सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

शनिवार, 1 नवंबर 2008

नपुंसक-युग ?

"कृष्ण-स्मृति" में ओशो महाभारत में हुए युद्ध पर अपनी बात रखते हुए कहते हैं,"अनेक लोगों का ख्याल है कि अगर कृष्ण ने महाभारत का युद्ध रोका होता तो भारत बहुत ही संपन्न होता और भारत ने बड़े विकास के शिखर छू लिए होते.बात इससे बिल्कुल उलटी है.अगर कृष्ण जैसे दस-पाँच लोग और भारत के इतिहास में मिले होते और हमनें एक महाभारत नहीं,दस-पाँच महाभारत लड़े होते तो हम विकास के शिखरों पर होते."
ज़रा सोंचे, आज हम किस दो-राहे,चौराहे पर आकर खड़े हैं,जहाँ विकास के गीत गाये जा रहे हैं और भारत और इंडिया गुणगान गाये जा रहे हैं.दुनिया के व्यापारी इस देश को अपना बनाए चले आ रहे हैं.हम भी गर्व से सीना ताने,इठलाये-इठलाये घूम रहे हैं.वहीँ हमसे थोड़ी दूर पर आतंकवादी विस्फोट पर विस्फोट किए जा रहे हैं और क्षण भर में ही विकास के नाम का सारा ताना-बाना तार-तार हो जाता है.हमारे आस-पास लाशों का ढेर होता है,धुआं होता है,चीख़-पुकार होती है,वदहवासी होती है.एक आक्रोश होता है.......और क्या होता है,सिवाय अगले विस्फोट के इंतजार के अलावा.
इसी पुस्तक में ओशो आगे कहते हैं,"महाभारत को हुए अंदाज़न पाँच हज़ार साल से ज़्यादा वर्ष हुए होंगे.पॉँच हज़ार वर्षों में हमने फिर कोई बड़ा युद्ध नहीं किया.बाकी हमारी लड़ाईयां बहुत दिवालिया हैं.वे छोट-मोटे झगड़े हैं.उनको युद्ध कहना ठीक नहीं होगा.हमने फिर पाँच हज़ार वर्षों से कोई महाभारत नहीं लड़ा है.अगर युद्ध कि वज़ह से हानि होती है और विध्वंस होता है,तो हमें पृथ्वी पर सबसे ज़्यादा संपन्न और विकासमान होना चाहिए था.लेकिन हालात उल्टी हैं...."
आज हम कर क्या रहे हैं,जिनके हाथों में देश की सत्ता सौंपी है.वह हमसे सबसे पहले शान्ति रखने कि सलाह देते नज़र आते हैं और फिर आतंक के साथ डटकर मुकाबला करने बात दोहराते हैं.पाकिस्तान पर दोष मड़ते हैं ,अमेरिका से आतंक का रोना रोते हैं.मुआवजा बाँटते हैं.जांच कमेटियां बैठाते हैं और हम भी भोले हैं, जो इनकी बातों में आ जाते हैं और फिर एक और विस्फोट का इंतजार.....हमे होता है.
ओशो आगे कहते हैं,"जिन मुल्कों ने युद्ध लड़े हैं,वे बहुत विकासमान हैं, पहले महायुद्ध के बाद लोग सोचते थे कि जर्मनी अब सदा के लिए टूट जाएगा,लेकिन दुसरे महायुद्ध में जर्मनी,पहले महायुद्ध के जर्मनी से अनंतगुना शक्तिशाली होकर प्रगट हुआ-सिर्फ बीस साल के फा़सले पर.कोई सोच भी नहीं सकता था कि पहले महायुद्ध के बाद जर्मनी,दूसरा महायुद्ध कर भी पायेगा.दो सौ - चार सौ साल तक भी कर पायेगा,इसकी भी संभावना नहीं थी.लेकिन बीस साल में जर्मनी अनंतगुना शक्तिशाली होकर बाहर आ गया.पहले महायुद्ध ने उसकी शक्तियों को जिस तीव्रता पर पहुँचा दिया था,उस तीव्रता का उसने उपयोग कर लिया."
यह एक कड़वा सच है कि हमने शान्ति-अहिंसा का दामन बहुत ज़ोर से पकड़ लिया है और सन् 1947 के बाद से उसे और ज़ोर पकडे हुए हैं.हम युद्ध कि बात दूर कोई बड़ी कड़ी कार्यवाही करने भी डर जाते हैं-हिचकिचा जाते हैं.स्वतंत्रता के बाद हमें सिर्फ एकही उदाहरण देखने को मिलता है और वह है,सन् 1982 का "आपरेशन ब्लू स्टार",जहाँ श्रीमती इन्द्रा गाँधी ने आतंकवाद के विरुद्ध एक बहुत ही बड़ा और बहुत ही साहसी कदम उठाया था.उनकी हत्या के बाद हम फिर अपनी नपुंसकता कि खोल में जा घुसे.

