस्कर की और हम सब इतना लालायित क्यों हो जाते हैं.क्यों सब के सब इतना बौरा जाते हैं कि आस्कर दुनिया का सबसे बड़ा सच हो जाता है?
पर ऐसा है नहीं और तथाकथित-कतिपय लोगों को ऐसा लगता भी है तो यह उनकी अपनी समस्या है.मुझे तो सिनेमा से प्यार है और वह भी अव्वल दर्ज़े का.तो बात हो रही थी सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म्स् कि तो सारथीजी के लेख में जिन फिल्म्स् का नाम है,उनमें से मैं एक फिल्म."हम आपके हैं कौन" को छोड़कर बाकी सभी पर सहमत हूँ.अंत में विनोदजी ने एक समीक्षक की पसन्द की जिन फिल्म्स् की सूची दी,वह सभी ऐसी फिल्म्स् हैं,जिनके बारे में मेरा मत यह है कि जिसे भी फिल्म्स् की ज़रा-सी भी समझ हो और लिखने का हुनर तथा कला के प्रति अनुराग-आग्रह,वह इन फिल्म्स् को जगह देगा ही. इनमें भी "नीचा नगर" को हम विश्व-सिनेमा की कालजयी कृति कह सकतें हैं.यहाँ में एक और नाम जोड़ना चाहूगां,"दो बीघा ज़मीन". "बायसिकल थीफ" जो सम्मान विश्व-सिनेमा में हासिल है,"दो बीघा ज़मीन" उससे कहीं ज़्यादा सशक्त कृति है."गर्म हवा" अपना जो विशेष प्रभाव छोड़ती है,वही विशेष प्रभाव हम एक लम्बे गेप के बाद "पिंजर" में भी महसूस करते हैं.अपने सशक्त अभिनय से उर्मिला मार्तोंडकर फिल्म-इतिहास में अपना पन्ना जोड़ने में सफल रहीं हैं.लेकिन ध्यान रहे की फिल्म्स् की समीक्षा और समीक्षक फिल्म्स् अलग-अलग चीजें हैं.अंतर बहुत बड़ा नहीं है,बस रेशम और कोसा जैसा है.यहाँ भी प्रश्न खड़े किये जा सकते हैं कि आखिर कौन-सी फिल्म्स् समीक्षा के लिए हैं और समीक्षक की फिल्म्स् कौन-सी हो सकती हैं.मेरे लिए दस सर्वश्रेष्ठ फिल्म्स् चुनना थोडा मुश्किल काम होगा,हाँ दस-दस श्रेष्ठ फिल्म्स् की दस अलग-अलग सूचियाँ बना सकता हूँ.फिलहाल मेरी पहली सूची कुछ यूँ होगी -
१. अछूत कन्या,
२. दुनिया न माने,
३. आवारा,
४. मदर इंडिया.
५.मुझे जीने दो,
६. गाइड,
७.पाकीजा,
८.बाबी
९.शोले,
१०.जाने भी दो यारों.

- शेष फिर.....!

रविवार, 22 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (अंतिम भाग)

फाल्गुन माह की वह सुबह.उस दिन अर्चना का अंतिम प्रश्न-पत्र था.मैं सुबह से ही घर से उससे मिलने के निकल गया था.तब मेरे चेतन में ढ़ेरों बातें - अचेतन में ढ़ेरों स्वप्न और इनके बीच मैं,उन्हीं प्रश्नों के साथ जिन पर मैं कई दिनों से विचार कर रहा था.अपने को मथ रहा था.इस मंथन में गरल मिलेगा या अमृत,पता नहीं,पर आज मैं उससे मिलकर यह सब स्पष्ट कर लेना चाहता था.आखिर वह क्या चाहती है,यह जानना भी ज़रूरी था.अन्यथा हम यह संबंध अनावश्यक क्यों ढोए.यवनिका यदि उठनी ही नहीं है है तो फिर पटाक्षेप ही सही.पर इतनी सुबह-सुबह घर से निकलने पर भी अर्चना से मुलाक़ात नहीं हो पाई.
"पाषाणों को पूजा नहीं हमने,
लाँघ गए उन्हें जीवन-पथ जान,
कितना विष भरा हुआ,हुए नहीं अमृत हम,
अरे यायावर हम......"

