सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 19 जनवरी 2009

पल-प्रतिपल (भाग - पाँच)

पल-प्रतिपल (भाग - पाँच)

"राह-ए-मोहब्बत में हम-तुम चले भी तो क्या चले,
थोड़े फ़ासले से तुम चले,थोड़े फ़ासले से हम चले"

इंदौर मेरी जन्म-भूमि, मेरे बचपन का शहर,मेरी शरारतों का शहर,मेरी मस्ती का शहर,मेरी किशोरवय अठखेलियों का शहर,मेरे यौवन की उनींदी सुबह का शहर, मेरा जीया शहर.....मेरा इंदौर.वह इंदौर,जिसके कई हिस्सों में आज भी मेरी कई स्मृतियाँ मचल रहीं हैं,इठला रही हैं,इतरा रही हैं,उमड़-घुमड़ रही हैं.आज उसी शहर में मेरा यह सर्वथा अनूठे ढंग से - एक अलग ही नयेपन के साथ आगमन था.आज यह शहर मुझे अजनबी-सा लगा या हो सकता है कि मैंने ही यहाँ अजनबी की तरह प्रवेश किया हो.

आर्ची अब तुम ही बताओ कि किस तरह से मैं यह व्यक्त करुँ कि जिस शहर में मैं बहुत ही अपनेपन के साथ दौड़ा-दौड़ा चला आता था,आज तुम्हारे लिए यह राज कितने चुपके से यहाँ आया है,कितने परायेपन के साथ तुम्हारा पता पूछ रहा है,तुम्हे ढूंढ रहा है.क्या कोई अपने ही शहर में ऐसा करता है ? क्या कोई इस तरह से अपने ही शहर में पराया भी हो सकता है ? पर आर्ची को इससे क्या लेना-देना,प्रश्न तो मेरे अपने थें और इन सबके उत्तर भी मुझे ही ज्ञात करने थें.उसकी तो अब दुनिया ही अलग थी.अपनी ढेरों धड़कनों के साथ मैं आर्ची से मिला.जीवन की इस शतरंज की इस सर्वथा नई बिसात पर कुछ सर्वथा नई चालें....,"तुम यहाँ क्यों आए...?"
यह उसका पहला वाक्य था.
"प्रेम से आगे कुछ भी नहीं,
प्रेम में ही सब-कुछ समाया है,
कहा-सुना-लिखा यह बहुतों ने,
पर मुझ-सा हतभागी कोई हुआ नहीं है."

उस पहले वाक्य से हमारे संबंधों की जड़ों पर निर्मम प्रहार प्रारम्भ हुए.जब मैंने उसके सामने पुनः विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसने मुझसे कहा,"न मुझे तुमसे कोई संबंध रखने हैं और न ही मुझे तुमसे विवाह करना है."मैं बहुत-बहुत आहत हो गया.काश किसी भी भाषा में मुझे अपनी इस पीड़ा को लिखने के लिए शब्द मिल पाते.उन दिनों के वह सब पल मुझे शब्दशः स्मृत हैं.मैंने उसे समझाने की हर संभव कोशिश की, पर वह एक ही राग छेड़े रही," मैं तुमसे प्यार नहीं करती."
"क्यों मेरे पीछे पड़े हो ?"
"मेरे कालेज तक मत आया करो.नहीं तो अपने कालेज के लड़कों से पिटवाऊंगी."
"मैं किसी और से प्यार करती हूँ."
" मैं तुम्हारी रखैल नहीं हूँ."
"तुम तो जानवर हो."
"तुम तो जानवर से भी गए बीते हो. जानवर को दुत्कार दो तो वह फिर नहीं आता है.यह बात तुम्हे समझ में नहीं आती है."
"तुम्हारे जैसा बेशर्म मैंने आज तक नहीं देखा है.रोज़-रोज़ यहाँ आ जाते हो."
"तुम कौन, मैं तो तुम्हे जानती तक नहीं."
ऐसी ढेरों कड़वी बातें हैं,जो मुझे अपने इंदौर के चार-पाँच बार के प्रवास में गत एक माह में सुनने को मिली.यह सावन-भादों मुझे कितना रुला रहे थें-कितना तड़पा रहे थें.इस बार की बरसात ने मुझे कितना भीगोया-कितना मैं अपने ही आंसुओं से भीगा,यह हिसाब मेरे पास नहीं था और न ही यह हिसाब बरसात के पास था और आर्ची,उसे यह हिसाब रखना आता ही कहाँ था.पता नहीं वह किस मिट्टी की बनी हुई थी,मुझे समझ ही नहीं पा रही थी - न जाने मैं किस मिट्टी का बना हुआ था,स्वयं को ही नहीं समझ पा रहा था.मैं आर्ची के पास जाता रहा.उसकी कड़वी बातें सुनता रहा.रोता रहा-हँसता रहा.वाह रे सावन-भादो....!
"लोग क्यों रोकते थे हमें आँधियों का मुंतज़िर होने से,
आज तिनके-तिनके होकर यह बात समझ में आई है."

