सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 4 मई 2009

मेरा कथा-संसार.

उऋण


शहर की धनाड्य कालोनी में खड़ी हुई वह एकमात्र कोठी अपने वैभव और शिल्प के कारण पूरे शहर की शान समझी जाती थी.वह कोठी अपने अन्दर रहने वाले के व्यक्ति के कलाकौशल,प्रकृतिप्रेम ,सह्रदयता ,वैभव और कवि मन का परिचय देती थी.पर कोठी के आस-पास और अन्दर तक एक गहरी निस्तब्धता छाई रहती थी,जो बरबस ही किसी को ठिठक जाने को विवश कर देती थी.एक दिन सहसा ही उस कोठी की उस गहन निस्तब्धता को भंग करते हुए एक टैक्सी कोठी के द्वार पर आकर रुकी.टैक्सी से एक सुदर्शन नौजवान निकला.उसकी कदकाठी और रोबदाब से पता चलता था कि वह सेना का कोई उच्च अधिकारी होगा.टैक्सी को वापिस भेजकर वह नौजवान कोठी की और बढा,पर कोठी को देखकर कुछ क्षणों के लिए ठिठककर खडा हो गया.शायद उसे भी उस रहस्यमय निस्तब्धता ने अपने मोहपाश में बाँध लिया था.एक आकर्षक युवक को कोठी के द्वार पर आया देखकर,माली दौडा-दौडा आया,"क्या काम है साहब?"
नौजवान मोहपाश से मुक्त होता हुआ बोला,"क्या यही प्रियम्बरा कोठी है?"
"हाँ,साहब यही है प्रियम्बरा कोठी.आपको किससे मिलना है?"
"..वह मुझे शरतचंद्र जी से मिलना है.क्या वह अन्दर हैं?"
"हाँ हैं तो सही,पर वह आपसे मिलेगें या नहीं,इस बारे में कहना मुश्किल है.इस वक़्त वह किसी से नहीं मिलते हैं."पर माली यह भी समझ रहा थाकि यह युवक कहीं दूर से आया है,इसलिए बोला,"वैसे आपका क्या नाम है साहब?"
"मेरा नाम शिशिर है.पर तुम्हारे मालिक मुझे नहीं पहचानते हैं और ही मैं उन्हें पहचानता हूँ.फिर भी मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है."यह कहते हुए शिशिर ने जेब में से एक लिफाफा निकला और असमंजस में पड़े माली को देते हुए कहा,"यह लिफाफा तुम उन्हें दे दो,शायद वह मुझसे मिलना चाहे."
माली शिशिर को उद्यान में बैठकर अन्दर चला गया.
अन्दर राजस्थानी और मधुबनी शैली में सजी बैठक में टेपरिकार्डर पर रविशंकर का सितार गूंज रहा था.वहीँ पास में सोफे में धंसा शहर रईस का शरतचंद्र बैठा था.वह सामने मेज पर पैर फैलाए हुए अपने काग़जों में व्यस्त था.उसने आहट सुनकर बिना पलटे ही पूछा,"क्या है?"
"मालिक,कोई नौजवान आपसे मिलने आया है."
"कह दो,अभी हम नहीं मिलना चाहते."
"जी,वह तो कह दिया.पर उसने यह लिफाफा दिया और कहा कि इसे अपने मालिक को दे दो,शायद वह....."
माली की बात अधेड़ शरतचंद्र के पलटने के साथ ही अधूरी रह गई.ऐनक के पीछे से दो प्रौढ़ आँखों को अपनी और ताकता देख माली से आगे कुछ कह गया.
तब शरतचंद्र का ठंडा स्वर गूंजा,"लाओ लिफाफा दो."
माली ने झट से लिफाफा उनके हाथों में थमा दिया और फिर वहीँ रुककर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा.
शरतचंद्र ने लिफाफे को घूम-फिरा कर देख और फिर उसे खोल दिया.अन्दर तीन पन्नों का पत्र था.उसकी लिखावट देखकर शरतचंद्र चौँक गए.उन्होंने तेजी से पत्र के सभी पन्ने पलट डाले और भेजने वाले का नाम-पता पढ़ा.फिर माली की और देखते हुए बोले,"उसे अथिति-कक्ष मेंठहराओ.गोपाल से कहो कि वह उसके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करे.मैं अभी वहीँ आता हूँ."
