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बुधवार, 7 जनवरी 2009

उपन्यास- पल-प्रतिपल -(भाग-दो)

पल-प्रतिपल -(भाग-दो)

"सुनो दिलदार मेरे,
आओ की किसी ख्वा़व की ताबीर करें,
आज कुछ ऐसा हम-तुम करें,
कि हो भी इंतजार बहारों को आने का,
एक ऐसी ज़मीं मोहब्बत की तैयार करें."

यह गाथा उसी दिलदार की है.इस गाथा में भी प्रेम को पा लेने की उत्कंठा में स्वयं को खो देने की चाहत है.प्रेम में पूरी तरह ख़ुद को डुबो देने की लालसा है.प्रेम कर प्रेम जैसा सब-कुछ पा लेने की इच्छा है.और खोने की धुन में यह परवानगी ख़ुद शमां बन जाने की दास्ताँ है."जलता हुआ दीया हूँ, मगर रोशनी नहीं....." की तर्ज़ पर.यह प्रेम भी बड़े अजीब किरदार हमारे आस-पास जुटा देता है और फिर यही प्रेम उन्हें आपसे खेलने की पूरी-पूरी इजाज़त भी दे देता है. दरअसल प्रेम में आप, आप कहाँ रह जाते हैं......आप तो वो हो जाते हैं, जो आपका प्रेम होता है और यही प्रेम का हो जाना ही दुनिया को कई-कई बातें कहने का अवसर देता है.यह उसी प्रेम की कथा है.
अर्चना का आगमन मेरे जीवन में,जीने का एक नया संदेश फूँक गया था. अब मुझे लगता था की अर्चना के साथ मेरी परिस्थितियां एकदम अलग हैं.ममता के समय तो मैं कुछ भी नहीं था.स्कूल-कालेज में पढ़नेवाला एक मामूली लड़का, जिसके पास आज कुछ भी नहीं है सिवाय सपनों के,जो इस उम्र में बहुतायत हुआ करते हैं और उन सपनों पर सवार होकर किसी भी आसमान तक जाया जा सकता है पर यथार्थ इस सफर की वसूली बहुत निर्ममता के साथ करता है, जैसा कि उसने मुझसे इन सपनों की कीमत वसूली थी,मुझे ममता से अलग करके.पर अब मुझे लगता था कि अब परिस्थिति एकदम अलग हैं, मैं एक बेहतर नौकरी में हूँ.सपने और सच की दूरियां समझने लायक परिपक्व्व उम्र हो चुकी है.ऐसे में यह प्रेम जीवन-पथ पर साथ जीने-मरने की रस्म अदा अवश्य करेगा. पर शायद यहाँ भी पीड़ा अनाहट चली आई.ओशो ने कहीं लिखा है,"प्रेम अपने साथ पीड़ा अवश्य लता है.आप प्रेम करेंगे तो पीड़ा अवश्य ही मिलेगी."