अब यदि स्वयं की मानसिकता की बात कहूँ तो गत जुलाई से आज तक हमारे प्रेम के सफ़र जितनी भी बाधाएं आई थीं, वह सब अर्चना के द्वारा ही खड़ी की गईं थीं,बाहर का तो कोई भी व्यक्ति हमारे बीच में नहीं था और आया भी नहीं था.हालाँकि अर्चना हमेशा यही कहती थी कि उसकी बहनें इस संबंध के खिलाफ़ हैं और वह लोग मिलकर उस पर यह संबंध तोड़ देने के लिए दबाब डालते रहते हैं. पर अर्चना, यह बामनिया की बात थी,यहाँ तो तुम पूरी तरह स्वतंत्र थीं.तुम्हें ही अपने जीवन के सारे निर्णय भी स्वयं ही लेने थें,पर फिर हुआ क्या,क्या सोचा है आज तक तुमने स्वयं के बारे में-हमारे संबंधों के बारे में.तुम्हारे मन की तो मैं नहीं कह सकता,पर अपने मन की बात तो कह ही सकता हूँ,एक कड़वा सच और वो कड़वा सच यह है कि आज मैं तुमसे शादी करने की मानसिकता में नहीं हूँ.प्रेम के लिए मैं न तो कोई सौदेबाजी कर सकता हूँ और न ही कोई समझौता कर सकता हूँ और फिर अर्चना तुमने कभी मेरे प्रेम को वह सम्मान दिया ही कहाँ हैं,उसे स्वीकार किया ही कहाँ है.फिर सारी बातें तो बेमानी ही हैं.
फिर भी मैंने निर्णय पूरी तरह से अर्चना के ऊपर ही छोड़ दिया था,यदि आज-कल वह मुझसे शादी के लिए तैयार होती है तो मैं भी तैयार हूँ.
"हुआ ही नहीं है,कोई बयां ऐसा अभी,
कि ऐ ख़ुशी तुम,मिला करोगी हमें कभी-कभी"
अर्चना ने मुझे देख,मेरे साथ कालेज के द्वार तक आई.सबसे पहले उसने मुझसे अपने घर के विषय में पूछा,मैंने अनभिज्ञता प्रगट कर दी.मैंने उससे कहा,"चलो चलते हैं,रास्ते में बातें करेगें."
वह लगभग टालने वाले अंदाज़ में बोली,"नहीं,अभी मुझे मेरी एक सहेली के साथ जाना है."
फिर बामनिया भी साथ में चलने से इंकार कर दिया.मैंने कहा कि अच्छा कल मिल लेते हैं तो उसने उससे भी मना कर दिया.
बहुत थोड़े समय के लिए,शायद पूरे साठ सेकेण्ड के लिए ही हमारा यह मिलन था और यह वही अर्चना थी,जिसने मुझे पूर्व में भी कई बार आहत किया था.उन्हीं भाव-भंगिमायों के साथ.पल भर में ही मैं,मैं नहीं था.
'घर बनाया था एक,सपनों से लड़-लड़कर,
पर उन्हीं दीवारों में वही आँसू निकले."

मेरे आँसू,अन्दर ही अन्दर मुझे फिर तप्त करने लगे.मैं और मेरे सपने एक बार फिर चटखने लगे.
मैं क्या करता.....?
मैं कलिंग-विजेता अशोक की तरह सिर झुकाए चुपचाप वहाँ से घर की और चल दिया.
'जाने क्यों कर बैठे थे हम वादा,उम्र भर साथ निभाने का,
इस दौर में जबकि हर रिश्ता,दो-चार दिन का बहुत हुआ करता है,'
मैं बहुत-बहुत तन्हा घर लौट आया.
इतिहास ने स्वयं को दोहराया था.जब मैं ममता से स्वयं को अलग करने की मनःस्थिति में लगा हुआ था,तब वह भी फागुन माह ही था.आज भी फागुन माह ही है.फ़र्क आज सिर्फ़ इतना है कि आज मैं अर्चना से मानसिक रूप पूरी तरह अलग हो गया हूँ.जबकि ममता से मुझे मानसिक रूप से अलग होने में कई महीने लग गए थें.ममता मेरे जीवन का वह स्पंदन है,जिससे मैं आज भी स्पंदित होता रहता हूँ.ममता से मुझे कोई शिकायत-शिकवा नहीं था,पर उसे था और शायद ता-उम्र रहेगा भी.यह उसका कोई श्राप ही है जो रूप बदलकर ही सही मेरे सामने आज बनकर खड़ा था और इतिहास को दोहरा रहा था.
'अपनी पीड़ाओं से परे,
और नहीं है कोई इतिहास मेरा...."
प्यार आज फिर तुम मुझे छल गए.
"साक्षी गोपाल,
नाच्यौं मैं भी बहुत....'
मैं दुखी था और यह स्वाभविक भी था,आखिर यह चुनाव तो मेरा ही था तो फिर किसको दोष देने जाता.पर निराश नहीं था क्योंकि इस परिस्थिति के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार था.सिर्फ अर्चना ही तो मुझसे अलग हुई है,शेष जीवन तो मेरे पास है ही.अब इसके लिए इस खण्डहर में अरण्य-रोदन कौन करे.
ममता, आज तुम इस रंगमंच पर नहीं हो.अगर होती तो अपने ही किसी श्राप को फलीभूत होते देखतीं.क्या मैं इसी लायक था.तुमने तो मुझे जाना था-समझा था.देखो आज मेरा समूचा अस्तित्व एक प्रश्न-चिह्न अपने पर चस्पा किये खड़ा है.तुम भी मेरे जीवन में ऐसे ही अनाहट आइन थीं और फिर एक दिन ऐसे ही अनाहट चली भी गईं थीं.मैं तुममें और अर्चना में कोई समानता नहीं खोज रहा हूँ.तुममे और अर्चना में कोई साम्य हो भी नहीं सकता है.पर आज तुम बहुत याद आ रही हो.न जाने क्या बात है.तुम्हारे साथ ही तो प्यार से मेरा पहला परिचय हुआ था.तुम्हारे कारण ही तो मैं इस जगत को समझ पाया था.वह तुम ही थी जिसने,जिसने मुझ आवारा को सुधार था,सभ्य बनाया था.तुम्हारे साथ उस युग में सब-कुछ अलग ही था.तुम्हारे जाने के बाद से और अर्चना के आने तक जीवन में वैसे तो कई पढ़ाव आये,पर मैं उन सभी को दरकिनार करता चला गया.वह प्रेम तो था,पर मैं प्रेमी नहीं था.अतः मैं अपना डेरा समेत कर चल देता था.यायावर जो ठहरा.
"प्रेम का प्रतिदान.
प्रेम ही है,
जानता है यह अखिल-विश्व,
फिर भी कह जाता है -
क्यों कोई किसी से -
-नहीं."