माली आज्ञा पाकर लौट गया.
इधर शरतचंद्र ने फिर एक बार अपनी दृष्टि उस पत्र की सुन्दर लिखावट पर डाली,'आज इतने वर्षों के बाद.....तुम भी किसलिए."
पत्र में लिखा था;
आदरणीय शरत जी,
शरत जी आंखे भर आई,सोचने लगे,प्यार की प्रौढ़ता में आदर का ही स्थान सुरक्षित है.शेष तो जैसे चूक जाता है.आज तुम भी उसे बूढे हुए प्यार संबोधित कर रही हो. वह आगे पढ़ने लगे.
आज आपको अचानक मेरा पत्र इस तरह पाकर आश्चर्य होगा.
आश्चर्य...एक गंभीर मुस्कराहट शरतचंद्र के होंठों पर छा गई.बुदबुदाये,'आश्चर्य रहस्य से उपजता है.रहस्य चमत्कार से और तुम तो मेरे लिए रहस्य और चमत्कार दोनों ही थीं.
आज से वर्षों पहले जब हम-तुम साथ थें....तब एक दिन !
तब एक दिन ही क्यों ....मैं तो तुम्हारे साथ हर पल था-प्रतिदिन था.उस पहले दिन भी जब मैंने तुमसे अनजाने में दुर्व्यवहार किया था और तुम तो नाराज़ हुईं और ही कुछ कहा.सिर्फ चुप रहीं और तुम्हारी वही चुप्पी मुझे अंतर्मन तक भेदती चली गई.तुम्हारा निशाना अचूक बैठा.मैंने स्वयं को कभी भी इतना उद्वेलित नहीं पाया था.अतः जब मैंने तुमसे माफ़ी मांगी,तब भी तुम चुप ही रहीं.
तब मुझे लगा कि मेरा यह अपराध अब कभी भी क्षम्य नहीं होगा,पर उसी समय तुम मुस्कुरा उठीं.यह वही क्षण था जब मैंने तुम्हे अपने दिल में बसा चुका था,हमेशा-हमेशा के लिए.धीरे-धीरे जाने कब हम एक-दुसरे से प्यार करने लगे,हमे खुद ही पता नहीं चल और हम अपनी एक अलग ही सृष्टि का निर्माण करने लगे.पर प्यार के घरोंदे एक-एक करके बिखर गए.तुम भी खो गईं और मैं भी भटक गया.हमारे लिए प्यार का अर्थ सिर्फ प्यार ही था.जहाँ भी हमे अवसर मिलता,हम अपने प्यार का इज़हार करने से नहीं चूकते थें.हमारे सभी मित्र हमारे उस दीवानेपन पर हँसा करते थें.साथ में प्रशंसा भी करते थें.
वह सब-कुछ तो अचानक ही घटा था.प्यार के शब्दकोष में तो वैसे भी पराजय कहीं पर नहीं होती है,वह तो हर हाल में जय ही होती है.
हवा में पत्र लहराया.शरतचंद्र अतीत की गलियों से निकलकर वर्तमान में गये.वह आगे पढ़ने लगे.
हमें किसी व्यक्ति ने अलग नहीं किया था.वह फैसला पूर्णता हमारा ही था.अपना था.वह हमारे ही नहीं हम लोगों जुड़े अन्य लोगों भविष्य का भी प्रश्न था....!
"हाँ,पर निर्णय लेने में हमने पूरे तीन घंटे लगा दिए थे." शरतचंद्र बड़बड़ाये,"शायद मेरी ही वज़ह से,क्योंकि तब मैं बहुत ही संवेदनशील हुआ करता था.साथ ही भावुकता ने भी पैर जकड़ लिए थे.जीवन की सच्चाईओं से दूर मैं सिर्फ तुम्हारे ही प्यार में डूबा हुआ था.तुम्हे खुद से अलग करने की कल्पना मेरे लिए बहुत ही पीड़ादायक थी.ऐसे में तुमने वह सारी पीड़ा जैसे मुझे बाँट ली थी."