ओशो यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं,"अभी पिछले महायुद्ध में लगता था कि अब शायद युद्ध होना बहुत मुश्किल हो जाएगा और जो दो देश सबसे ज़्यादा मिटे थें,जर्मनी और जापान,वे दोनों के दोनों फिर से संपन्न होकर खड़े हों गये.आज जापान को देखकर कोई कह सकता है कि बीस साल पहले यहाँ एटम बम गिरा होगा? अज जापान को देखकर कोई नहीं कह सकता है.हिंदुस्तान को देखकर हम ज़रूर कह सकते हैं कि यहाँ एटम बम गिरते ही रहे होगें.हमारी दुर्दशा देखकर लगता है कि यहाँ युद्ध होता ही रहा होगा."
आज हम कितने लाचार और बेबस हैं और दूसरी तरफ अमेरिका और इस्राइल हैं जो पुरी दुनिया में जाकर अपने विरुद्ध पनपे आतंकवाद से लड़ रहे हैं और यही देश जिन्हें हम अपना अच्छा मित्र मानते हैं,हमें संयम से रहने की सलाह देते हैं,जबकि आतंकवाद से सबसे ज़्यादा हम ही पीड़ित हैं.क्या बाकई हम आज इतने अपाहिज-इतने नपुंसक हो गये हैं कि आज हम अपने ही वीरो की गाथा को अपने पाठ्यक्रमों से बाहर लाकर उनके कदमों पर चलने का भी सहस नहीं जुटा पा रहे हैं और आतंकवादी हैं कि विस्फोट पर विस्फोट किए जा रहे हैं.हम क्यों प्रभावी कार्यवाही करने डरते हैं-क्यों सेना को वापिस बैरकों में लौटने का आदेश दे देते हैं,जबकि वो अपनी जान तक लगा देने को आतुर बैठे हैं,क्यों आतंकवादियों को सेफ पैसेज दे देते हैं,जबकि वह पूरी तरह से घिर चुके होते हैं.....ऐसे कई क्यों हैं,आपके पास भी होगें.
ओशो कहते हैं,"यह भी सोचने जैसा है कि महाभारत जैसा युद्ध विपन्न समाजों में घटित नहीं होता है.युद्ध के घटने के लिए भी संपन्न होना ज़रूरी है और संपन्नता के लिए भी युद्ध घटना ज़रूरी है.असल में वह चुनौती के क्षण हैं.कृष्ण ने जिस युद्ध में हमें उतारा था,वह युद्ध में सतत उतरे होते...क्योंकि इसे हम सोचे,आज करीब-करीब पश्चिम उस जगह है जहाँ महाभारत के दिनों में हम पहुँच चुके थें.आज जितने अस्त्र-शस्त्रों की बात है,करीब-करीब वे सभी किसी न किसी रूप में महाभारत में प्रयोग किए गये थें.बड़ा संपन्न,बड़ा प्रतिभाशाली और बहुत वैज्ञानिक उन्नत शिखर था.उस युद्ध से कुछ हानि नहीं हो गई.उस युद्ध के बाद जो निराशा का क्षण हमनें पकड़ा,उस निराशा के क्षण का दुरूपयोग हुआ.आज पश्चिम में भी शांतिवादी की बात चल रही है और अगर पश्चिम ने भी शांतिवादी की बात पकड़ ली तो उसका भी पतन शुरू हो जाएगा जैसा हमारा हुआ है.वह भी वहां पँहुच जाएगा,जहाँ महाभारत के बाद हम पहुंचे हैं."
ज़रा सोचे,थोड़ा विचार करें,कुछ प्रश्न पूछे स्वयं से - कुछ उत्तर ढूंढें स्वयं में.
आज इतना ही....शेष फिर.

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

इस ज्योति पर्व पर.....तमसो माँ ज्योतिर्गम्यो.