और फिर अर्चना,तुम आई मेरे जीवन में.पर शायद तुम मुझे समझ नहीं सकी.यह मेरा भ्रम ही था कि तुमने मुझे समझ लिया है.पर सच तो यह था कि तुम स्वयं को ही कहाँ समझ पाई थीं.तुम भी तो इस अखिल-विश्व की एक इकाई थीं,तुम्हे भी प्रतिदान में प्रेम ही देना था.यह तुम जानती-समझती थीं,फिर भी 'नहीं' ही कह पाई.हालाँकि तुम्हारे साथ मैंने अपने जीवन के बहुत कम पल बीताये.तुम्हारे साथ का युग,समय और मैं,तीनों ही भिन्न थें.उस समय मेरे पास आत्मविश्वास था.संभावनाओं के सूत्र मेरे हाथ में थें.तमाम प्रतिकूलताओं के चलते भी परिस्थिति मेरे अनुकल थीं और जहाँ नहीं थीं,वहां मैं उन्हें अपने अनुकूल बनाने में सक्षम था.जीवन-धारा मस्ती से कलकल कर बही जा रही थी.तात्पर्य यह कि तब मैं ही मैं था और गगन में यहाँ-वहां पंख फैलाये उड़ रहा था.और फिर जब तुम जीवन में आईं तो तुम्हारे आते ही मैं मिटकर फिर प्रेमी होने चला था कि अचानक इतिहास वर्तुल गति से अपनी पंक्तियाँ दोहरा गया.एक अंतहीन नाटक सूत्रपात कर गया.दुःख भरे प्रहसन का सूत्रपात.आज मुझे यह गाथा लिखते हुए पूरे तेरह दिन हो गए हैं.हिन्दू-विधि के अनुसार कहूँ तो आज हमारी संभावनाओं-कल्पनाओं-इच्छाओं--उत्कंठाओं-सपनों और प्रेम आदि की तेहरवीं है.

"बनाते रहे कागज़ों पर इबारतें नित्य नई,

कभी कविता की-कभी कहानी की,

अपनी कहानी कोई सुना न सके,

गीत कोई गुनगुना न सके."

अंततः अर्चना चली गई.अर्चना-आर्ची मेरे जीवन-प्रांगण से चली गई और मैं फिर,फिर अकेला रह गया.रह गए यह कागज़,यह कलम और यह शब्दों का अंतहीन प्रवाह.

ममता के जिस स्पर्श से मुझे प्रेम की पहली अनुभूति हुई था,मैं कह सकता हूँ कि मेरे लिए प्रेम का जन्म उसी दिन हुआ था और अब प्रेम का मैं कहीं भी अंत नहीं पाता हूँ.ममता के साथ चला यह अंतहीन सिलसिला,जहाँ मैं प्रेमी बनकर इस प्रेम को जीता रहा.कई लोग आये-कई लोग विदा हो गए.कई जगह मैं आया-गया,कहीं-कहीं पढ़ाव भी डाले और यह यायावरी चलती रही.पर अभी-अभी अर्चना के मन-आँगन में आने के बाद मुझे लगता था कि मेरी इस आवारगी को-इस यायावरी को एक ठौर मिल जायेगा.एक स्थिरता आ जायेगी.पर अब पुनः एक नए सफ़र की तैयारी में संलग्न हो गया हूँ.दुखों का अपना महत्त्व है क्योंकि दुःख ही सुख की कामना पैदा करते हैं और सुख की कामना जीवन के प्रति समर्पण का भाव पैदा करती है.हम हारते हैं तो फिर लड़ते हैं,जीतते हैं तो नई लड़ाई के लिए आतुर हो जाते हैं.यही वर्तुल गति सुख-दुःख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद,प्रेम-घृणा के मध्य चलती रही है. अनवरत-अंतहीन,क्योंकि जीवन में कोई भी वर्तुल गतिहीन नहीं होता है और हर गतिशील वर्तुल अंतहीन होता है.अंतहीन इसलिए कि कोई भी एक सिरा तय कर पाना असंभव होता है.प्रेम भी ऐसा ही होता है,अंतहीन-वर्तुलाकार,बिना किसी कारण के.किसी को किसी से प्यार क्यों हो जाता है,इस प्रश्न का उत्तर तो विधाता के पास भी नहीं होगा.मैं भी कहाँ कुछ जान पाया हूँ जो कुछ भी कह सकूँ.

अतः मैं भी दुःख मनाने बैठ जाऊँ,ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि इस वर्तुल में मैं एक बार फिर कहीं प्रेम का स्पर्श करुगाँ,यह तय है.चाहे उसके लिए मुझे कितना ही समय क्यों लग जाए.इस तरह इस अंतहीन श्रृंखला में न तो दुखों का शौक मनाना चाहिए और न ही सुखों उत्सव,क्योंकि प्रेम से बड़ा न कोई उत्सव है और न ही उस प्रेम से उपजी पीड़ा से बड़ा कोई दुःख है.यह जीवन है या यही जीवन होना चाहिए,ऐसा मैं नहीं कहता हूँ.मैं तो सिर्फ अपनी कहता हूँ.

"लुटा दी हैं चान्दनियाँ सब

तुझ पर, तब सूरज से रिश्ता बनाया है."