वह तीन घंटे खामोशी में डूबे हुए बीते थे.सिर्फ मन से मन की बातें हुई थीं और शब्द तो मानो किसी कोने में जाकर छिप गए थें,उन्हीं खामोश पलों में हम अपने प्यार को सदा-सदा के लिए जीवित रखने के लिए,अंततः अलग-अलग हो गए थें.
उस असहजता को भी तुमने इतना सहज बना लिया था कि पल भर को भी तुम्हारा विश्वास नहीं डिगा और उसी ठहरे हुए विश्वास का सहारा पाकर मेरा विश्वास भी तुममे बना रहा.उसके बाद कई बार मन तुम तक पहुँच ही जाता था,पर नहीं पहुँचा तो.....सिर्फ मैं.कितना मजबूर था मैं.
शरतचंद्र ने पत्र आगे पढ़ा.
तुम्हारा सपना था वायु-सेना में स्क्वार्डन-लीडर बनने का.किन्तु तुम डाक्टरी परीक्षा में असफल हो गए थे .तब तुम बहुत-बहुत आहत हो गएथे.उन्हीं आहत क्षणों में हमने अपने प्यार के स्वप्निल स्पर्श में एक सपना देखा था,तुमने उस दिन कहा था,हम अपने बेटे को वायु-सेना में भेजेगें.उस दिन तुमने मुझे अपनी बाँहों में भरकर कहा था,"चलो शादी कर लेते हैं.मुझे एक बेटा चाहिए,बहुत जल्दी...." और मैं शरमाकर तुम्हारी बाँहों में हसँती-मुस्कुराती रही.कितना भोलापन था.
फिर हम सब-कुछ भुलाकर उस भावी वायु-सैनिक के सपनें बुनने लगे थे.तुमने फिर एक दिन मुझसे आग्रह किया था,"चलो शादी कर लेते हैं......"पर मैं चुप रह गई थी और तुमने भी कुछ नहीं कहा और हम दोनों ही चुप रह गए थे.मुझे नहीं पता कि मैंने तुम्हारी संवेदनाओं का-भावनाओं का सम्मान किया था या मेरे ही मन के किसी कोने में उस भावी वायु-सैनिक को अपने गर्भ में उतारने तीव्र इच्छा रही थी.और शायद उसी स्वप्न को साकार करने के लिए हमने खुद को कब एकाकार कर लिया था ,हम जान ही नहीं पाए था,तब भी तुमने कहा था,"चलो अब शादी कर लेते हैं."
पर वह दिन कभी नहीं आया.हमे जीवन की नाजुक देहरी पर खड़ा देखकर,वर्षों से दबे पड़े जीवन के ढेरों प्रश्न,प्रश्नचिन्ह बनकर हमारे सामने खड़े हुए थे.और हमारी हर पराजय,हमारे प्यार की उस सनातन जय के आगे झुक गई थी,पराजित हो गए थे हम.
तुम्हारी शादी बड़ी धूमधाम से हुई थी.फिर हम दोनों ही अपनी-अपनी नई दुनिया बनाने में व्यस्त हो गए थे या व्यस्त रहने का बहाना करने लगे थे,आज क्या कहूँ नहीं जानती.क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे को वचन दिया था कि हम अब एक-दूसरे के जीवन में कोई दख़ल नहीं देगे और ही एक-दूसरे के बारे में जानने की कोशिश करेगें.तब भविष्य के प्रति,उस सुरक्षा के प्रति हम मनुष्य की मनःस्थिति अच्छी तरह जान चुके थे.
और शरत, मैं सब-कुछ भूल भी जाती.पर मेरी शादी के एक माह बाद मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि मेरे गर्भ में भावी वायु-सैनिक करवटें ले रहा है और अपने जनक का नाम पूछ रहा है.मैं तो घबरा ही गई थी.इस घबराहट को मेरे शक्की पति ने भी ताड़ लिया था.....!
