सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग-चार)

पल-प्रतिपल (भाग-चार)

"सूत्रधार सुनो,
खेलना है अभी हमें,
इस जीवन के अनगिनत नाटक,
न जाने कितनी यवनिकाएं,
न जाने कितने पटाक्षेप."

जब मैं भोपाल से वापिस आया तो अर्चना को मैंने एक पत्र लिखा,जिसमें मैंने उसे साफ़ लिखा कि मैं कोई खिलौना नहीं हूँ,जिससे तुम जब-तब चाहो खेलती रहो.मैं भी इन्सान हूँ.प्यार की तरह प्यार कर सकती हो तो प्यार करो अन्यथा हमारें संबंधों को यहीं विराम दे दो.
इस तरह मैंने हमारे संबंधों का भविष्य तय करने का अधिकार उसे दे दिया.उसका जबाब सकारात्मक रहा.जब उसका दूसरा पेपर था तब उसी ने तय किया था कि हम रतलाम में पुनः मिलेगें.बाद में हम-दोनों यहाँ बामनिया से ही साथ-साथ रतलाम गए और उस दिन-उस शाम कई माह बाद, या शायद पहली बार हमनें कई विषयों पर खुलकर बात की.शायद पहली बार हम दोनों दो प्रेमियों की तरह साथ थें.वहीँ हमने हमारे जीवन-हमारे भविष्य को लेकर कई सार्थक बातें की और यह तय किया कि हम दोनों दीवाली के बाद शादी कर लेगें.शादी की पूरी व्यवस्था मैं ही करूगाँ.उस दिन हमने कई योजनायें बनाई.वह सचमुच एक नई शुरुआत थी और हम दोनों उस दिन खुशी-खुशी घर लौट आए.
यह जगह बामनिया मुझे शुरू से ही पसंद नहीं थी.मैं अपने आपको बहुत अकेला पता था.कोई नहीं था जिससे मैं अपने दिल की बात कह सकूँ और मैं मौन ही रह जाता था.ख़ुद से ही अनकहा-सा.अब आर्ची से मेरी शादी होने वाली थी और जो जगह मुझे पसंद नहीं वहाँ मैं अपनी पत्नी को कैसे रख सकता था, अतः मैंने यहाँ से निकलने के लिए ज़ोर लगना शुरू कर दिया.यहाँ से मेरा जाना ज़रूरी हो चला था और इसी तारतम्य में भोपाल आ गया.अपने स्थानांतरण में लग गया.मई की झुलसती गर्मी में मैं यहाँ से वहाँ भटकता रहा और कोई भी नतीजा हाथ नहीं आया.जहाँ भी गया सिर्फ़ आश्वासन के सिवाय कुछ भी नहीं मिला.मैं थक-हारकर वापिस बामनिया लौट आया.
"पत्थर हैं सरे-राह,ऊँची दीवारों की तरह,
कहाँ से रास्ता ढूंढें,सारे रस्ते बंद मिलते हैं."

मैं निराश ज़रूर था, पर एक आशा यह भी थी कि दीवाली तक कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा और मैं दीवाली का इंतजार करने लगा.बामनिया पहुँचते ही दो हादसों का सामना करना पड़ा.एक- आर्ची के घर में उसके पिता ने किसी बात पर महाभारत मचा रखी थी.उसी रात को उस यमराज ने तीनो बहनों को धक्के मारकर घर से निकल दिया.रात को तीनों बहनें मेरे पास आईं. मैंने उन्हें घर वापिस लौट जाने की सलाह दी,जिस पर तीनों ही तैयार नहीं हुईं.वह रात तो हमने जैसे-तैसे काट ली.सुबह दो बहने अपनी मौसी के पास जवारा चली गईं और आर्ची पेटलावद में अपनी सहेली के यहाँ चली गई.दुसरे मुझे अपने कार्यालय से एक शो-काज नोटिस मिला हुआ था जिसका मुझे तीन दिन में उत्तर देना था.अब प्रेम और कार्य के मध्य मैं था.एक दिन तो मुझे यह सोचने में ही लग गया कि मुझे करना क्या है?