आसमान पर सूरज आज भी उसी जगह पर है जहाँ वह सदियों से है.चाँद भी वहीँ है,जहाँ वह सदियों से हैं और यह आसमान भी.......और सब कुछ तो अपनी जगह पर है.मौसम भी उसी तरह से आ-जा रहें हैं,आते-जाते रहेगें.इस पूरे ब्रहमांड में,जहाँ हर पल कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है,तब मैं भी जो इसी ब्रहमांड का एक अणु हूँ तो यदि मैं भी परिवर्तन से गुजरता हूँ तो इसमें आश्चर्य क्या.'शिव-सूत्र' में त्रिपुरारी शिव,माँ पार्वती के इस प्रश्न कि जगत में परिवर्तन क्या है,का उत्तर देते हुए कहते हैं कि -"यह जगत परिवर्तन का है और परिवर्तन को परिवर्तन के द्वारा विसर्जित करो."

मुझे भी यही करना होगा.इस परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा.और जो परिवर्तन हुआ है उसे नए हो रहे परिवर्तन के साथ विसर्जित करना ही होगा.

मैंने सदा इस परिवर्तन को स्वीकार किया भी है.ऐसा भी नहीं है कि मैं कोई संत हूँ जो किसी परवर्तन से पूरी तरह अप्रभावित रहूँ.मैं संत नहीं हूँ, मैं राज हूँ.खुशियों को भी जीया है - आंसूओं को भी जीया है.प्रेम को भी जीया है-घृणा को भी जीया है.दुःख को भी स्वीकार किया है और सुख को भी छुआ है.व्यवहारिक को भी माना है और भावनाओं का मूल्य भी चुकाया है.चुप-गुपचुप भी रहा हूँ.बोल-बोल कर मुँह को भी थकाया है.नाचा-गाया भी हूँ और आँखों को आँसुओं से भर-भरकर धोया भी है.जीवन को जीने के लिए जो भी सर्कस कर सकता था,सब किया है.आगे भी यह सर्कस जारी रहेगा.पर कितना और कहाँ तक यह देखना अभी बाकी है.

"इसी मंच पर,

इस पार मैं -

उस पार तुम सूत्रधार,

फिर भी हम खेल रहे हैं.

हमारा नाटक, "जीवन नैया"

बस यह शब्द ही मेरे हर परिवर्तन के साक्षी रहे हैं. मैंने भी हर परिवर्तन को शब्दों में ढालकर अपने ही अक्सों को सम्हाल कर रख लिया है.एक दिन, जब मैं नहीं रहूगाँ, तब यही शब्द-चित्र मेरे बिम्ब बनकर दृष्टिगोचर होते रहेगें.मृत्यु शाश्वत है और अब मुझे उसी शाश्वतता की - उस मृत्यु-उत्सव की प्रतीक्षा है.

अगर मेरे पास लेखन की क्षमता नहीं होती तो शायद मैं मैं नहीं रह जाता.क्या होता ठीक-ठीक नहीं कह सकता.पर मैं अपना ही सच स्वीकार करता हूँ कि यदि मैं लिखूं नहीं तो अंतरतम में जो उमड़ता-घुमड़ता रहता है, वह बात बनकर बाहर नहीं आ पाता है.

"किसी घाट जो ठहर जाता,

तो बहता कैसे कल-कल कर,

मुड़ जो जो न जाता कहीं,

तो गिरता कैसे बन निर्झर,
अपनी अश्रु-अर्चना से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

बस यही इतिहास रहा है मेरा.हमेशा निर्झर बनकर बहता रहा हूँ.प्यार के इस दरिया में मैंने एक लम्बा रास्ता तय किया है.प्यार के कई घाटों पर ठहरा-थमा भी पर यह सब किनारे ही बनकर रह गये.मैं अपने साथ किसी भी किनारे को निर्झर नहीं बना पाया.अपने साथ चलने को राजी नहीं कर पाया.यह मेरा प्रारब्ध.शायद मेरे नीर में ही वह कल-कल का मधुर नाद नहीं होगा कि कोई मेरे पीछे-मेरी दीवानगी में निर्झर बन मेरे साथ हो लेता.मैं ही अपने में हैमलिन के बांसुरी वादक-सा जादू नहीं जगा पाया.किसको दोष दूँ और क्या दोष देने से मेरे सारे दोष ढँक जायेगें,नहीं,कभी नहीं.

शब्दों से बहुत खेला लिया हूँ,फिर भी शब्दातित ही हूँ.आज कई अनकही बातों को शब्दों में ढालकर सूत्रधार बनना चाहता हूँ.पर यह सूत्रधार भी कितना कमज़ोर है,इस मंच पर रहा तो बहुत देर तक पर फिर भी अभी कुछ छूट गया-सा लगता है.इस पागल सूत्रधार को न जाने किस प्रेम के मृदुल स्पर्श की प्रतीक्षा है.

"कि एक दिन कोई आता,

पकड़ अंगुली चंचल सुखमय की,

चल देता यह अवसाद घट -

छोड़ कथा इस औघड़ की.
अपनी तथा-कथा से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

आज ग्रीष्म की इस भरी दुपहरी में मैं इस कथा का अंत करने जा रहा हूँ.यह राज अब अपने को समेटने जा रहा है,वही राज,जिसने इस कथा का प्रारम्भ किया था,जब कल सुबह होगी तो वह परिवर्तित होकर दूसरा ही राज हो जायेगा.कल से मैं राज,एक नए राज के साथ शुरुआत करुगाँ,फिर कहीं किन्हीं पन्नों में सिमट जाने के लिए.बहुत वर्षों के बाद लिखा और अपने अवसाद के बाबजुद पूरे आनंद के साथ लिखा.

होली के रंग भी देखे.उदयपुर - नाथद्वारा के ढंग भी देखे.खूब गुलाल लगाया.श्रीनाथ श्रीकृष्ण के साथ होली की मस्ती भी की और प्रेम के सारे रंग उन पर ही उड़ेलकर स्वयं प्रेम ही हो गया.