"हाँ तब कितना बबेला मचा था,तब तुम्हे चरित्रहीन कहकर परित्यक्ता बना दिया था और मुझे अक्षम्य अपराधी."शरतचंद्र खुद से बोला,"तब तुम्हारेपूरे अस्तित्व का प्रश्न मेरे सामने अपनी अबोधता के साथ आया था.अदालत के कटघरों में उस अस्तित्व को बचाने के लिए कई बार गीता की झूठी कसमें भी खानी पड़ी थीं.कई बार चाहा कि सब सच स्वीकार कर लूँ और तुम्हे लेकर कहीं दूर चला जाऊं...पर तुमने ही चुप रह जाने को कहा था......और अंत में....!"
शरत,मैं तुम्हारा यह एहसान ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाउगीं कि किस तरह तुमने मेरे अस्तित्व को बचा लिया था,मुझे पूरी तरह नकारकर.मैं तुमसे कैसे उऋण हो पाउगीं,बरसों तक यही सोचती रही.जब शिशिर दस वर्ष का था,तब ही मेरे पति अपनी समूची दुनिया समेट कर चल बसे थे.जीवन एक बार फिर दोराहे पर था.तब मैंने अपने वैधव्य के अन्धकार में से एक सपना चुना कि अपने बेटे को वायु-सैनिक बनाउगीं-स्क्वार्डन-लीडर.
आज वही शिशिर अपना प्रशिक्षण पूरा करके कमीशन लेने जा रहा है.मैंने उससे कहा है कि जाने से पहले वो तुम्हारा आर्शीवाद लेकर जाए.उसे निराश मत करना.तुम्हारे आर्शीवाद से शायद मैं उऋण हो जाऊं..........
तुम्हारी
शुभचिंतक,
ममता
.

पत्र समाप्त होते-होते शरतचन्द्र की आँखे छलछला आईं,सोचने लगे," हे भगवान,यह कैसी परीक्षा की घडी आज मेरे सम्मुख गई है." वह उठे और उस स्क्वार्डन-लीडर से मिलने के लिए अथिति-कक्ष की और चल पड़े.

शरतचंद्र को देखते ही शिशिर उठ खड़ा हुआ.साथ ही सोचने लगा,"माँ ने सच कहा था,"बेटा, यह तुम्हारे पिता तुल्य हैं.तुम्हे स्क्वार्डन-लीडर बनाने का सपना उन्हीं का था." तो क्या यह यही वह रहस्यमयी पुरुष है.मैं जब-तब इनके विषय में सुनता आया हूँ माँ से.पहले-पहल को मैंने पूछा भी था कि माँ यह कौन हैं? और माँ ने भी बड़ी सहजता से उत्तर दिया था,बेटा,यह बहुत बड़े इन्सान हैं.इससे ज़्यादा माँ ने कभी कुछ नहीं कहा था और फिर मैंने भी धीरे-धीरे पूछना ही छोड़ दिया था.पर जब प्रशिक्षण पूरा हुआ तो माँ ने वह प्रसंग पुनः छेड़ा था.माँ के पैरों में झुकते ही माँ ने उसे कंधे से पकड़कर उठाते हुए कहा था,बेटा पहला आर्शीवाद उनका लेकर आओ.पहला अधिकार उन्हीं का है.उन्हीं का आर्शीवाद तुम्हरी माँ को ऋण मुक्त करेगा."
हैरान रह गया था मैं.आखिर माँ क्यों और किसलिए उस रहस्यमय पुरुष की बातें करती है और कौन-सा ऋण है,जिसका भार वह ढो रही है और उसका एक आर्शीवाद उसे इस ऋण से मुक्त कर देगा.वह लाख चाहकर भी नहीं समझ पा रहा था,पर माँ की बात तो माननी ही थी....सो.

"बैठो बेटा." शरतचंद्र का स्वर गूंजा.
