सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 10 मई 2010

.....तुम्हारा दौड़ना.

इस धरा पर -
जब से खोली हैं हमने आँखें,
तुम्हे दौड़ता ही पाया है.
पहले हमारे बचपन को सहारा देने के लिए,
उसकी शरारतों को अपने आँचल से ढंकने के लिए,
हमे शिक्षित-संस्कारवान बनाने के लिए,
फिर हमारी सुघढ़ जीविका के लिए-
तुम्हे नर्बदा के किनारे तक दौड़ता हुआ देखा है मैंने,
फिर जब तुम्हारे लालन-पालन की सीमा से हम सब बाहर हुए तो -
तब तुम हमारी गृहस्थी बसाने के लिए भी दौड़ पड़ी थीं,
वह तुम्हारे- तुम्हारी अपनी नौकरी से रिटायरमेंट के दिन थें,
पर बहुओं ने तुम्हे सेवानिवृत नहीं होने दिया,
हाँ तुम्हे अपनी पोती के पीछे कहीं ज़्यादा सुकून से दौड़ता हुआ पाया,

हमारी असीम इच्छाएं पूरी करने के लिए,
अलसभोर से देर रात तक तुम्हे दौड़ता हुआ ही पाया है.

पर.......आज जब,
तुम अपनी एड़ी की वज़ह से चल भी नहीं पा रही हो,
जबकि हम जानते हैं कि-
तुम्हे आज भी हमारे पीछे दौड़ना अच्छा लगता है,
यहाँ हममे से किसी के पास भी समय नहीं है कि -
तुम्हे फिर से दौड़ने के काबिल बनाने के लिए -
तुम्हारा इलाज करा सके,
आज हम सब-
अपनी-अपनी ही दुनियाओं में दौड़ लगा रहे हैं.

...........और तुम कहीं पीछे छूट-सी गई हो.

सोमवार, 3 मई 2010

.......मोक्ष तक.

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर,
जहाँ-
मेरा प्रेम सावन बन बरस रहा था,
और वहीँ -
तुम्हारी देह - भादों-सी उफनकर मचल पड़ी थी,
इस अलौकिक प्रेम के ज्वार में,
तुम्हारी देह का वह सौन्दर्य -
मेरी देह के सप्तक से मिलकर,
मिलन का एक राग छेड़ बैठे थें,
उस रात में-उस राग में-उस बिछौने पर,
हम-तुम -
रच-बस-गुंथ-मिल-लिपट / कुछ यूँ यहाँ-वहां हो रहे थें / कि -
तुम्हारे घुंघराले केशों में मेरी उँगलियाँ -
मानो सितार पर मध्यम स्वर छेड़ रही हो,
और उधर - तुम्हारी आतप्त हथेलियाँ,
मानो मेरी पीठ पर नृत्य कर रही हों,
हमारी गहरी साँसों-स्पंदन-मचलती शिराओं के साथ,
फिर कुछ यूँ हुआ कि -
श्वासें - श्वासों में गुम,
धड़कने - धडकनों में बंद,
आँखें - आँखों में डूबी,
शहद-से घुलते होठों से होठ,
कंपकपाते - सरसराते उस आलिंगन में,
ख़ामोशी के आरोह-अवरोह में,
जो मस्त राग हम छेड़ बैठे थें / कि /
नसों में इठलाती-इतराती रागनियाँ,
मानों -
इस उदात्त मिलन के वृन्दगान सुना रही हों,
फिर -
कहाँ तुम - कहाँ मैं,
कौन जाने - क्या पता,
कितनी तुम मुझमे,
कितना मैं तुममे,
किसको संज्ञान - कौन बताये / कि /
कौन किसमे कितना-कितना,

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर -
हमने देह के संगम से आत्मा का मिलन किया था,
कि फिर - तू नहीं - तू रही,
कि फिर - मैं नहीं - मैं रहा,
हम दोनों मिलकर आधा-आधा,
एक पूरा हो गए,

उस रात -
स्वप्न के बिछौने पर -
तुम्हारी देह एक आकाशगंगा बन बह रही थी,
और मैं - उसमें डूबता-उतराता बहा चला जा रहा था,
समय की इस गतिमान परिधि में,
हम ही उसके एक सिरे पर रुक-से गए थें,
और - यह मान लिया था हमने कि -
समय को हमने रोक लिया है,
पर प्रिये - समय रुके या न रुके,
हम तो एक-दूसरे में रुक ही गए थें,
..........एक दूसरे में ठहर ही गए थें,

उस सुबह -
मैं मोक्ष पा चुका था,
और तुम.........!
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