"शूल हुए हाथों से -

पूजे हमने देवता हमारे,

एक सूखी नदी में -

अर्पण हुए श्राद्ध हमारे,
कोई नहीं नेह-बंधन अब,

छूटे उम्र के सब मतवारे,


भटक आये द्वारे-द्वारे,

मेरे दीप के उजियारे."


- शेष फिर.......!

====== समाप्त =======
आभार -
मैं यह पूरा उपन्यास अपने उस मित्र को समर्पित करता हूँ,विशेषकर यह अंतिम भाग,जिसके एक प्रश्न ने मुझे अपने इस उपन्यास को पुनः लिखने को प्रेरित किया.उसके बिना यह उपन्यास मेरे पास ही कागज़ों में कहीं गुम पड़ा रहता.उस मित्र को साधुवाद.

आप सभी सुधिजनो का जिनकी प्रतिक्रियाओं से मैं उर्जित होता रहा.

स्वयं का,इसे पुनः लिखते हुए मैं जिन परिस्थिति से गुजरा हूँ,जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरा हूँ और जिन दुखो को पुनः जीया है,उसमें भी अपना हौसला बनाये रखने के लिए. ---- ------------------------------------------



रविवार, 15 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (भाग-नौ)

यह ज़िन्दगी दस्तूर पर चलती है,जज़्बातों पर नहीं.जज़्बात बहकते हैं.अपने उन्मान से ही बहकाते हैं.पूरी नज़्म अगर ज़िंदगी के सफ़े पर शाया हो जाए तो आदमी जो इस कायनात में सबसे दानिशमंद कहलाता है,माना जाता है, बुरी तरह टूट जाता है.ऐसी नज्में जब लफ्ज़ों के दरीचे से ख्वावों की बहारें ला रही होती हैं तो वहीँ उसी दरीचे के पास वाला दरवाज़ा हकीकतों की दस्तकों से भर जाता है.
सवाल यह है कि फिर जीया कैसे जाये और कहाँ तक जीया जाये.मैंने इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य सामंजस्य बनाने का दुष्कर कार्य किया है और कब तक करता रहूगाँ,पता नहीं.
"जीवन, जो जीया नहीं,
जीया जिसे -
उसे जीवन कह न सके....'
इस जीवन में लड़ने का हौसला है,हारने का अनुभव है,जीतने के लिए संघर्षों की अंतहीन श्रृंखला है.सुख के लिए आँखों में सलोने स्वप्न हैं.दुखों के निर्बाह के लिए मनःस्थिति है.प्रेम की प्रतीक्षा है.आलोचनाओं का केंद्र बिंदु रहा हूँ.मेरी अपनी क्षमताएं-अक्षमताएं हैं.पर तमाम विडंबनाओं-विविधताओं-विचित्रिताओं-विसंगतियों के चलते इनके बीच मैं निराश नहीं हूँ.हमेशा की तरह आज भी अश्रुदीप जलाकर उसकी ज्योत्स्ना में मुझे इस जीवन में,इसी जीवन में प्रेम की सार्थकता में पूरा-पूरा विश्वास है.आज भले ही मैं दुखी हूँ,पर चूँकि यह दुःख मेरे द्वारा ही चुने गए हैं,अतः मैं ही इनसे बाहर निकलने की युक्ति भी जानता हूँ.इन्हें कहीं भी छोड़ सकता हूँ और इसलिए मुझे अपने दुखों से कोई गिला भी नहीं है.
"इस परवानों की दीवानगी भी क्या,
मयक़दों को अपनी साकी से होश भी कहाँ,
कि कहनी थी एक दास्ताँ हमे भी,
पर हर महफ़िल में खामोश रह गई ज़िंदगी."

