सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

इस ज्योति पर्व पर.....तमसो माँ ज्योतिर्गम्यो.

इस ज्योति पर्व हम ज़रा विचार करें कि यह ज्योति पर्व हम मना किसलिए रहे हैं ? क्या कोसी कि उन मृतात्मओं के लिए जिनके खुशी एक इतिहास होकर बह गई है या उन लोगों के प्रति जो उत्तर-बिहार के होने के कारण देश की धड़कन में अपने ही देशवासियों के हाथों से मारे जा रहे हैं या मंदी के उस तूफां के प्रति,जहाँ अब सब-कुछ तबाह हो चुका है और हम ठीक-ठीक ढंग से मर्सिया भी नहीं पढ़ पा रहे हैं क्योंकि हमारे काबिल वित्त मंत्री और काबिल अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि अभी हम सुरक्षित हैं और अगर हम सुरक्षित हैं तो कब तक सुरक्षित हैं यह हमें कौन और कब बताएगा या उस डील के प्रति,जहाँ 2050 में हमें क्या चाहिए,बैशाखियों पर टिकी उर्जा (?) या उर्जा के नाम पर गु़लामी या उन बम विस्फोटों के प्रति जहाँ हम बयान और बयान के सिवा कुछ भी कर पाने स्वयं को पूरी तरह अक्षम पाते हैं.मौतों पर दिल खोलकर मुआवज़ा बाँटते हैं और अगले विस्फोट के इन्तजार में लग जाते हैं या उन किसानों के प्रति जो आत्महत्या कर रहे हैं - लगातार कर रहे हैं,तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि उस क़र्ज़ माफी का क्या हुआ जिसके पीछे यही आत्महत्याएं ही थीं.तब क्या वह सिर्फ वोट पाने के लिए किया गया इनवेस्टमेंट ?ऐसे ढेरों प्रश्न हैं जो इस ज्योति पर्व पर मुझे मथ रहे हैं. आप सभी खुशियाँ मनाने में व्यस्त हैं और होना भी चाहिए क्योंकि हम भी अपने-अपने व्यक्तिगत जीवन में ढेरों तनावों से गुजर रहे हैं और हमे भी क्षण भर के लिए ही सही,इन तमाम तनावों को दरकिनार करने के लिए खुशी का सहारा चाहिए ही.आख़िर हम भी इन्सान हैं और घर-परिवार लेकर बैठे हैं.दुख तो जीवन का विस्तार है, ऐसा ही कहा था बुद्ध ने,आज दुःख समाचार है,अर्थात दुःख हमारे जीवन में और गहरा गया है.52 पेज का पूरा अख़बार ही सुबह-सबेरे ही हमारे व्यक्तित्व पर छा जाता है और फिर दिन-भर हम उसे ओढ़े-ओढ़े यहाँ-वहां घूमते रहते हैं.
चलिये, ज्योति पर्व कि तैयारियां करते हैं.जो हुआ - सो हुआ और जो आगे घटनेवाला है उस पर आपका क्या नियंत्रण होगा.आप तब भी एक समाचार से ज़्यादा नहीं थे और आगे भी एक समाचार से ज़्यादा नहीं होगें.प्रकाश का पर्व है-खुशियों की बारात आपके दिल के द्वार पर खड़ी है,आप उसका स्वागत करें.इस आर्थिक घटाटोप में भी लक्ष्मीजी आप तक आने को आतुर है- आप विधिपूर्वक आव्हान करें.
एक प्रार्थना करें - " तमसो माँ ज्योतिर्गम्यो"हे ईश्वर मुझे अंधकार से प्रकाश कि और ले चलो,मेरा जीवन उल्लास-उमंग-उत्साह-उत्सव-प्रेम-आनंद की ज्योति से भर दो-प्रज्ज्वलित कर दो और जैसा मेरे लिए कर रहे हो,वैसा ही मेरे अपनों के लिए भी कर दो क्योंकि मैं तेरी यह अनुकम्पा बाटूँगा तो अपनों के ही संग,उन्हें भी ज्योतिर्मय कर दो.
शुभ दीपावली.

आज इतना ही.......शेष फिर.

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

हिन्दी सिनेमा

आज मैं हिन्दी सिनेमा के विषय में फिर से लिखने जा रहा हूँ. हिन्दी सिनेमा ने बीते एक दशक में वह काम किया है जो राष्ट्रवाद की धुरी पर कोई नेता नहीं कर पाया है और वह काम है देश को सही अर्थों में एकता का पाठ पढ़ाना.सिनेमाई एकता एक मेलोड्रामा लग सकती है पर सच यह है कि यही मेलोड्रामा बिना कोई भाषण दिए,बिना कोई उपदेश दिए,बिना कोई नारा दिए आपको अपने से-अपने देश से बांधे रखता है.यहाँ देशभक्ति कोई दिखावा नहीं वरन एक सच है,जिसे एक ही थिएटर में कई-कई समूह जो भिन्न-भिन्न वर्ग से आतें हैं,एक साथ बैठकर सिनेमा का आनंद लेते हैं और एक संतोष के साथ टाकिज से बाहर निकलते हैं.अपने निजी समारोह में फिल्मी गानों की धुन पर थिरकते हैं,बिना किसी पूर्वाग्रह के.यह लोग तब किसी भी आन्दोलन की परवाह भी नहीं करते हैं कि कौन मराठी है और कौन उत्तरी है या कौन इस देश के किस भाग से आया है,क्या करता है,कौन-सी भाषा बोलता है,किस संस्कृति को मानता है.सब बातें गौण हो जाती हैं, जब बात हिन्दी सिनेमा कि आती है,जहाँ सब-कुछ एक है,जहाँ सही अर्थों में भारत बसता है - भारतीयता बसती है.
आज इतना ही......शेष फिर.