सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

शनिवार, 3 जनवरी 2009

उपन्यास- पल-प्रतिपल

पल-प्रतिपल
भूमिका

आज से चौदह वर्ष पहले मैंने एक उपन्यास की नींव रखी थी.मेरे कुछ साहित्यिक मित्रों ने जब यह पढ़ा तो मुझे इसे विस्तार करते हुए फिर से लिखने को प्रेरित किया था.पर तब मैं यह कर नहीं पाया क्योंकि मुझे लगता था कि मेरे जीवन का एक अध्याय जो समाप्त हो चुका है उसे ही बार-बार कुरेदने से क्या हासिल होगा और फिर मैं उस दर्द से-उस पीड़ा से दुबारा गुजरना भी नहीं चाहता था.अतः इस उपन्यास को जस का तस ही छोड़ दिया.
पर कहते हैं न कि समय कहीं न कहीं करवट लेता ही है. गुजरे चौदह वर्षों में मैंने बहुत ही कम इस विषयवस्तु पर बात की है.करता भी किससे.यहाँ सुनने वालें तो बहुत हैं और आपसे सहानुभूति रखने वालें भी बहुत हैं पर आपको समझने वाला कौन है? यह एक प्रश्न है जिसकी प्रतीक्षा में सारा जीवन बीत जाए और उत्तर अनुत्तरित ही रह जाए.फिर ख़ुद को ही समझा लें कि शायद यही हमारा प्रारब्ध है.करीब-करीब जीवन ऐसे ही जीया जाता है.
पर मेरे लिए तो समय फिर एक करवट के साथ आया है.अभी कल की ही बात है.मुझसे कहा गया कि मैं लड़कियों में ज़्यादा दिलचस्पी लेता हूँ और ऐसा कुछ करता हूँ कि लड़कियां ख़ुद ही मुझ तक खींची चली आती हैं.यह एक ऐसा आरोप है जिसे मैंने हर बार अपने ऊपर पाया है और कभी परवाह भी नहीं की है क्योंकि ऐसा हुआ होगा मुझे स्वयं पर ही शक़ है.पर उस बातचीत ने मेरे लिए इस उपन्यास के लिए एक नया आयाम खोल दिया. इस उपन्यास का एक ही पात्र है - राज,और यह राज कई-कई पात्रों के साथ,कई-कई घटनाओं के साथ,कई-कई स्थानों के भटकाव के साथ अपने ही जीवन का ताना-बाना कई-कई शब्दों में बुनता हुआ चला है.कथा के केन्द्र में प्रेम है और प्रेम से उपजी पीड़ा है.प्रेम जीवन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है,इससे चूके नहीं.एक बार प्यार ज़रूर करें.प्रेम से बड़ा जीवन में कुछ भी नहीं है.प्रेम हमारी प्रकृति है और प्रकृति से मुंह नहीं मोडे,इससे भागे नहीं.अगर जीवन में प्रेम नहीं है तो फिर जीवन भी जीवन नहीं है.आज चौदह वर्ष बाद ऐसे ही एक एक प्रेम कथानक के पन्ने फिर से खोलने जा रहा हूँ.उस दिन भारत-भवन में यह सब बातें नहीं होती तो शायद मैं खामोश ही रहता.चूँकि ब्लाग की अपनी सीमा है अतः मैं यह उपन्यास कुछ भागों में लिखूगां.
आशा है आप पसंद करेंगें.
आपका,
-नीरज गुरु "बादल"
भोपाल.

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