बहुत भटक गया हूँ मैं.पर क्या करूँ,उस पत्र की भाषा थी ही ऐसी कि मैं बहक ही गया.दो दिन के बाद ही मैं राजेश पालीवाल की शादी में सिरोंज चला गया.वह पालीवाल ने मुझसे कहा की डॉ.व्यास की बेटी की शादी में.अभी पिछले ही हफ्ते,अर्चना और नासिर दोनों ही वहाँ मिले थें और दोनों ने वहाँ खूब मस्ती भी की.सुनकर मुझे थोडा अजीब तो लगा पर मैंने ध्यान नहीं दिया और मैं ध्यान देता भी नहीं, क्योंकि मैंने अपने जीवन में कभी संकीर्णता को कोई स्थान नहीं दिया है,पर मेरा ध्यान खींचा स्वयं नासिर ने,उसी ने एक दिन मुझे मेरे आफिस में फोन करके मुझसे मिलने का समय माँगा तो मैंने उससे कह दिया कि वह शाम को आकर मुझसे मिल सकता है,पर उसने कहा कि वह मुझसे अकेले में पेटलाबाद में मिलना चाहता है,तो पहले तो मैंने मना कर दिया पर उसके ज़ोर देने पर कहा कि ठीक है आकर मिलता हूँ,पर फिर गया नहीं.मैं सोच में पड़ गया कि आखिर नासिर को मुझसे क्या काम हो सकता है,मैंने आज तक उसके बारे में सिर्फ़ सुना भर था,उससे कभी मिला नहीं था और न ही वह कभी मुझसे मिलने आया था. उसके बारे मैं सिर्फ इतना ही जानता था कि अर्चना और वो दोनों एक-दुसरे को खूब अच्छी तरह जानते हैं और दोनों में प्यार भी है. इस बारे में मुझे अर्चना ने सिर्फ़ इतना ही कहा था कि वो दोनों अच्छे दोस्त हैं,पर अन्य लोगों ने तो मुझे चटखारे ले-लेकर कई-कई बातें बातें थीं,पर जैसा कि मैंने कहा है कि मैंने कभी इस तरह संकीर्ण होकर नहीं सोचा है और फिर कौन किसके इंतजार में सारी उम्र बैठा रहता है.यहाँ भी यही बात है कि न तो अर्चना मेरे लिए बैठी थी और न ही मैं अर्चना के लिए बैठा था.बस एक दिन हम मिले और हममें प्यार हो गया.मेरे उसके जीवन में आने से पहले और उसके मेरे जीवन में आने से पहले हम दोनों के जीवन में कौन-कौन आया और कौन गया.इसका हिसाब कौन रखता है.मैं तो बिलकुल ही नहीं रखता.अतः जिन-जिनने भी मुझसे अर्चना और नासिर को लेकर रस ले-लेकर बातें करीं थीं उन्हें मुझसे निराशा ही हाथ लगी थी.मैंने भी नासिर से मिलने की या उसके बारे में जानने के बारे कभी भी कोई कोशिश नहीं की थी,यह मेरे स्वभाव में ही नहीं था.यहाँ तक एक-दो बार स्वयं अर्चना ने मुझसे नासिर से मिलने को कहा था, पर मैंने कोई जबाब नहीं दिया.क्यों मिलूं,इसका कभी कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आया.
पर नासिर स्वयं मुझसे मिलना चाहता था.पर क्यों ....यह मेरे लिए एक पहेली से कम न था.उधर मैं मार्च की क्लोजिंग में व्यस्त था.फिर जब महाशिवरात्रि आई तो मैं भोपाल चला आया.यहाँ मैंने पटेल की शादी के उपलक्ष में एक छोटी-सी पार्टी रखी थी.रविवार को सभी मित्र इक्कठे हुए और फिर उन्हीं लोगों के साथ,दिन भर शादी और द्वारका-सोमनाथ के किस्सों में सारा दिन बीत गया.यहाँ मेरे साथ एक अनहोनी हुई,जिसने मुझे अर्चना के साथ मेरे संबंधों के विषय में सोचने पर मजबूर कर दिया.हालाँकि इस अनहोनी का अर्चना से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था.
असद, मेरे बचपन का मित्र,उसने उस रात मुझे अपने विवाह के विषय में जो कथा सुने उसे सुनकर मैं दंग रह गया.जहाँ उसकी शादी तय हुई थी और जिस लड़की से वह प्यार करता था,वहीँ उसके खिलाफ षडयंत्र रचे जा रहे थे और वह वहाँ से भाग रहा था.मुझे दुःख इस बात का था कि असद ने मुझसे पहले से ही यह बात क्यों नहीं बताई.वह बहुत ही उदास और निराश था.आश्चर्य इस बात का था कि उस जैसा जीवट वाला लड़का,प्रेम के मोर्चे से भाग खडा हुआ था.इस पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि उसे भागना नहीं चाहिए,बल्कि लड़ना चाहिए.तब मैंने उसे अर्चना और मेरे विषय में बताया और उसमें मैंने अपनी भूमिका के विषय में भी उसे बताया.फिर हम दोनों काफी देर तक इसी विषय पर बातें करते रहे.दुसरे दिन ईद थी और मैं ईद मिलने के जब इरशाद के यहाँ गया तो उसने मुझे असद के बारे में नए तथ्यों से अवगत कराया.रात को जब मैं वापिस बामनिया आ रहा था तो मैं असद के घर गया और फिर उसे लेकर रेल्वे-स्टेशन आ गया.यहाँ आकर हम-दोनों ने प्रेम,विश्वाश,संबंध,छल और इन सबमें अपनी-अपनी भूमिका एवं उसकी सामाजिकता के सन्दर्भों पर करीब दो घंटे तक बातें की.मैंने उसे हर तरह से समझाया कि जीवन में ऐसे दौर तो आते ही रहते हैं.मनुष्य होने की असली परीक्षा तो ऐसे ही मुश्किल दौरों में होती है.उसे लड़ना चाहिए.मुहँ छिपाने से समस्या हल नहीं होती है.समस्या सामना करने से हल होती है.शक और विश्वाश,दो अलग-अलग पहलु हैं.शक की कोई बुनियाद नहीं होती है,शक अनुमानों पर आधारित होता है और विश्वाश की बुनियाद होती है.असद ने भी स्वीकार किया की मैं सही कह रह हूँ.असद ने कहा की वह मेरी बातों से संतुष्ट है और वह इसे गंभीरता से लेगा.
"कह दें तुम्हे अहले बे-वफ़ा,
हमारी मोहब्बत में वो नफ़ासत कहाँ."

