सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

मंगलवार, 31 मार्च 2009

हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिकल फिल्में......

आज मैं बात कर रहा हूँ हिंदी की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की.यह वो फिल्में हैं जिन्हें देखना एक सुखद अनुभव होता है और बार-बार देखने की इच्छा बनी रहती है.और यदि बार-बार देखने को न मिले तब भी यह फिल्में आपके अंतर्मन में चलती ही रहती हैं और जब भी फिल्म की शास्त्रीयता की बात होती है तो इन्हीं चंद फिल्मों का नाम ज़ुबान पर आता है.इन्हें आप फिल्मों का जादू भी कह सकते है और यदि फिल्मों को परिभाषित करना हो तो तब भी यही फिल्में सामने आती हैं.फिल्मों का यदि कोई स्कूल हो तो तब भी वो यही फिल्में होगीं जो उस स्कूल का प्रतिनिधित्व करेगीं.
एक शास्त्रीयता में ढली-रची-बसी यह फिल्में,सुन्दर-सुघड़ सौन्दर्य का जीवंत उदहारण प्रस्तुत करती हैं.फ्रेम-दर-फ्रेम फिल्म कुछ यूँ आगे बढती हैं कि देखनेवाला अपने को भूलने लगता है और जब फिल्म ख़त्म होती है तो वह उसके जीवन का स्थाई भाव बन जाती है.उसे लगता है कि वह फिल्म देखकर नहीं वरन उसे जीकर आ रहा हो या उसे लगता है कि अरे यह तो उसी पर बनी है,उसी के परिवेश की बात कह रही है.कितना सच कहा गया है,कितना अपनापन है,कितना आंदोलित करती है,हाँ समाज को बदलना ही होगा.अब यह सब नहीं चलेगा.ऐसी ढेर सारी बातें उस देखने वाले के मनो-मस्तिष्क में चलती ही रहती हैं.यह फिल्में एक अलग छाप छोड़ती हैं.
क्या ऐसी कोई फिल्म आपको याद आ रही है,क्या कहा हाँ......पता नहीं.....नहीं.....,चलिए मैं ही बताये देता हूँ.मैंने हिंदी फिल्मों की दस सर्वश्रेष्ठ क्लासिक फिल्मों की सूची तैयार की है,जो आज भी अपनी एक अलग जगह रखती हैं और एक फिल्म बनाने वाले के लिए यह फिल्में आज भी एक श्रध्दा का भाव रखती हैं और एक ऐसी क्लासिक देने की चाह उस हर व्यक्ति के मन में होती है,जो कहीं-न कहीं फिल्म के निर्माण-निर्देशन से जुड़ा हुआ है.प्रस्तुत है यह सूची -
१. अछूत कन्या -
अपने दौर की बाम्बे टाकीज की वो क्लासिक है,जिसका जबाब आज भी कहीं नहीं है.
२. आदमी -
व्ही.शांताराम की सबसे क्लासिक कृति है यह फिल्म और अपने दौर की एक बोल्ड प्रेम कहानी भी है.
झाँसी की रानी -
सोहराब मोदी का ऑपेरा,पारसी थियेटर की शैली,इस जादू का आज भी तोड़ नहीं है.इतिहास की ऐसी प्रस्तुति आज संभव नहीं है.
४. दो बीघा ज़मीन -
यह फिल्म उस दौर में जितनी जीवंत थी,आज उससे कहीं ज़्यादा जीवंत है.प्रगति के तमाम पायदानों के ऊपर बैठे हुए हम लोगों के नीचे आज भी असंख्य लोगो के लिए दो बीघा ज़मीन के लिए संघर्ष वैसा का वैसा ही है
५. जागते रहो -
आरके की यह फिल्म.सिर्फ़ फिल्म ही नहीं समाज का आइना भी है,जो आज भी वैसा ही है.बल्कि आज तो यह आइना और भी कारपोरेट हो गया है.
६. बंदिनी -
नहीं देखी हो देख लें और प्रेम की पावन उत्कंठा को अपनी आत्मा तक महसूस करें.मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस प्रेम की बेकरारी आप अपने लिए भी चाहेगें.
७. देवदास -
के.एल.सहगल और दिलीप कुमार दोनों जैसे एक ही धारा के दो रूप हों,जैसे एक राग-दो रागनियाँ हों.
८. तीसरी कसम -
जीवन कितना भोला और मासूम हो सकता है कि हम सब हीरामन हो जाना चाहेगें.
९. साहब-बीवी और गु़लाम -
इस फिल्म की विशेषता यही है कि इस पर बोलना-लिखना आसान लगता है,पर है मुश्किल.पर गुरुदत्त का ही हो जाने का जी चाहता है.करीब १३०० पन्नों के उपन्यास को तीन घंटे के रूपक में बदल देना और वो भी मूल कहानी और उसकी आत्मा से बिना छेड़छाड़ किये हुए अदभुद है अदभुद.
१०. शतरंज के खिलाडी -
प्रेमचंद की कलम का जादू तो है ही पर सत्यजीत राय का जादुई स्पर्श इस कहानी को इतिहास में बदल देता है.
मैं जानता हूँ कि सिर्फ़ दस फिल्मों को इस तरह शामिल करना स्वयं के साथ ही नहीं सिनेमा की रचनाधर्मिता के साथ भी अन्याय ही है,पर यह तो शुरुआत भर है.उक्त सूची को पढ़कर आपके ज़ेहन में भी ऐसी कई फिल्मों के नाम चलचित्र की तरह उभर रहे होगें जो इस सूची में शामिल नहीं हैं, पर आप उन्हें मुझसे शेयर कर सकते हैं.
आज इतना ही,
शेष फिर......!

1 टिप्पणी:

RAJ SINH ने कहा…

neeraj jee aapke chunav se sahmat hoon ,
aapko HINDYUGM par meree aadranjali 'NAMAMI RAMAM' aanandit kar gayee aabharee hoon .

raj sinh 'raku'