अर्चना, उसे मैं प्यार से आर्ची कहकर बुलाने लगा था.उसकी अपनी समस्याएँ थीं. आर्ची के पिता की आँखें ख़राब ही तथा वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थें,चूँकि उन्हें ठीक-ठीक से दिखाई नहीं देता था तो आर्ची अक्सर उन्हीं के साथ रहा करती थी.उनकी नौकरी यहाँ बामनिया से करीब सौ किलोमीटर दूर राणापुर के पास समोई नमक गॉंव में थी. दशहरे के आस-पास उसके पिता उसे अपने साथ लेकर चले गए और फिर वहीँ से गुजरात में नवसारी में वह अपनी आँख के आपरेशन के चले गए.यह सब मुझे पता नहीं था.मैं अर्चना का यहाँ बामनिया में इंतजार कर रहा था कि नवरात्री के बबाद जब वो यहाँ आएगी तो मैं उसके साथ रतलाम जाउगां.पर मैं यह सोचता ही रहा और वो नहीं आई. मैं थोड़ा निराश हो गया और यह पता करने में जुट गया तब मुझे यह सब बातें पता चलीं.वहीँ मुझे पहली बार उसके पिता के विषय में भी पता चला . यह एक पढ़ा-लिखा बौद्धिक व्यक्ति है.साहित्य और कला में उसकी खूब रूचि है,पर सामाजिक-पारिवारिक रूप से ठीक विपरीत धूरी पर खड़ा हुआ है."यमराज", जैसा कि मुझे आर्ची की छोटी बहनों ने बताया था,उन्होंने अपने पिता का यही नाम रख रखा था क्योंकि उनका अपने घर में कुछ इसी तरह का व्यवहार था.मेरे लिए यह विचित्र बात थी.पर मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया.आर्ची घर की सबसे बड़ी सदस्य थी.कुल उम्र २१ साल.खैर जब हम लंबे विछोह के बाद मिले तो मैंने उससे कहा,"मुझे तुम्हारा इस तरह जाना अच्छा नहीं लगता है." तब उसने मुझसे कहा कि, "अभी मैं दूसरे बंधन में हूँ, जब तुम्हारे बंधन में बंधुगी, तब तुम ही देखना."
यह बात कितनी सच थी. मैं इसमें नहीं पड़ना चाहता. हाँ, यदि वह मुझसे दूर रहती तो ऐसा ज़रूर लगता था कि अब विश्व में करने को और कुछ नहीं रह गया है.कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और स्वयं को असहाय महसूस करता था.संगीत का मुझे बहुत शौक है और मैंने संगीत के प्रत्येक आयाम को जानने-छूने की कोशिश भी की है, यह अलग बात है कि मैं इसमें अनाड़ी ही सिद्ध हुआ हूँ. अपनी किशोरावस्था में मेरे पास मेरे मित्र का वाकमेन था जिसे मेरे पिता ने मुझसे छीन लिया था,क्योंकि उन्हें लगता था कि मैं बिगड़ रहा हूँ और अपनी पढ़ाई पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रहा हूँ. उन्ही दिनों मैंने एक स्वप्न बुना था कि एक दिन मेरे पास अपना टेप-रिकार्डर होगा.जब यहाँ मेरी नौकरी लगी, तब यह स्वप्न मुझे यदा-कदा आकर छेड़ जाया करता था.परन्तु मुझे सिर्फ़ रूपये नौ सौ चालीस ही बतौर तनख्वाह के मिला करते थें, जिसमे मेरा रहना-खाना और अन्य खर्चे भी शामिल थें. अतः यह स्वप्न मैं कैसे साकार करता. फिर भी यह स्वप्न एक आकांक्षा बन मुझे पर हावी हो रहा था.मैं यह आकांक्षा पूरी करना चाहता था पर एक तरफ़ मेरा प्रेम भी था.आर्ची उस समय समोई में थी और मुझे लगता था कि अब मेरे सारे सुख तो उसी के साथ जुड़े हैं और उसने मुझे बताया था कि वहां समोई में न बिजली का पता है, न रेडियो-न टेप,अतः मैं यहाँ कौन-से शौक पालता.हम एक-दूसरे से प्यार करते थें, पर आर्ची हमेशा ही मुझसे कहती थी कि मैंने तो आज-तक तुमसे यह कहा ही कहाँ कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ. मुझे इसका दुःख तो होता पर मैं हंसकर टाल जाया करता था.समोई से उसके आने कि तारीख निश्चित हुआ करती थीं, अतः मैं राणापुर पहुँच जाता था और फिर हम-दोनों ही वहां से साथ-साथ बामनिया तक आते थें,रास्ते में ढेर सारी बातें हुआ करती थीं.साथ में उसके पिता भी रहते थें.मेरा ऑफिस जिस भवन में था वह उन्ही का था, अतः उनसे मेरा परिचय होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा और परिणामतः मेरा आर्ची के घर भी आना-जाना शुरू हो गया.इससे हमारा मिलन सुगम हो गया.हालाँकि प्रेम के विषय में मेरी धारणा यही रही है कि यदि प्रेम छुपाने से नहीं छुपता है तो उसे छुपाओ भी मत,बल्कि जैसे ही प्रेम हो जाए तो और सहज-सरल हो जाओ.
