सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

पल- प्रतिपल ( भाग-छः)

मैं वापिस बामनिया लौट आया और फिर जब सुबह सोकर उठा तो मैं बिल्कुल ही दूसरा था.
इस घटना को कोई डेढ़ माह से ऊपर हो गया.इस बीच मैं अर्चना से नहीं मिला और न ही मिलने की कोई कोशिश की, जबकि इस बीच मैं तीन बार इंदौर होकर आ गया था,पर उससे मिलने की कोई इच्छा भी मुझे नहीं हुई और इस तरह मैं उसे धीरे-धीरे अपने ख्यालों से भी जुदा करता चला गया.इधर दीवाली पास आ रही थी.दीवाली की छुट्टियाँ लगीं तो अर्चना बामनिया आई.महाराज, जिनके घर में मैं अपने शुरूआती दिनों में खाना खाने जाया करता था और इस परिवार का मुझ पर विशेष प्यार था.उस दिन हमारी मुलाकात महाराज के घर पर हुई थी.मैं महाराज के घर गया हुआ था और वहीँ पर अर्चना किसी काम से आ पहुँची थी.मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया,वरन उसने ही मुझसे बात प्रारम्भ की.मैंने भी उससे एक दोस्त की तरह ही हालचाल पूछे.इससे ज़्यादा मैं हमारे बीच के संबंधों को कोई महत्त्व नहीं देना चाहता था.मैं वहां से चला आया.उसने मुझे वहां रोकने की कोशिश की,पर मैं उसे अनसुना करके चल दिया. दीवाली के दो दिन पहले मैं भोपाल चला आया.
यहाँ भोपाल में मेरे लिए वही काली दीवाली थी.मेरे जीवन की कई दीवालियाँ काली ही बीती थीं.हर दीवाली एक त्रासदी की तरह मनाता आ रहा हूँ.मेरे बचपन की एक दीवाली वह भी थी,जब मुझे चोर ठहरा दिया गया था और मुझे मेरे ही पिता ने घर से बाहर निकल दिया था.मैं छोटा-सा मासूम,लाख आंसुओं के साथ भी अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाया था और मुझे चोर ठहराने वाले मुझ पर हँसते हुए दीवाली मनाते रहे और मैं कई दिन तक फुटपाथों पर यहाँ से वहाँ भटकता रहा और मानवीय संबंधों पर से मेरा सदैव के लिए विश्वास उठ गया.मुझे किसी के घर तो क्या,अपने ही घर में प्रवेश करते हुए भी डर लगने लगा. फिर कुछ साल बाद एक दीवाली वह भी आई,जिस रात मैं ममता को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह आया था.उस रात हम-दोनों आखिरी बार मिले थें और एक-दूसरे से अपने-अपने दर्द भी बाँटना चाहते थें.पर बिना कुछ बोले,सिर्फ़ आंखों से बिदाई का भाव लिए हम-दोनों अलग-अलग चल दिए........फिर कभी न मिलने के लिए.आज जब मैं सोचता हूँ कि यदि हमनें उस रात अपने-अपने दर्द बाँटे होते तो क्या बाँटते........ममता 'दस्तक' से उपजी अपनी पीड़ा-अपने क्रोध को बाँटती और मैं उस प्यार में मिली कई कही-अनकही पीड़ा को बाँटता........शायद ऐसा ही होता.......शायद.......! आज इस शायद के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं.मेरे लिए यह अमावस्या की रात कभी उजाला लेकर नहीं आई. मैंने दीवाली मानना बंद कर दी.और आज यह दीवाली भी.........यहाँ में था और थी मेरी तन्हाईयाँ.
"अंधेरे में न डुबोइए ख़ुद को इतना,
कि रोशन होने के लिए सूरज कम लगे"

जब मैं बामनिया वापिस लौटा तो मुझे आफिस के काम से इंदौर जाना पड़ा.जब मैं सुबह की बस पकड़कर इंदौर जाने के लिए निकला तो उसी बस में अर्चना भी सवार हुई और पूरी बस खाली होने के बाद भी वह मेरे पास आकर बैठ गई.मुझसे हेलो कहा और उसने बातों की शुरुआत कर दी.बातों ही बातों में उससे कहा कि तुमने मुझे कहा था कि तुम किसी लड़के से प्यार करती हो, तो तुम एक काम करो कि तुम उस लड़के से ही शादी कर लो और यदि तुम्हे इस काम में मेरी मदद चाहिए तो मैं तुम्हारी मदद करने के लिए तैयार हूँ.मैंने उससे यह भी कहा कि मैंने तुमसे प्यार किया है और मैं जब तुम्हे इस तरह भटकते हुए देखता हूँ तो अच्छा नहीं लगता है.तुम घर में सबसे बड़ी हो और तुम्हे अपनी छोटी बहनों के बारे में भी सोचना चाहिए.इस तरह इंदौर तक हमारी इस विषय पर कई तरह से बातें हुईं.अंत मैंने उससे कहा कि यह मेरा सुझाव भर है और तुम इसे मानो ही यह भी ज़रूरी नहीं है.तुम्हारी ज़िन्दगी तुम्हारी अपनी है और उस पर निर्णय लेने का तुम्हे ही अधिकार है.हाँ, अब मैं तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं हूँ.अतः यह मत समझाना कि इन सब बातों में या इन सब बातों के पीछे मेरा कोई स्वार्थ है.मैं तो सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि तुम खुश रहो.उसने मुझसे कहा कि वह इन बातों पर विचार करेगी और मुझे बाद में अवगत करा देगी.मैंने इंदौर में अपना काम करके पुनः बामनिया लौट आया.
"हमसे ही पूछते हैं,ख़ुद हम ही,
बता ऐ गा़फिल,तेरा नाम क्या है."