और जैसे जड़ बने शिशिर का सम्मोहन टूटा.वह तुंरत आगे बड़ा और उस अनजान-रहस्यमयी पुरुष के चरणों में आर्शीवाद के लिए झुक गया.शरतचंद्र भावुक हो उठे,वह जिन आँसुओं को पौछ्कर यहाँ आये थे,वह पुनः निकल पड़े.उन्होंने शिशिर को गले से लगा लिया और आर्शीवाद देते हुए बोले,"मेरे बेटे खूब खुश रहो और चिरंजीवी भवो." फिर शिशिर के दोनों कंधे पकड़कर आँखों के सामने करते हुए बोले,"हूँ,मुझसे भी लम्बा,मुझसे भी सुन्दर,मुझसे भी ज़्यादा स्वस्थ्य.बेटा,तुम्हे प्रकृति ने भारतीय वायु-सेना के लिए ही गढा है.अपने देश का-अपनी माँ का नाम रोशन करो.मुझे तुम पर गर्व है."
एक बार फिर शरतचंद्र ने उसे अपने अंक में भार लिया.
शिशिर किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया.इतना अपनापन,इतनी भावुकता,उसे अपनी माँ की ममता के बाद आज यहाँ ही इस व्यक्तित्व में पाई थी.वह स्वयं जाने क्यों भावुक हो उठा था.पल भर में ही जाने उसे क्या हो गया था.कुछ भी कह पाना उसके लिए असंभव था.शरतचन्द्र को लेकर उनसे जाने कितने स्वप्न देखे थे.कितनी उत्कंठा और उत्सुकता थी उसमें इस बड़े इन्सान से मिलने की.अब उसे क्या कहकर संबोधित करे,वह समझ नहीं पा रहा था.
शिशिर तो वहाँ से तुंरत निकल जाने के लिए आया था,पर अब जाने का कह नहीं पा रहा था और उधर शरतचंद्र भी उससे रुकने का नहीं कह पा रहेथे.दोनों ही भावनाओं के एक ही धरातल पर थें.
"शिशिर,आज तुमने मेरा एक बड़ा महत्वपूर्ण सपना पूरा कर दिया है.आज मैं कितना खुश हूँ बता नहीं सकता.अब तुम कहीं मत जाना.यही मेरे पास आकर रहो."शरतचंद्र भावुकता में कहे जा रहे थे.
तब शिशिर साहस करके इतना ही कह पाया,"मुझे कल ही इंदौर जाना है,वह माँ से मिलकर फिर जोधपुर कमीशन लेने जाना है."
तब शरतचंद्र ने उसे अगले दिन तक के लिए रुक जाने का आग्रह किया और शिशिर नहीं कर सका.
रात को खाने की मेज पर व्यंजनों की विविधता देखकर वह चकित रह गया.उसने जीवन में इतने व्यंजन कभी भी नहीं देखे थे,वह भी एक साथ तो कभी भी नहीं.अभी वह इस मनःस्थिति से उबर भी नहीं था कि शरतचंद्र ने उसके गले में एक सोने की चैन लाकर डाल दी.बोले,"बेटा,यह चैन मैंने वर्षों पहले एक-एक पैसा जोड़कर खरीदी थी,शायद इसी दिन के लिए..."
उसके बारे में कुछ भी जानते हुए,वह रहस्यमय पुरुष शिशिर को अपना-सा लगने लगा था.'बेटा' संबोधन संगीत बनकर उसकी रग-रग में उतरता जा रहा था.शिशिर ने पुनः शरत जी के पैर छू लिए.खाने के दौरान कोई भी नहीं बोला.शरतचंद्र खाना खाते समय बोलना पसंद नहीं करते थे.खाने के बाद काफी पीते हुए शरतचंद्र बोले,"बेटा,तुम्हारी माँ ने बहुत दुःख उठाए हैं. उसने अपने जीवन में कठोर से कठोर प्रहार सहे हैं,जो किसी भी नारी को तोड़ने के लिए काफी होते हैं.पर वह टूटी नहीं,उसने इन सबको एक चुनौती की तरह लिया और उसे बड़े साहस के साथ जीया भी.मैं बस यही चाहता हूँ कि तुम उसे कभी-भी कोई भी दुःख मत देना.उसकी सारी उम्मीदे तुम पर ही टिकी हैं.उसने आज तक कभी-भी किसी से कोई मदद नहीं ली है,यहाँ तक की उसने मुझसे भी कोई मदद नहीं ली."