इसी सहज-सरल प्रेम ने आर्ची के घर की देहरी पर करते ही जीवन की बिसात पर एक नई बाज़ी शुरू कर दी.
अजीब शै है यह ज़िन्दगी,
सोने-सा इसे बनाया,
चांदी-सा इसे सजाया,
माटी के मोल बिक चली जिंदगी."
ज़िन्दगी की यह शै दीवाली के दूसरे दिन ब्रह्म-मुहूर्त में प्रारम्भ हुई.उस ब्रह्म-मुहूर्त में आर्ची मेरी बाँहों में थी और उसी ब्रह्म-मुहूर्त में हमारे प्रेम की निष्ठुर नियति अमरबेल की तरह बढ़ने लगी थी. उस दिन जब सूर्य अपनी रश्मियों से धरा का श्रृंगार कर रहा था,हम-दोनों के प्रेम के किस्से बामनिया के घर-घर में पहुँच चुके थें.मुझे याद है कि एक दिन आर्ची ने मुझसे कहा था कि,"ज़्यादा प्यार अच्छा नहीं होता है."
ज़िन्दगी की राह में हर शख्स रहज़न ही मिला,
जब भी मिला-जो भी मिला एक दर्द-सा मिला."

जुलाई से प्रारम्भ इस प्रेम-कथा में यह शे'र नवम्बर में जुड़ गया था. है न प्रेम विचित्र. मैंने "आराधना' या "दस्तक" में ग़लत नहीं लिखा था कि प्रेम अपने तमाम आनन्द और सुख के बाद अपनी विविधता और विचित्रता के लिए भी जाना जाता है. ममता के बाद यह मेरा दूसरा अनुभव था.हालाँकि अब परिस्थितियां भिन्न थीं,फिर भी प्रेम यहाँ भी अपनी शाश्वतता के साथ उपस्थित था ही. ममता के साथ मेरा बचपन बीता था और अपने केशौर्य का प्रारम्भ भी उसी के साथ किया था. हम बचपन में खेलते-खेलते कब बड़े हो गए और इस बड़ेपन ने कब हमारे बीच दूरियां बनानी प्रारम्भ कर दी थीं हम दोनों ही नहीं जान पाए.पर उसके लिए मैं ज़्यादा दोषी था.ममता तो शायद ही यह जान पाए कि हमारे बीच यह सब आख़िर क्या था,क्या यही प्यार था.ममता के साथ मैं कभी भी खुलकर नहीं रह पाया था.मनोविज्ञान में जिसे 'प्लेटोनिक लव' कहते हैं,ममता के साथ मेरे संबंध प्लेटोनिक ही ज़्यादा थें. वह लड़की कभी भी मुझे समझ नहीं पाई.हाँ,उसने कभी मुझे कोई पीड़ा या दुःख नहीं पहुँचाया.मैं हर बार उससे इस आशा से मिलता था कि अब तो वह बदल चुकी होगी,अब तो वह मुझे समझेगी.....हालाँकि आज यह बात मैं अपनी उम्र के तीसवें साल में बहुत सहजता से लिख रहा हूँ, पर उस समय सहज शब्द से मेरा परिचय ही कहाँ हुआ था.तब मैं अधीरता का मित्र हुआ करता था.सुबह के स्वप्न संध्या के नाम कर देता था और संध्या के स्वप्न सुबह की झोली में डाल देता था.स्वप्न मुझसे और मैं स्वप्नों से यही अठखेलियाँ किया किया करते थें.ममता को मेरे परती न बदलना था, न ही वह बदली. यहाँ तक मेरी 'दस्तक' की आहट भी वह अनसुनी कर गई थी.