शीत की सिरहन शुरू हो चुकी थी.यहाँ बामनिया में ज़्यादा वृक्ष नहीं हैं,अतः यहाँ न तो ज़्यादा गर्मी पड़ती है और न ही उतनी बरसात होती है और न ही तेज़ ठंड पड़ती है.हर ठंड में मेरा एक शौक रहा है कि मैं हर ठंड में एक-दो स्वेटर खरीद लेता हूँ,पर यहाँ ठंड ही नहीं पड़ती तो इस बार मैंने असद से कहा कि मैं जब भोपाल आँउगां तो हम एक जैकेट खरीदेगें.पर ऐसा हो नहीं पाया.इस बीह अर्चना का जन्मदिन पड़ा तो मैंने औपचारिक रूप से उसे एक शुभकामना-पत्र प्रेषित कर दिया.इस दौरान मैं एक सप्ताह तक इंदौर में रहा और वहाँ पर मेरी और मेरी बहन की शादी की चर्चा चलती रही. यह सच है कि मैं अपनी बहन की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा हूँ.उसकी उम्र भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और लड़के हैं कि पता नहीं कहाँ जाकर गुम हो गए हैं.उसका विवाह मेरी प्राथमिकता में है और लगता है कि हर ब्राह्मण घर में मानो लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों.जिसे देखो वह मेरे लिए अपनी लड़की का रिश्ता लेकर चला आता है.पर मैं किस-किससे क्या कहूं.मेरी मनःस्थिति अभी शादी की नहीं है.मेरा जीवन क्या सिर्फ़ दुखों की बलिबेदी पर चढ़ने के लिए तो नहीं है.मैं तो एक लड़का ढूंढ रहा हूँ जिसके साथ अपनी बहन की शादी कर सकूं.पर यहाँ तो सब अपनी ही कहने में व्यस्त हैं,मुझे कोई नहीं सुनना-समझना नहीं चाहता है.
"आते रहे लोग मयकदे में और पीते रहे सुबह तक,
पर किसी ने न पूछा,ऐ 'बादल' तेरा जाम कहाँ."

अजीब फितरत है इस जहाँ की .यहाँ रोना चाहो तो हँसना पड़ता है.यहाँ हँसों तो लोग रुला देते हैं.यहाँ प्रेम पर लंबे-लंबे भाषण हैं-ग्रन्थ हैं-गीत हैं-प्रार्थनाएं हैं-विचार हैं-दर्शन है-व्याख्याएं हैं,पर इसके ठीक विपरीत इन्हीं लोगों को,प्रेम-प्रेमी-प्रेमिका,कोई भी स्वीकार नहीं है.इश्क-हकीकी की बातें हैं.इश्क से इस्म-ए-शरीफ़ (परिचय) भी नहीं है.यहाँ इश्क के लिए बेताबियाँ हैं.यहाँ हर हयात,इश्क-ए-हयात के मनगढ़ंत किस्से लिए घूम रही है और दूसरी तरफ़ आशिकों को काफ़िर करार दे उन्हें संगमार की सज़ा दी जा रही है.तब इश्क-ए-खुदा,खुदा-ए-इश्क के आलम में इश्क को लेकर जो बदगुमानियाँ हैं,उसमें तो यह नज़्म है......,
".......खुदा-खुदा में यह अन्तर,
इस खुदा-ए-आलम में,
तो क्यों कहें -
इश्क को खुदा हम......"