यह शब्द थें मेरी पीड़ा का गान और क्या लिखूं इससे ज़्यादा.बचपन से जीने के प्रति जिस प्रतिबद्धता को मैं समर्पित रहा,इतने दिनों में मैं अपनी इसी प्रतिबद्धता के चटखने की आवाज़ भी न सुन पाया.
"एक प्रेम बंधन में बंध -
आना बारम्बार सपनों का,
जीवन के नितांत उपास्य क्षणों में -
छलकर जाना सपनों का,
अपने सपनों के छल से परे,
और कोई नहीं है इतिहास मेरा."

इन छले हुए सपनों में से कई चेहरे - कई पल अनायास ही स्मृत हो आए.ममता,तुम्हे कितना छला था मैंने.तुम्हारे मन के हर द्वार पर मैंने बिना तुम्हारी सहमती-अनुमति के कई-कई बार दस्तक दी थी.तुम्हारे साथ मैंने एक ही सपना देखा था कि बस तुम होगी मैं हूगाँ,और फिर हमारे मिलन का साक्षी यह ब्रह्माण्ड हम में ही विलिन हो जाएगा......यह एक झूठा सपना था,क्योंकि तुम्हे तो ख़बर ही कहाँ थी कि तुम्हारा एक दीवाना ऐसा कोई सपना भी देख रहा है और मैंने तुम्हे इस सपने को बताने के लिए कई बार तुम्हारे द्वार पर दस्तक भी दी.जिस "दस्तक" की गूँज तुम्हारे जीवन में गूँजी थी और तुम तब कितनी-कितनी आहत हो गई होगी,यह मैं आज समझ पा रहा हूँ,जब तुम्हारे श्राप से आज मैं अपने ही द्वार के टूटने अनुगूंज सुन पा रहा हूँ.
"मैं चाँद और सूरज की -
काँवर लिए, तारों की पगडंडियों पर जाना चाहता था,
इस यायावरी ने,
मेरे लिए घर एक सपना बना दिया."

आज मैं अपनी ही पीड़ा का विषपान कर, विषजयी हो रहा था.चाँद था,चांदनियां थीं,सूरज था,किरणें थीं,तारें थें........पर अब इस यायावर के पास न काँवर थें और पगडंडियाँ न जाने कहाँ गुम होकर रह गई थीं.मैं जान नहीं पा रहा था और यह पल मैंने किसी से कह भी नहीं पा रहा था.
ममता, उस समय तुम मुझे बहुत याद आईं और मैंने तुम्हे ही केंद्रित करके एक लंबा पत्र आर्ची को लिखा कि वह एक बार तो मेरे बारे में ठंडे दिमाग़ से सोचे और अपने जीवन के विषय में कुछ सार्थक निर्णय ले.
ममता मेरे जीवन-आकाश पर पन्द्रह वर्ष तक देदीप्यमान रही थी.प्रेम वह भी था-प्रेम यह भी था.आरधना वह भी था-आराधना यह भी थी. अधूरा मैं वहां भी रह गया था - अधूरा मैं .......?

इन सब घटनाक्रमों के चलते मैं एक बार फिर बीमार पड़ गया और नन्द मुझे छोड़ने भोपाल तक आया.मैं किंकर्त्यव्यविमूढ़ था. कुछ समझ नहीं पा रहा था.जीवन का यह अनूठा ही दौर था.मैं जीवन में जब-जब भी परेशानियों में घिरा,तब-तब भोपाल के बड़े तालाब के किनारे जा पहुँचता था और उसकी लहरों के साथ अपने सुख-दुःख,जब-तब बाँट लिया करता था.बड़े तालाब में अजीब-सा आकर्षण मैंने अपने प्रति हमेशा से पाया था.इसके किनारों ने-इसकी लहरों ने मुझे कई बार बहुत ही आत्मिक शान्ति पहुंचाई है.आज जीवन ने मुझे फिर बड़े तालाब के उसी किनारे पर लाकर खड़ा कर दिया था,जहाँ से मैंने अपने जीवन के लिए कई निर्णय लिए थें.आज फिर एक अन्य निर्णय के लिए मैं वह था.मैंने लहरों के साथ स्वयं को बाँटना शुरू किया......,
"कितना प्यार करुँ मैं,
रहा बैठा ताल किनारे -
गुपचुप,गुमसुम-गुमसुम,
लहरों को कितना देखा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं...."