मैं आर्ची की इस नई स्थिति से खुश नहीं था. मैं उसके लिए कुछ करना चाहता था. तब मैंने सोचा की क्यों न मुझे उससे अभी ही शादी कर लेनी चाहिए.हालाँकि उस समय मेरे पास विवाह के लिए,खासकर इस तरह के विवाह के लिए तो कोई तैयारी ही नहीं थी,परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में मेरा प्रेम,प्रेम के प्रति मेरी प्रतिबद्धता,मेरी नैतिकता,मेरी वैचारिकता आदि सभी इस विवाह के पक्ष में थें.अतः मैं खूब सोच-विचारकर आर्ची से मिलने पेटलावद जा पहुँचा.पहले तो वह मुझसे मिलने को ही तैयार नहीं हुई और फिर जब वह मुझसे मिली तो उसने जिस तरह का व्यवहार मेरे साथ किया,उसे तो मैं दुर्व्यवहार भी नहीं कह सकता.उसने मुझसे कहा कि मैं ही उसके इस आज के लिए जिम्मेदार हूँ और उसके बाप और मेरे में कोई अन्तर नहीं है.हूँ दोनों एक जैसे ही हैं और शादी के बाद मेरा व्यवहार भी उसके बाप जैसा ही रहने वाला है और वह ऐसे शख्स से शादी नहीं कर सकती है,जिस पर उसके बाप की छाया हो.मैं फिर छलनी-छलनी हो गया.दूसरी बार मैंने उसकी सहेली को समझाने की कोशिश की और हमारी दूसरी मुलाकात उसकी सहेली के साथ ही हुई.उसने भी उसे समझाया पर वह अपनी ही बात पर अडी़ रही.मैंने उससे कहा कि वह मुझे अपने बाप से अलग करके देखे.मैं तुम्हारे पिता का अक्स नहीं हूँ. मैं राज हूँ और मैं तुम्हे प्यार करता हूँ.हमारा जीवन प्यार की नींव पर व्यतीत होगा और मैं तुम्हे जीवन की हर खुशी देने की कोशिश करूगाँ......पर मेरी सारी बातें व्यर्थ ही चली गईं.उस पर कोई असर नहीं हुआ. मैं बिल्कुल ही असहाय होकर रह गया.मैं उसके लिए बहुत-कुछ करना चाहता था,पर बहुत....बहुत ही असहाय था. ओशो ने लिखा है,"घ्रृणा के बनिस्वत मनुष्य प्रेम में ज़्यादा असहाय होता है, क्योंकि वह अपने प्रेम के लिए सब कुछ कर लेना चाहता है और सब कुछ करके भी उसे लगता है कि अभी उसने कुछ भी किया ही कहाँ है.' मेरी भी स्थिति ऐसी ही थी.मैं भी सचमुच इतना ही असहाय हो चला था.

"खाई हैं जिन्होंने दर-दर की ठोकरें,

घर छोड़ा था उन्होंने,दुनिया को अपना समझकर."

यह शे'र जब मैंने आर्ची को सुनाया तो उसने मुझसे कहा कि अब वह नर्स बनने का सोच रही है और ट्रेनिग के लिए इंदौर जाना चाहती है.मैंने उसे फिर समझाया कि नर्स कि ज़िन्दगी कितनी कठिन है और वह इस लायक नहीं है.उसे कोई दूसरा काम कर लेना चाहिए.वो यह काम नहीं करे.पर वह अपनी ही ज़िद पर अडी़ रही.मैं फिर चुप हो गया.मुझे लगा कि हमारे संबंधों के अंत का समय आ गया है और मैंने उसे खो दिया है.एक दर्द-सा सीने में उठा और मैं बैचेनी महसूस करने लगा.क्या प्यार का हर अंत ऐसा ही होता है. क्या प्यार ऐसे ही छीन लिया जाता है.

"एक टुकडा धूप का,एक हिस्सा चाँद का.

मुझसे न छीनो,यह सब मेरे नसीब का."

पर यह सब मुझसे छीना जा रहा था.मेरे हिस्से के चाँद-सूरज,मेरे हिस्से की धूप,मेरे हिस्से की चांदनी,मेरे हिस्से की रोशनी,मेरे सपनें,मेरी कल्पनाएँ,मेरी आकांक्षाएं,मेरा प्रेम,मेरी तन्हाईयाँ, मेरा सब-कुछ......और छीनने वाला और कोई नहीं,वह थी स्वयं आर्ची.