यह सुनकर शिशिर चौका.अगर माँ ने इनसे कोई मदद नहीं ली है तो फिर माँ किस ऋण से मुक्त होना चाहती है.शिशिर तो माँ को समझ पा रहा था और ही इस पुरुष को.वह तो इन दोनों के विचित्र संबंधों में उलझकर रह गया था.
वही शरतचंद्र कह रहे थे,"उसके हिस्से में ढेरों,दुःख,उलहाने आये हैं.सुख के रूप में सिर्फ तुम ही उसके हाथ लगे हो.अपना वैधव्य भी उसने चुपचाप स्वीकार कर लिया.तुम्हे ही उसने अपनी हर आशा का केंद्र बना लिया.दुखो से लड़ने की उसमे अद्भुद शक्ति है.पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि वह भी थक चली होगी मेरी तरह."
थोडी देर के शरतचंद्र रुका,जैसे किसी गहरे विस्मृत अवसाद कूप का ढक्कन खुल गया हो और वह उसमें डूबता जा रहा हो.फिर वही डूबी हुई आवाज़ उभरी,"अब उसे कोई दुःख मत पहुँचाना."
शिशिर अपनी माँ,ममता का दुलारा था.उसे मनप्राण से चाहता था.फिर भी उस कातरता के आगे नतमस्तक हो गया.उसने बचपन से ही देखा था कि उसकी माँ ने किस तरह से अपने पति का-अपनी ससुराल का हर अत्याचार सहा था और कभी भी प्रतिकार नहीं किया,सब चुपचाप ही सहती रही थी वह.एक क्षण पति बरसता-गरजता तो वह दूसरे क्षण से ऐसे काम में लग जाती जैसे वह क्षण उसके पास आया ही नहीं हो.और वैधव्य के बाद तो और गहरे जाकर चुप हो गई थी.उसने देखा था कि माँ किस तरह से उसे बड़ा करने में जी-जान से जुट गई थी.
शिशिर भी अपनी माँ से बहुत प्यार करता था.
आज तो उसने स्वयं से एक वादा भी कर लिया था कि आज से माँ का हर दुःख उसका ही होगा और उसके सारे सुख माँ के होगें.मन ही मन यह वादा उसने उस रहस्यमय पुरुष से भी कर लिया था.
अचानक शिशिर को लगा कि उसके हाथों में इस विचित्र संबंधों की पहेली का एक हिस्सा अनजाने में खुल गया है.वह क्षण भर को चकित रहगया."तो क्या....?" शिशिर के मन में उथल-पुथल मच गई.वह रोमांचित हो उठा,"कितना पवित्र सम्बन्ध रहा होगा यह."
पर अभी भी बहुत कुछ अबूझ-सा रह गया था,जिसे समझने की कोशिश शिशिर चाहकर भी नहीं कर सका.
शरतचंद्र भावुकता से उभरे तो फिर वह बालसुलभ जिज्ञासा के साथ शिशिर से उसकी पढाई,प्रशिक्षण अदि के बारे में पूछता रहे अरु शिशिर भी मानो सम्मोहन में बंधा उत्तर देता रहा.यह सिलसिला अबाध रूप से जाने कब तक चलता रहता,यदि नौकर गोपाल उन्हें आकर सोने के लिए नहीं पूछता.
बिस्तर पर लेता शिशिर देर रात तक सोचता रहा.शरतचंद्र ने अपने विषय में बताया था कि किस तरह उन्होंने दिन-रात एक करके बिजनेस मेंयह छोटा-सा साम्राज्य खड़ा किया था.शादी देर से हुई थी.पहली बच्ची के बाद ही पत्नी नहीं रही.फिर उस छोटी-नन्ही बच्ची को ही गले से लगाये वह अपनी जीवन-यात्रा तय करते रहे.
कई बार लोगों ने छोटी बच्ची का हवाला देकर उनसे दूसरी शादी के लिए भी कहा,पर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुए.आज तक ऐसे ही निर्बाध रूप से जीवन व्यतीत करते चले रहे हैं.