मैं वापिस बामनिया लौट आया.यहाँ शीत की सिरहन ज़्यादा नहीं थी और मैं शीत का आनंद लेने भोपाल चल आया.यहीं मेरा जन्मदिन भी पड़ा.पर मेरे लिए उसका कोई महत्त्व नहीं था सिवाय एक और आँकड़े के कि मैं और थोड़ा बड़ा होकर और थोड़ा कम हो गया हूँ.जीवन न तो राजनीति है और न ही आर्थिक बाज़ार,न क्रीडांगन,जहाँ मैं हर-वर्ष अपने गुण-दोषों की विवेचना करता फिरूँ.मैंने प्रारम्भ से जीवन को उसकी सहजता में जीने का प्रयास किया है,पर उसे कितनी सहजता से जी पाया हूँ,यह विश्लेषण या निष्कर्ष दूँ तो वह यह है कि मैं जीवन को कई बार उसकी असहजता में ही जी पाया हूँ.उपलब्धियाँ रहीं,पर उसके नक्श-ए-क़दम पर अनुपलब्धियाँ भी चलती रहीं और मैंने अपनी हर अनुपलब्धि को अपने ही गुण-दोषों की विवेचना पर स्वीकार्य किया है. कभी किसी अन्य को दोषी नहीं ठहराया है.मुझे याद है कि एक दिन मैंने यहीं इंदौर में अर्चना से यही कहा था,"अर्चना, तुम मुझे बताओ कि यकायक तुमने मुझे नापसंद क्यों कर दिया.मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम दोषी हो,दोषी मैं ही हूँ,पर तुम मुझे बताओ मुझसे कहाँ पर क्या और कैसी गलती हुई है.मैं अपनी हर भूल स्वीकार कर उसे सुधारने के लिए कटिबद्ध हूँ और सुए दुबारा न करने के लिए प्रतिबद्ध भी हूँ.क्योंकि मेरे अपने विचार से इस धरा पर,विशेषकर अपने भारत में तो कोई लड़की इतनी बेबकूफ़ नहीं होगी जो अपने प्रेमी को,जिसके पास शिद्दत-जूनून सब-खुछ हो,जो हर तरह से सक्षम हो और जिसे इस तरह से ठुकरा दिया जाए,यह मेरी समझ से बाहर है."
पर अर्चना ने कोई उत्तर नहीं दिया.
मैंने भी अर्चना के उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं की.पता नहीं मैं निर्दोष हूँ. मेरे सामने कभी भी जीवन न्यायपालिका बनकर नहीं आया.मैं जानता हूँ और आज उम्र के इस दौर में तो मैं अपने अनुभव से यह भी कह सकता हूँ कि जीवन परिस्थितियों पर ज़्यादा निर्भर करता है.परिस्थितियां आपके नियंत्रण में भी हो सकती हैं और अनियंत्रित भी हो सकती हैं.कारण- आपका जीवन दुसरे के जीवन से जुड़ा हुआ है,चाहे किसी भी रिश्ते से क्यों न हो,कोई न कोई तो आपसे जुड़ा ही रहता है.वहीँ आपके अन्दर का जीवन एकाकी भी हो सकता है,आपकी अपनी वैचारिकता-व्यैक्तिकता हो सकती है,पर जहाँ से दूसरा जीवन प्रारम्भ होता है,वहाँ से आपके स्पंदन को दूसरे स्पंदन के साथ ताल-मेल बैठाना ही पड़ता है.आप वस्तुतः अकेले नहीं हो सकते हैं.आपकी आन्तरिकता नितांत एकाकीपन का अनुभव कर सकती है,परन्तु वस्तुतः आप एकाकी कभी होते नहीं हैं.यह मेरा अनुभव रहा है.मेरे जीवन के इस एकाकीपन में भी बचपन से आज-तक कई लोग आए और गए.कई लोगों से मैं जुड़ा और कई लोग मुझसे जुड़ गए.समय की धारा में मिलना-बिछुड़ना लगा रहा.इन लोगों से मिझे सुख और दुःख दोनों मिले और अगर इन लोगों से पूछा जाए तो यह लोग मेरे से भी ऐसी ही प्राप्तियां निकलेगें. अगर बचपन से शुरू करुँ to मेरी पूरी कथा अपने ऐयारियों-तिलिस्मों के साथ एक और "भूतनाथ" बन सकती है.यही मेरा जीवन है.वैसे हम सभी जीवन को किसी-न-किसी स्तर पर तिलिस्म में ही जीते हैं.
"भटक आए द्वारे-द्वारे,
मेरे दीप के उजियारे,

स्वप्न गीत रह गए-
नींद भरे नयनों में,
चाँद कितना प्यासा रहा,
प्रेम की अंजुरी में,
रूठी चाँदनी को मना लाये,
अरे ऐसे कहाँ भाग्य हमारे."

आज अपने ही जन्म-दिन पर मुझे यह सब कितना याद आ रहा था.आज मेरे जीवन की यायावरी द्वार-द्वार उजियारे की तलाश में भटकते हुए उन्तीस वर्ष पूर्ण कर रही थी और मैं इस पढाव के अगले पढाव की तैयारी में था.
"जीवन की सुध किसे -
अरे यायावर हम,

कितने अनजाने पथों की धूल छानी,
कितने तारें गिन डाले,
चूर नहीं हुए थककर हम,
अरे यायावर हम......"

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