जैसे-तैसे मैंने स्थितियां सम्हाली.घर की भी और प्रेम की और कार्यालय की भी.अर्चना को मैंने वहीँ पेटलावद में एक प्रायवेट स्कूल में नौकरी पर लगवा दिया.उसका संचालक मेरा मित्र था अता काम आसान रहा. और मुझे लगा कि अब स्थिति फिर मेरे नियंत्रण में है.मुझे आश्चर्य सिर्फ़ इस बात का था कि ठीक पन्द्रह दिन पहले हमनें अपने भविष्य के लिए कई सपने बुने थें. एक नई शुरुआत के लिए हम प्रतिबद्ध भी थें कि आज अचानक इतना बड़ा परिवर्तन? पठान ने मुझसे कहा कि राज यह तुझे बेबकूफ बन रही है.तुझसे प्यार नहीं करती है और तू भी यह मान ले,हमें तो यह खुली आंखों से दिखाई दे रहा है.मुझे पठान की बातों पर सोचने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि हालात ही कुछ ऐसे बन गए थें.मुझे भी लगा कि आर्ची वास्तव में मुझसे खेल ही रही है और प्यार तो उसे मुझसे है ही नहीं और मैं उसके लिए कुछ भी नहीं हूँ, वह तो बस जब चाहती है मुझे इस्तेमाल कर लेती है.

एक बार फिर आज ममता की याद आ गई.ममता के सपने देखते-देखता मैंने उस पर अपने प्यार को व्यक्त कर ही दिया था और वह इसे अच्छी तरह से समझती भी थी,पर मेरे प्रति उसका व्यवहार बिल्कुल ही अलग था.हम हर विषय पर बात कर लेने को तो तैयार रहते थें पर प्यार की किसी भी बात पर वह बात करने के लिए तैयार नहीं रहती थी.उसने कभी भी मेरी किसी भी प्रेम अभिव्यक्ति का कोई भी प्रतुत्तर नहीं दिया था. "दस्तक' में मैंने उसे लिखा था,'प्रियश्रुति सुनो, मैं बादल, विस्तृत नभ छोटा-सा त्रिशंकु और तुम ममता, इस विश्व में कहाँ हो, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की है." ममता मुझे अनसुना कर गई,उसे मुझे अनसुना करना ही था.मुझे उसके द्वारा अनसुना ही रह जाना था.हम-दोनों एक-दूसरे से बिना कुछ कहे-सुने ही रह गए.

लेकिन इस आर्ची को मैं कैसे समझाऊं? आर्ची और ममता में अन्तर है. ममता के साथ मेरे संबंध प्लेटोनिक थें, मैं उसके बहुत करीब था,पर कोसो दूर था.यह दूरियां मैं कभी भी नहीं पाट पाया था.उसके सामने मेरा मौन उससे बातें करता था और भावप्रवण आँखें मेरे उस मौन का प्रत्युत्तर हुआ करती थीं. हम दोनों कभी भी सहज नहीं हो पाये थें.इसके ठीक विपरीत आर्ची थी,जहाँ प्यार को हमने उसकी सहजता में स्वीकार किया था.हम मुखाग्र थें और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि हमारे संबंध प्लेटोनिक नहीं थे,यह बात अलग थी कि आर्ची मुझे समझ नहीं पाई थी या हो सकता है कि किसी कारणवश वह मुझे अनदेखा करती हो.मैं यह स्वीकार करने को तैयार था अब हम बिछुड़ चले थें.मैंने भी अपने आप को नई परिस्थिति के अनुरूप ढाल लिया था और उसकी तरफ़ ध्यान देना बिल्कुल ही बंद कर दिया था और स्वयं को समझा लिया था कि यदि वह ऐसे ही खुश रह सकती है तो ऐसा ही सही.प्रेम तो सहजता में ही होता है,मैं उसे अधिकार के नाम पर असहज क्यों बनाऊ.पर सपनें.....उनका क्या करुँ...?

"माना बिछुड़ गए हैं हम-तुम,

पर यह / जीवन से लेकर जीवन की बात थी,

सपनों को लेकर,

ऐसा सौदा कब हुआ था."

धीरे-धीरे मैं पठान और राजेश के साथ स्वयं को शतरंज की बाज़ियों में उलझता चला गया और यह भूल ही गया कि जीवन की बिसात पर नियति ने एक और चाल चल दी है. वह अगस्त 93 का माह था.सावन अपने पूरे शबाब पर था.बारिश ने तन-मन दोनों ही भीगो रखे थे.उन्हीं दिनों सावन की रिमझिम फुहारों के बीच आर्ची से मेरी मुलाकात हो गई और मैंने उससे उसके परीक्षा-परिणाम के विषय में पूछ लिया.उसने बड़े ही चहकते हुए मुझे उत्त्तर दिया और फिर हम कुछ देर तक बड़े ही अच्छे ढंग से बात करती रहे.इस दौरान मैंने नोटिस किया कि वह मुझसे बात करने के लिए ही बात कर रही है और मुझे फिर से आकर्षित करने की कोशिश कर रही है.मुझे लगा कि संबंधों की राख में एक नई आग लगा देने के लिए कहीं कोई चिंगारी अभी बाकी है.पर मैंने स्वयं कोई उतावलापन नहीं दिखाया.मैंने स्वयं के ऊपर बहुत ही नियंत्रण रखा.मेरे इस व्यवहार पर उसने भी ध्यान दिया और उसने मेरे साथ कुछ स्वतंत्रता लेने की भी कोशिश की.मैंने ख़ुद को अपनी ही खाल में बनाये रखा.यह सब क्यों हो रहा था मैं समझ नहीं पा रहा था.जीवन की शतरंज पर नियति अपनी ढाई घर की चाल चलने को तैयार थी.मैं इस चाल से पूरी तरह अनभिज्ञ था.