"अब वह नन्ही बच्ची बड़ी हो गई है.बड़ा प्यारा नाम है उसका - उत्तरा .हाँ वह तुम्हारी छोटी बहन है.अभी छुट्टियों में अपनी नानी के यहाँ गई हुई है.जब आएगी तो तुमसे मिलवाऊगाँ ."यही कहा था उन्होंने.
शिशिर यह सुनकर भी रोमांचित हो गया था.छोटी बहन.क्या कहता वह.

जब दुसरे दिन दोपहर के भोजन के बाद शिशिर चलने लगा तो तो द्वार तक उसे विदा करने आये शरतचंद्र ने उसके हाथों में एक चेक थमा दिया,पूरे ग्यारह लाख का चेक था.हतप्रभ रह गया था शिशिर.अनायास ही उसके मुहँ से निकला,"यह क्या है?"
मुस्कुराते हुए शरतचंद्र बोले,"यह एक भेंट है मेरे बेटे को,जिसे उसे लेते हुए कोई हिचक नहीं होनी चाहिए."
"पर मैं माँ से पूछे बगैर ...."शिशिर फिर भी हिचकिचाया.
उसकी बात बीच में ही काटकर वह बोले,"मैं यह भेंट तो ममता को और ही उसके बेटे शिशिर को दे रहा हूँ,मैं तो यह भेंट देश के एक होनहार स्क्वार्डन-लीडर को दे रहा हूँ."फिर वह भावुक स्वर में बोले,"बेटा,तुम हमारे हजारों देखे गए सपनों में से वो सपना हो,जिसे हम सच कर पाए हैं.अब तुम्हारा काम इस सच को बनाये रखने का.वैसे भी एक दिन मैं अपनी समूची दुनिया तुम लोगों के लिए छोड़ ही जाउगां.यह तो केवल एक छोटी-सी भेंट भर ही है.
दोनों के बीच चुप्पी छा गई.क्या कहता शिशिर,वह समझ नहीं पा रहा था.माँ ने यह किस दुविधा में डाल दिया है.यहाँ ऋण चढ़ रहा है या उतर रहाहै,वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.कितना विचित्र है यहाँ सब-कुछ.सच ही कहते हैं लोग कि यह कोठी रहस्यों से भरी हुई है.यहाँ मेरी एक छोटी बहन भी है,जिसे मैंने देखा भी नहीं है,जिसे मैं जानता तक नहीं था,पर अब वही बहन शब्द मानो मेरी नस-नस में उतरता चला जा रहा हो.कहीं माँ बुरा तो नहीं मान जायेगी.माँ ने हमेशा ही उसे अजनबियों से कुछ भी लेने को मना किया है.पर क्या यह माँ के लिए अजनबी हैं या जैसा कि माँ अक्सर कहा करती है-बड़ा इन्सान.यह किस बंधन में बांध दिया है माँ ने मुझे. अब मैं क्या करूँ.अपनी विचारों की श्रृंखला से बाहर आते हुए शिशिर बोला,"अच्छा अब चलता हूँ."
"हाँ बेटा,पर अब आते रहना.मालिक को कभी इतना खुश नहीं देखा,जितना तुम्हारे आने के बाद देखा है."सहसा ही पास खड़ा माली बोल पड़ा.
"देखो,भगतराम भी मेरा समर्थन कर रहा है."हसँते हुए शरतचंद्र बोले.
शिशिर ने पुनः झुककर शरतचंद्र के पाँव छू लिए.थोडी देर तक दोनों आलिंगनबद्ध होकर खड़े रहे.शिशिर उस आलिंगन में अब पूर्ण अपनापन महसूस कर रहा था.

कार शिशिर को लेकर चली गई.

शरतचंद्र भी अपने मन की गहराइयों में खो गए.अतीत के जाने कितने पल,कितनी स्मृतियाँ,कितने सुख-दुःख मन को मथने लगे,कार को आँखों से ओझल होते देख बरबस ही उनके मुहँ से निकल गया,"ममता, तुम तो मुझसे उऋण हो गईं.पर अब मैं तुमसे कभी भी उऋण नहीं हो सकूँगा."

=================== समाप्त =================