असद तो चला गया,ट्रेन भी चला दी,पर मैं उस पूरी रात सफ़र में सो नहीं पाया.रात भर मैं इस घटना और उन सारी बातों के सन्दर्भ में ही सोचता रहा.एक तरफ असद था और दूसरी तरफ मैं था.यहीं से मैंने अर्चना के विषय में,उससे अपने संबंधों की नई व्याख्या शुरू कर दी.पर मैं अर्चना को अहले बे-वफ़ा कह दूं,ऐसी तो मेरी मोहब्बत में नफ़ासत कहाँ है.न ममता,न लीना,न अर्चना और न ही अन्य कोई......मैं किसे बे-वफ़ा कह दूं.मोहब्बत में कोई बे-वफ़ा नहीं होता है,सिवाय वक़्त के.रात भर ट्रेन की धड-धड में वो सभी दिन स्मृत हो आये,जब मैं अपनी पूरी दीवानगी-अपने पूरे जूनून के साथ अर्चना तक दौड़ा-दौड़ा जाता था और वह मुझे जानवर तक कह देने में नहीं हिचकती थी.वह कभी मेरे इस जूनून को-मेरी इस दीवानगी को समझ नहीं पाई थी.वह तो मेरे प्यार को ही कहाँ समझ पाई थी.उसके दिए वह सभी दंश यकायक पुनः हरे हो गए.उस दौड़ती-भागती ट्रेन में उन घावों में से मवाद बाहर आने लगा.मैं सोचने लगा कि यह वही लड़की है,जिसने मुझे खिलौना समझा और मैं भी सब-कुछ समझाते हुए-जानते हुए भी,इस लड़की की परिस्थितियां देखकर हमेशा अपने स्वाभिमान को एक तरफ सरकाकर,इसके लिए ढेरों सुखों के अक्स लिए इसी के पास आता था और यह मुझे अपने ज़िद्दी-क्रूर पिता के समकक्ष रखकर ही सोचती थी. काश अर्चना,कभी तुमने अपने इस व्यव्हार के विषय में सोचा होता.मुझे कितना तोड़ा है तुमने,यह तो तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकती हो,क्योंकि तुमने कभी प्यार किया ही कहाँ है?
" मैं प्रेम कर,
सब-कुछ पा लेने जैसा-
पा लेना चाहता था,
और,
इस प्रेम-प्रतिदान में -
स्वयं को खो बैठा."
कई-कई पीड़ाओं ने मुझे घेर लिया और मुझसे पूछने लगीं कि,"राज,तुम एक बार फिर अर्चना को लेकर घरौंदा बनाने का प्रयास क्यों कर रहे हो,क्यों फिर इस बेकार-सी झंझट में जुट रहे हो.ज़रा सोचो,यह वही लड़की है,जिसके साथ तुम्हे प्यार कम और पीड़ा कहीं अधिक मिली है.तुम इसके साथ क्या कभी खुश रह पाओगे.अगर शादी के बाद भी इसका यही व्यवहार रहा तो फिर उसका परिणाम क्या होगा? कभी सोचा है......?"
मैं अपनी ही पीड़ाओं का अंतर्नाद नहीं सुन पाया.आँसू अन्दर ही अन्दर बह चले.मैं सोचने लगा कि मैंने अर्चना से कहा है कि यदि मुझसे विवाह के प्रति उसकी मनःस्थिति हो तो ही वह मुझसे विवाह करे.वहीँ असद से भी मैंने यही कहा है कि वह भी अपनी मनःस्थिति पर विचार करे.पर क्या कभी मैंने स्वयं अपने प्रेम का,उस प्रेम से उपजी अपनी मानसिकता का कभी आत्मावलोकन किया है? मेरी स्वयं की मानसिकता क्या कहती है?जैसा कि मेरी पीड़ाओं का अंतर्नाद है,उस अंतर्नाद के परिप्रेक्ष्य में मेरी मनःस्थिति कहाँ है?मैं सबसे तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहा हूँ,पर क्या यह 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली स्थिति नहीं है? मैं बस सोचता चला गया-सोचता चला गया.स्टेशन आते रहे-जाते रहे.दिमाग़ की नसें फट जाएँ और मैं मर जाऊँ,इस हद तक मैं सोचता चला गया....!
'हुए तुम-प्रेम और मैं मौन,
कितने थें पल पास हमारें,
मिलन को उद्धत थें सभी भाव कि-
गीत घुंघरुओं के चुरा ले गया कोई."
मैं बामनिया पहुचाँ तो पता चला कि नासिर मुझे कई बार पूछकर जा चुका है.वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है,यह तो मैंने अनुमान नहीं लगाया और मैं भाईजान के पास गया और उसे जाकर सारी बातें बताईं कि यह नासिर मुझसे मिलने को बेक़रार है.तो भाईजान ने मुझसे कहा कि मिल क्यों नहीं लेते हो.कल ही चलते हैं और मैं भी तुम्हारे साथ चलूगां. मैं राजी हो गया.दुसरे दिन भाईजान और मैं दोनों ही पेटलाबाद,नासिर से मिलने जा पहुचें.