"दुःख,

कौन छोड़ जाता है तुम्हे मेरे द्वार पर,

उठता हूँ प्रातः तो पाता हूँ तुम्हे,

नित - नव रूप में अपने द्वार पर......"

उसी सावन की एक सुबह मुझे आर्ची की छोटी बहन से पाता चला कि आर्ची तो इंदौर किसी ट्रेनिग के लिए चली गई है और अब पूरे दो साल बाद लौटेगी.पल भर के लिए मैं स्तब्ध रह गया.नियति की ढाई घर की चाल.क्या वह नर्स की ट्रेनिंग के लिए.......सेवा के नाम पर नर्क.इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया.अब वह वापिस नहीं लौटेगी.एक छोटे से कस्बे की रहने वाली लड़की इतने बड़े शहर में कैसे रह पायेगी...क्या करेगी.शहरों की ज़िन्दगी बहुत की कठीन होती है.वहां हर सुख-सुविधा होती है,पर ख़तरे भी उतने ही हुआ करते हैं.वहां छल मुस्कुराता हुआ ही आता है.दुर्घटना की शक्ल नामालूम हुआ करती है.वहां पर यह लड़की क्या करेगी? क्या एक नर्क से दूसरे नर्क में जाया जा सकता है?ओशो का एक कथन स्मृत हो आया कि मनुष्य असमंजस की स्थिति में सदैव एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है.आर्ची भी यही कर रही थी.घर में पिता से नही बन रही थी तो पिता से बचने के लिए एक अति से दूसरी अति पर चली गई थी.यह एक नर्क छोड़कर सुख-शान्ति की तलाश में एक दूसरे नर्क का चुनाव भर ही तो था. ऐसा भी नहीं है कि उसे यह सब नहीं मालूम हो,इतनी समझदार तो हर लड़की होती ही है और मैंने उसे सब ऊँच-नीच बताई भी थी,फिर भी वह अपनी ही करने पर उतारू थी.मुझे लगा कि इससे तो अच्छा था कि वह मुझसे विवाह कर लेती.मैंने इस विषय में पेटलावद जाकर राजेश से बात की.उसने मुझसे कहा कि इससे तो अच्छा था कि वह तुमसे शादी कर लेती.उसी ने मुझसे कहा कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है,तुम कल ही इंदौर चले जाओ और उसे मनाकर उसे शादी के लिए राजी कर लो.

उसी रात जब हम दोनों इंदौर-खवासा बस से वापिस बामनिया लौट रहे थे,तो मन में मेरे यही निश्चय था कि मैं कल सुबह इसी बस से इंदौर चला जाउगां कि उसी बस में मुझे आर्ची की माँ मिल गई.वह आर्ची को इंदौर छोड़कर लौट रहीं थीं.मैंने अवसर पाकर उनसे बातचीत की तो उन्हीं से पता चला कि आर्ची इंदौर किसी नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए नहीं वरन एम.एस.डब्लू. याने मास्टर इन सोशल वर्क का कोर्स करने के लिए गई है.मेरे लिए यह एक नई बात थी.मैंने बामनिया में उतरकर राजेश से इस विषय में बात की तो उसने मुझे इस विषय के बारे में बताया और साथ ही बामनिया में एक मेडम हर्षलता पाल का नाम भी मुझे बताया कि मैं इन मेडम से जाकर मिल लूँ और वह मुझे इस बारे में और विस्तार से बतला देगीं क्योंकि उन्होंने यही कोर्स किया हुआ है. पठान की उनसे दोस्ती है.मैंने अगले दिन पठान को पकड़ा और उसके साथ उनके घर गया और मेडम पाल से इस विषय में पूरी जानकारी ली.साथ इंदौर में इस कालेज का पता भी ले लिया.उस दिन जब मैं घर लौटा तो मेरा तनाव काफी हद तक छट चुका था.



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