न तुम मेरे और न मैं तुम्हारा,
पर संबंधों का गणित है उलझा-उलझा,
हर पल कोई अर्थ लिए हुए,
उन आंखों में झाँककर तो देखो."

आंसुओं से परे जीवन सूखे पत्ते की तरह जब आर्ची के द्वार तक जा पहुँचा,उसमें बड़ा परिवर्तन यह आया कि वह मुझसे कटने लगी. मैंने अपनी डायरी में 5 जुलाई 1990 को संबंधों के विषय में लिखा था कि स्वार्थ कप्रभाव जीवन में इतना बढ़ता जा रहा है कि आज जब कोई नया संबंध बनता है अथवा कोई पुराना संबंध टूटता है तो मुझे कोई अचरच नहीं होता है.पर आर्ची को लेकर मैं अपने ही शब्दों के विरुद्ध जा खडा हुआ.उसका इस तरह मुझसे कटना मुझे सहन नहीं हुआ.दूसरी तरफ़ ढेरों बातें लिए कई-कई मुहँ थें."राज शायद तुम्हे मालूम नहीं, यह लोग अपने को कहने को जैन कहते हैं, पर यह लोग असल में जैन नहीं हैं.इनकी असल जात तो ख़ुद इन्हें ही नहीं मालूम है.यह लोग वर्णसंकर हैं.इनके पिता अपनी जवानी में बहुत अय्याश रहे हैं.शबाब और शराब के विशेष शौकीन....किसी आदिवासी महिला से इनके संबंध भी रहे हैं और उनसे इनके भाई-बहन भी हैं,फिर मास्टरजी ने एक जैनी लड़की से शादी कर ली और ख़ुद को जैन लिखने लगे........" और क्या-क्या सुनोगे. अर्चना का भी एक लड़के से संबंध रहा है और भी एक मुसलमान लड़के से. ऐसी ही बदनामी के चलते यह परिवार पेटलाबाद से यहाँ बामनिया में रहने को मजबूर है.अब बाप की क्षमता इतनी नहीं है कि वह चार-चार लड़कियों की शादी कर सके. अतः वह कहीं भी - कैसे भी इन लड़कियों को ठीकाने लगाना चाहता है. अगर यह लड़कियां अपनी मर्जी से शादी भी कर लें तो उसे क्या करना है,क्या आपत्ति होगी.
किस्से कहानियाँ हैं यहाँ हर मुहँ में,
और होंठ सिले हैं हमारे अपने ही डर से,
होगीं क्या आरजुएँ अब जवाँ यहाँ,
कि है फूलों से रिश्ता पर दामन में कांटें ज़िन्दगी."

कैक्टस मेरे घर-आँगन में भी फैलने लगे.उनकी चुभन मुझे असहज करने लगी.इन किस्सों में कुछ तो सच्चाईयां तो होगी ही,तब तो यह किस्से यहाँ हर मुहँ में फैले हुए हैं.यह सच था कि आर्ची के पिता के विवाहोत्तर संबंध थें और उसके दादा के भी ऐसे ही कुछ संबंध थे और यह भी सच था की यह परिवार वर्णसंकर-विश्रृंखलित था.मुझे यह सब बातें अंतर तक आहत कर जाती थीं,पर प्रेम क्या कभी 'इस या उस बात' में बंधा है.तब मुझसे ही यह आशा क्यों.मैं किसी भी बात पर पर ध्यान नहीं देता था. पर जिस बात से मुझे सबसे ज़्यादा दुःख पहुँचा था वह बात थी कि आर्ची मुझसे दूर-दूर रहने लगी थी,जैसे कि हम कभी मिले ही नहीं थे.मैं कभी उसकी जिंदगी में आया ही नहीं. मैं घर के पीछे गैलरी में खड़ा उसकी एक झलक पाने के लिए घंटों इंतजार करता और वह बाहर किसी काम से आती पर मुझे देखे बगैर या देखकर अनदेखा कर जाती और मैं अपने ही दुःख में डूबता-उतराता रह जाता.उसका यह कहना कि उसने अभी मुझसे यह कहा ही कहाँ है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ.......हाँ,सचमुच उसने मुझसे प्यार नहीं किया.