नासिर भाईजान से इजाज़त लेकर मुझे अलग ले गया और उसने मुझे बताया कि वह डॉ.व्यास कि बेटी की शादी में अर्चना से इंदौर में मिला था.यह तो मुझे पता ही था.मैं तो असल बात जानने में उत्सुक था.उसने कहना शुरू किया कि वहाँ शादी में अर्चना ने उसे मेरे बारे में बताया था और कहा था कि वह एक बार राज से ज़रूर मिल ले और मिलकर प्रेम और विवाह के सन्दर्भ में अर्चना के प्रति मेरा दृष्टिकोण क्या है,यह जान ले.हमने करीब दो घंटे बातें कीं,उन पूरी बातों का सार यह था कि वह मुझसे यह अपेक्षा रखता था कि यदि मैं अर्चना से शादी कर रहा हूँ तो फिर उसे पूरी ज़िंदगी निबाहूँ भी.उसके लिए मुझे अपना परिवार भी छोड़ना पड़ेगा.कहीं इन सबके चलते मैं उसे बीच मझधार में न छोड़ दूँ और फिर किसी अन्य लड़की से कोई संबंध न बना लूँ या उससे शादी न कर लूँ.मुझे पूरी तरह अर्चना के प्रति ही समर्पित रहना होगा.नासिर मुझसे आश्वासन चाहता था या मुझे अर्चना के प्रति ही समर्पित रहने का दबाब डाल रहा था,यह मैं समझ नहीं पा रहा था,क्योंकि उसे भी ठीक-ठीक से नहीं पता था कि आखिर वह अपनी बात कैसे मेरे सामने रखे और किस तरह से वह अपने-आप को अर्चना का प्रतिनिधित्व साबित करे,यह वह भी समझ नहीं पा रहा था.पर वह कहता रहा और मैं जहाँ भी ज़रूरी हुआ उत्तर देता रहा.मुझे आश्चर्य हो रहा था कि आज क्यों कर अर्चना नासिर के माध्यम से यह जानना चाहती है कि मैं कहीं उसे धोखा तो नहीं दें जाउगां.यह तो वह मुझसे सीधे ही पूछ सकती थी,नासिर को बीच में क्यों लाई.पागल लडकी,आज भी मुझे समझ नहीं नहीं पाई है.अर्चना में निश्चित रूप से आत्म-विश्वास की कमी है.अभी वह स्वयं के प्रति ही आश्वस्त नहीं तो वह मेरे पति या किसी और के प्रति क्या आश्वस्त होगी.पर यहाँ एक बात तो स्पष्ट हुई कि वह मेरे बारे में सोच तो रही है,पर मुझे लेकर उसकी मानसिकता अभी भी नहीं बन रही है.
नासिर मुझसे कोई स्पष्ट उत्तर लेकर इंदौर में अर्चना के पास जाना चाहता था तो मैंने उससे कह दिया कि वह अर्चना से न मिले और इस विषय में उसे अकेले ही निर्णय लेने दें.मैं यह पसंद नहीं करूगाँ कि आज वह किसी के कहने से मुझसे शादी कर ले और कल को यदि उसे अपने निर्णय पर पछताना पड़े तो वह यह नहीं कहे कि मैं तो इस शादी के लिए तैयार ही नहीं थी,वो तो मैंने फ़लाने के कहने पर शादी कर ली थी,वर्ना....!और मैं इस बात को कभी सहन नहीं कर पाऊगाँ.नासिर भी इस बात सहमत हो गया,पर वस्तुतः वह करेगा क्या,यह मैं कह नहीं सकता था.वह चला गया.
नासिर कहीं से भी मुझे प्रभावित नहीं कर सका.हालाँकि उसने मुझसे कोई भी बेढब बात नहीं की और बड़े ही अदब से पेश आया,पर फिर भी वह मुझे कहीं से भी प्रभावित नहीं कर पाया.उसने जितनी भी डॉ मुझसे बात करी थी वह अर्चना के प्रतिनिधित्व के रूप में ही बात की थी और उसकी यही शैली मुझे पसंद नहीं आई.
मैं सोचने लगा कि यह अर्चना स्वयं मुझसे इस सभी विषयों पर बात क्यों नहीं करती है.मैं उसके हर सवाल का जबाब दूगाँ और शायद कहीं बेहतर ढंग से जबाब दें पाऊगाँ.मुझे अपनी ही कहानी 'आराधना' की याद आ गई.उसमें मैंने एक जगह लिखा है कि,"ममता,जिस प्यार को मैं सहजता से कह गया,उसी प्यार को तुम कभी भी सहजता से नहीं ले पाईं......!"
आज इतिहास फिर अपने आप को दोहरा रहा था.सहजता और असहजता के बीच जीवन फिर हिचकोले ले रहा था.मेरा अर्चना से मिलना ज़रूरी हो गया था.
"हो निस्तब्ध निशा या चांदनी का शोर,
स्वप्न भर बातें हों या करवट बदलती रातें,
मेरी नींद के यह सब सहारे,
फिर कौन डाल जाता है सिलवटें मेरे बिस्तर पर,
दुःख - कौन छोड़ जाता है तुम्हे मेरे द्वार पर."
कितना और कहाँ तक भी चला जाऊं,अंततः वह एक दिन मेरे पास अनाहट आ ही पहुचाँ है.वही 23 मार्च 1994 का दिन,मेरे जीवन का वह पृष्ठ जिसके लिए मैं पिछले कई दिनों से कई-कई पृष्ठ रंग चुका हूँ और स्मृतियों के मेले में यहाँ-वहाँ घूम-भटक भी आया हूँ.इस बहाने स्वयं का काफी मंथन कर लिया है और इस मंथन से जो विष और अमृत निकला है,उसका मैं अकेला ही भागी हूँ.मेरे अन्दर देवासुर संग्राम चल रहा है.पल-प्रतिपल जीत-हार की लहरों पर डूबता-उतराता जा रहा हूँ. इन ढेरों शब्दों के साथ आप सभी को भी बांध लिया है.विषजयी होने अमूर्त कामना के चलते अमृत लुटा रहा हूँ.मैं वही राज हूँ,जिसने अपने जीवन के कई रंग इस फाल्गुन में आपके सामने रख दिए हैं,और पीड़ा का अनुभव तो बाँट दिया है पर उसके एहसास को कभी-भी नहीं बाँट पाऊगाँ.अब इस कथा के सूत्रधार के रूप में बहुत देर से मंच पर हूँ.अब हटता हूँ और प्रस्तुत करता हूँ मेरे जीवन का सर्वथा नया नाटक,"23 मार्च 1994."
"फागुन, तुम आयें हो / यूँ तो /
लेकर हजारों रंग,
पर कितने फीके-फीके......."