लहरों में मेरा अक्स था और फिर जैसे ही हम-दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना,बातें शुरू कर दीं.लहरों ने मुझसे कहा," राज, और कितना भटकोगे.कैक्टसों के जंगल में प्यार नहीं किया जा सकता है.वहाँ प्यार करने के लिए हथेलियाँ नहीं बिछाई जाती हैं.प्रेम के लिए तो फूलों की घाटी में जन्म लेना पड़ता है.मुझे तुमसे हमेशा यही शिकायत रही है कि तुम प्यार करते ही क्यों हो ?"
मैं चुप था.
"भागता है मन बहुत,
पर मैं ठहरा रहता,
गुम अपनी ही धुन में,
और कितना तड़पा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें फिर कह उठीं," राज,चुप न रहो.कुछ तो कहो कि आख़िर क्यों करते हो इतना प्यार ? क्या शब्दों को सान पर चढाने के लिए ? क्या प्यार में तड़पना तुम्हारा शगल है ? छोडो भी अब यह बेकार की बातें.तुम हमेशा गहराई से और गहरी बातें करते हो, जबकि लोग आज यहाँ कानों से सुनने के आदी हैं,यह ह्रदय से सुनते ही कहाँ हैं."
मैं क्या कहता.
"पहाडों को छू लिया,
नदियों में भीग लिया,
नाचा भी हरी दूब पर,
और कितना अभिव्यक्त करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें भला कहाँ चुप थीं," राज, आज का युग प्रेम में जीने का नहीं है,जब तुमने ममता को अपने अस्तित्व से अलग किया था,तब तुम दूसरे थें,किशोरवय के भीगे स्वप्न तुमने युवावस्था की देहरी पर तोड़े थें.तुम और ममता किसी प्रेमिल आकाशगंगा से आए थें और यहाँ इस धरा पर आज जबकि युग पल-पल बदल रहा है,तुम रहे वही आकाशगंगा वाले प्रेमी ही.इस धरा की गंगा में अब तक बहुत पानी बह चुका है.यह अर्चना है."
क्या कहूं मैं.
"देखता हूँ बहुत पास,
और छू लेना भी चाहता हूँ,
पर स्पर्श है स्वप्निल-सा,
कहो कितने स्वप्न देखा करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं....."

लहरें मेरी एक-एक भाव-भंगिमा पढ़ रही थीं और कह रह थीं,"राज, स्वप्न सिर्फ़ स्वप्न ही होते हैं.तुम संवेदनशील हो.प्रेम कर सकते हो.पर यह अर्चना है.अगर यह अपना जीवन अपने ढंग से बीतना चाहती है तो तुम क्यों अपने प्रेम का अड़ंगा लगते हो.क्या यह आवश्यक है कि हर व्यक्ति प्यार के साये में ही जीवन व्यतीत करे ?"
मैं फिर भी नहीं बोला.
"तेरी-मेरी बात नहीं,
बने यह कथा जग की,
पर मिलन की बात नहीं,
कहो कितना इंतजार करुँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं......"

लहरें बे-परवाह बोलती रहीं," राज, अर्चना को उसके हाल पर छोड़ दो.प्रेम में अधिकार सहज प्राप्य हो तो ठीक,पर अधिकार को अधिकार की तरह मत मांगो.किसी इंतजार की आवश्यकता नहीं है.लोगों ने तो तुमसे बहुत-कुछ कहा है,पर मेरी एक बात यह भी सुनो कि तुम्हारा भी अस्तित्व है,तुम्हारा भी स्वाभिमान है,तुम जानवर नहीं हो.तुम प्रेमी हो और यदि कोई तुम्हे समझ नहीं पा रहा है तो परेशां क्यों होते हो ?"
मैं सिर झुकाए चुपचाप सुनता रहा.
"तुम रहो एहसास में मेरे,
अँगुलियों का स्पर्श न सही,
ह्रदय की तस्वीर ही सही,
कितना स्पंदित रहूँ मैं, कितना प्यार करुँ मैं....."

लहरें मुझे समझती रहीं," राज, अब छोडो भी यह किस्सा.तुममे जीवन को नए सिरे से शुरू करने का माद्दा है.अभी कई सूरज तुम्हारा इंतजार कर रहें हैं.कई चांदनियां भी तुमसे मिलने को बे-ताब हैं.कई तारें तुम्हारे जीवन में चमकने को तैयार हैं.कई फूल खिलने को तैयार हैं.अर्चना का अध्याय बंद करो.उसे प्यार करो.उसे प्यार करो जैसे कि प्यार किया जाता है,पर अपने जिस्म की हर ज़ुबां को बंद कर लो.मेरी लहर-लहर तुम्हारी है.
आख़िर हुआ भी वही.1 अक्टूबर 93 की सुबह,जब मैं कुछ क्षणों के लिए आर्ची से मिला तो मैं उसकी हाँ या न के लिए मानसिक रूप से पूर्णतः तैयार था.मैंने उससे पूछा," तुम्हे मेरा पत्र मिला ?"
"हाँ"
"तुम्हारा क्या निर्णय है ?""
वही पुराना निर्णय."
और मैं वहाँ से चल दिया,बिना एक भी शब्द और कहे.वह भी चल दी थी,मेरे पास से ही नहीं वरन मेरे जीवन से भी दूर जाने के लिए चल दी थी.मैं दुखी था,पर उसके तल्ख़ एहसास से बहुत दूर था.
"फासले इतने न कीजिये कि दुनिया कम लगे,
ज़िद इतनी न कीजिये कि उम्र कम लगे."

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