मेरे साथ यहाँ एक और समस्या थी.संबंधों को लेकर मैं बड़ा अंतर्मुखी रहा हूँ. कहने को तो मेरे संबंधों कि सूची लम्बी है परन्तु वह लोग जिनके सामने मैं अपने जीवन की पुस्तक के पन्ने खोलकर रख दूँ, ऐसे सिर्फ़ दो-चार मित्र ही हैं और वह भी सब भोपाल में.यहाँ आकर तो आज तक ऐसे संबंध बन ही नहीं पाए हैं.हालाँकि यहाँ मेरे रूम-पार्टनर धीर और नन्द हैं .दोनों ही ग्वालियर से यहाँ मेरे साथ ही नौकरी करने आए हैं. धीर तो वापिस लौट गया और फिर नन्द और मैं ही रह गए.हम दोनों के सम्बन्ध ऐसे नहीं थे कि वह मेरे जीवन की पुस्तक का उन्मान भी पढ़ पता.हम दोनों का एक ही छत के नीचे रहना सिर्फ़ परिस्थितियों के आगे एक समझौते से ज़्यादा नहीं था.इन सबके विपरीत धूरी पर एक और व्यक्तित्व था- युनुस खान का,जिसे हम पठान या भाई जान कहते थे.पठानों जैसा लंबा-पूरा और ऐसी ही मस्त मौला तबियत का मालिक था. ग़ज़ल और शतरंज का शौकीन.एक अन्य नाम है राजेश का, यह व्यक्ति पी.डब्लू.डी. में उपयंत्री था.इसको दुनिया के विषय पर वाद-विवाद का शौक था.भांग का बेहद शौकीन.भांग की तरंग में इसके पास या तो दुनिया के हर मसले का हल होता था या फिर हर मसले में से एक और नया मसला होता था.इसी के साथ मैंने भांग का स्वाद भी चखा था, पहली और आखिरी बार.फिर इसने जब भी कहा मैंने बाबा भोलेनाथ को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और भांग से तौबा कर ली.इन सबके विषय में बताने का अर्थ यही है कि मैं इन सबसे दिन-रात जुड़ा हुआ था.कारण सिर्फ़ इतना था कि मेरा मकान बामनिया के बाज़ार के मध्य में था और काफी बड़ा भी था,अतः पठान और राजेश की बैठक भी यहीं थी.शतरंज और चाय की चुस्कियों के बीच भाईजान इसे ऐशगाह कहा करता था.पर, एक राज, मैं राज.....इन सबसे बहुत दूर था.बामनिया इतनी छोटी जगह है कि यदि आप यदि यहाँ एक सिरे पर छींक दे तो दूसरे सिरे पर लोगों को पता चल जाएगा.अतः यह सब भी आर्ची और मेरे बीच के सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव के साक्षी थें.फिर भी ऐसा बहुत कुछ हमारे बीच घट रहा था, जिनसे यह सब भी अनभिज्ञ थे.जब मेरे पास ढेरों कही-अनकही बातें इकठ्ठी हो जाती तो मैं भोपाल में अपनी पुरानी मित्र-मण्डली में जा धमकता और फिर बियर की चुस्कियों के बीच हर बात हाला बन जाती. इस तरह मैं कुछ हल्का हो जाता और पुनः भर जाने के लिए बामनिया वापिस लौट आता.



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