इस ज्योति पर्व हम ज़रा विचार करें कि यह ज्योति पर्व हम मना किसलिए रहे हैं ? क्या कोसी कि उन मृतात्मओं के लिए जिनके खुशी एक इतिहास होकर बह गई है या उन लोगों के प्रति जो उत्तर-बिहार के होने के कारण देश की धड़कन में अपने ही देशवासियों के हाथों से मारे जा रहे हैं या मंदी के उस तूफां के प्रति,जहाँ अब सब-कुछ तबाह हो चुका है और हम ठीक-ठीक ढंग से मर्सिया भी नहीं पढ़ पा रहे हैं क्योंकि हमारे काबिल वित्त मंत्री और काबिल अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि अभी हम सुरक्षित हैं और अगर हम सुरक्षित हैं तो कब तक सुरक्षित हैं यह हमें कौन और कब बताएगा या उस डील के प्रति,जहाँ 2050 में हमें क्या चाहिए,बैशाखियों पर टिकी उर्जा (?) या उर्जा के नाम पर गु़लामी या उन बम विस्फोटों के प्रति जहाँ हम बयान और बयान के सिवा कुछ भी कर पाने स्वयं को पूरी तरह अक्षम पाते हैं.मौतों पर दिल खोलकर मुआवज़ा बाँटते हैं और अगले विस्फोट के इन्तजार में लग जाते हैं या उन किसानों के प्रति जो आत्महत्या कर रहे हैं - लगातार कर रहे हैं,तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि उस क़र्ज़ माफी का क्या हुआ जिसके पीछे यही आत्महत्याएं ही थीं.तब क्या वह सिर्फ वोट पाने के लिए किया गया इनवेस्टमेंट ?ऐसे ढेरों प्रश्न हैं जो इस ज्योति पर्व पर मुझे मथ रहे हैं. आप सभी खुशियाँ मनाने में व्यस्त हैं और होना भी चाहिए क्योंकि हम भी अपने-अपने व्यक्तिगत जीवन में ढेरों तनावों से गुजर रहे हैं और हमे भी क्षण भर के लिए ही सही,इन तमाम तनावों को दरकिनार करने के लिए खुशी का सहारा चाहिए ही.आख़िर हम भी इन्सान हैं और घर-परिवार लेकर बैठे हैं.दुख तो जीवन का विस्तार है, ऐसा ही कहा था बुद्ध ने,आज दुःख समाचार है,अर्थात दुःख हमारे जीवन में और गहरा गया है.52 पेज का पूरा अख़बार ही सुबह-सबेरे ही हमारे व्यक्तित्व पर छा जाता है और फिर दिन-भर हम उसे ओढ़े-ओढ़े यहाँ-वहां घूमते रहते हैं.
चलिये, ज्योति पर्व कि तैयारियां करते हैं.जो हुआ - सो हुआ और जो आगे घटनेवाला है उस पर आपका क्या नियंत्रण होगा.आप तब भी एक समाचार से ज़्यादा नहीं थे और आगे भी एक समाचार से ज़्यादा नहीं होगें.प्रकाश का पर्व है-खुशियों की बारात आपके दिल के द्वार पर खड़ी है,आप उसका स्वागत करें.इस आर्थिक घटाटोप में भी लक्ष्मीजी आप तक आने को आतुर है- आप विधिपूर्वक आव्हान करें.
एक प्रार्थना करें - " तमसो माँ ज्योतिर्गम्यो"हे ईश्वर मुझे अंधकार से प्रकाश कि और ले चलो,मेरा जीवन उल्लास-उमंग-उत्साह-उत्सव-प्रेम-आनंद की ज्योति से भर दो-प्रज्ज्वलित कर दो और जैसा मेरे लिए कर रहे हो,वैसा ही मेरे अपनों के लिए भी कर दो क्योंकि मैं तेरी यह अनुकम्पा बाटूँगा तो अपनों के ही संग,उन्हें भी ज्योतिर्मय कर दो.
शुभ दीपावली.

आज इतना ही.......शेष फिर.

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

हिन्दी सिनेमा

आज मैं हिन्दी सिनेमा के विषय में फिर से लिखने जा रहा हूँ. हिन्दी सिनेमा ने बीते एक दशक में वह काम किया है जो राष्ट्रवाद की धुरी पर कोई नेता नहीं कर पाया है और वह काम है देश को सही अर्थों में एकता का पाठ पढ़ाना.सिनेमाई एकता एक मेलोड्रामा लग सकती है पर सच यह है कि यही मेलोड्रामा बिना कोई भाषण दिए,बिना कोई उपदेश दिए,बिना कोई नारा दिए आपको अपने से-अपने देश से बांधे रखता है.यहाँ देशभक्ति कोई दिखावा नहीं वरन एक सच है,जिसे एक ही थिएटर में कई-कई समूह जो भिन्न-भिन्न वर्ग से आतें हैं,एक साथ बैठकर सिनेमा का आनंद लेते हैं और एक संतोष के साथ टाकिज से बाहर निकलते हैं.अपने निजी समारोह में फिल्मी गानों की धुन पर थिरकते हैं,बिना किसी पूर्वाग्रह के.यह लोग तब किसी भी आन्दोलन की परवाह भी नहीं करते हैं कि कौन मराठी है और कौन उत्तरी है या कौन इस देश के किस भाग से आया है,क्या करता है,कौन-सी भाषा बोलता है,किस संस्कृति को मानता है.सब बातें गौण हो जाती हैं, जब बात हिन्दी सिनेमा कि आती है,जहाँ सब-कुछ एक है,जहाँ सही अर्थों में भारत बसता है - भारतीयता बसती है.
आज इतना ही......शेष फिर.