सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

रविवार, 15 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (भाग-नौ)

यह ज़िन्दगी दस्तूर पर चलती है,जज़्बातों पर नहीं.जज़्बात बहकते हैं.अपने उन्मान से ही बहकाते हैं.पूरी नज़्म अगर ज़िंदगी के सफ़े पर शाया हो जाए तो आदमी जो इस कायनात में सबसे दानिशमंद कहलाता है,माना जाता है, बुरी तरह टूट जाता है.ऐसी नज्में जब लफ्ज़ों के दरीचे से ख्वावों की बहारें ला रही होती हैं तो वहीँ उसी दरीचे के पास वाला दरवाज़ा हकीकतों की दस्तकों से भर जाता है.
सवाल यह है कि फिर जीया कैसे जाये और कहाँ तक जीया जाये.मैंने इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य सामंजस्य बनाने का दुष्कर कार्य किया है और कब तक करता रहूगाँ,पता नहीं.
"जीवन, जो जीया नहीं,
जीया जिसे -
उसे जीवन कह न सके....'
इस जीवन में लड़ने का हौसला है,हारने का अनुभव है,जीतने के लिए संघर्षों की अंतहीन श्रृंखला है.सुख के लिए आँखों में सलोने स्वप्न हैं.दुखों के निर्बाह के लिए मनःस्थिति है.प्रेम की प्रतीक्षा है.आलोचनाओं का केंद्र बिंदु रहा हूँ.मेरी अपनी क्षमताएं-अक्षमताएं हैं.पर तमाम विडंबनाओं-विविधताओं-विचित्रिताओं-विसंगतियों के चलते इनके बीच मैं निराश नहीं हूँ.हमेशा की तरह आज भी अश्रुदीप जलाकर उसकी ज्योत्स्ना में मुझे इस जीवन में,इसी जीवन में प्रेम की सार्थकता में पूरा-पूरा विश्वास है.आज भले ही मैं दुखी हूँ,पर चूँकि यह दुःख मेरे द्वारा ही चुने गए हैं,अतः मैं ही इनसे बाहर निकलने की युक्ति भी जानता हूँ.इन्हें कहीं भी छोड़ सकता हूँ और इसलिए मुझे अपने दुखों से कोई गिला भी नहीं है.
"इस परवानों की दीवानगी भी क्या,
मयक़दों को अपनी साकी से होश भी कहाँ,
कि कहनी थी एक दास्ताँ हमे भी,
पर हर महफ़िल में खामोश रह गई ज़िंदगी."

बहुत भटक गया हूँ मैं.पर क्या करूँ,उस पत्र की भाषा थी ही ऐसी कि मैं बहक ही गया.दो दिन के बाद ही मैं राजेश पालीवाल की शादी में सिरोंज चला गया.वह पालीवाल ने मुझसे कहा की डॉ.व्यास की बेटी की शादी में.अभी पिछले ही हफ्ते,अर्चना और नासिर दोनों ही वहाँ मिले थें और दोनों ने वहाँ खूब मस्ती भी की.सुनकर मुझे थोडा अजीब तो लगा पर मैंने ध्यान नहीं दिया और मैं ध्यान देता भी नहीं, क्योंकि मैंने अपने जीवन में कभी संकीर्णता को कोई स्थान नहीं दिया है,पर मेरा ध्यान खींचा स्वयं नासिर ने,उसी ने एक दिन मुझे मेरे आफिस में फोन करके मुझसे मिलने का समय माँगा तो मैंने उससे कह दिया कि वह शाम को आकर मुझसे मिल सकता है,पर उसने कहा कि वह मुझसे अकेले में पेटलाबाद में मिलना चाहता है,तो पहले तो मैंने मना कर दिया पर उसके ज़ोर देने पर कहा कि ठीक है आकर मिलता हूँ,पर फिर गया नहीं.मैं सोच में पड़ गया कि आखिर नासिर को मुझसे क्या काम हो सकता है,मैंने आज तक उसके बारे में सिर्फ़ सुना भर था,उससे कभी मिला नहीं था और न ही वह कभी मुझसे मिलने आया था. उसके बारे मैं सिर्फ इतना ही जानता था कि अर्चना और वो दोनों एक-दुसरे को खूब अच्छी तरह जानते हैं और दोनों में प्यार भी है. इस बारे में मुझे अर्चना ने सिर्फ़ इतना ही कहा था कि वो दोनों अच्छे दोस्त हैं,पर अन्य लोगों ने तो मुझे चटखारे ले-लेकर कई-कई बातें बातें थीं,पर जैसा कि मैंने कहा है कि मैंने कभी इस तरह संकीर्ण होकर नहीं सोचा है और फिर कौन किसके इंतजार में सारी उम्र बैठा रहता है.यहाँ भी यही बात है कि न तो अर्चना मेरे लिए बैठी थी और न ही मैं अर्चना के लिए बैठा था.बस एक दिन हम मिले और हममें प्यार हो गया.मेरे उसके जीवन में आने से पहले और उसके मेरे जीवन में आने से पहले हम दोनों के जीवन में कौन-कौन आया और कौन गया.इसका हिसाब कौन रखता है.मैं तो बिलकुल ही नहीं रखता.अतः जिन-जिनने भी मुझसे अर्चना और नासिर को लेकर रस ले-लेकर बातें करीं थीं उन्हें मुझसे निराशा ही हाथ लगी थी.मैंने भी नासिर से मिलने की या उसके बारे में जानने के बारे कभी भी कोई कोशिश नहीं की थी,यह मेरे स्वभाव में ही नहीं था.यहाँ तक एक-दो बार स्वयं अर्चना ने मुझसे नासिर से मिलने को कहा था, पर मैंने कोई जबाब नहीं दिया.क्यों मिलूं,इसका कभी कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आया.
पर नासिर स्वयं मुझसे मिलना चाहता था.पर क्यों ....यह मेरे लिए एक पहेली से कम न था.उधर मैं मार्च की क्लोजिंग में व्यस्त था.फिर जब महाशिवरात्रि आई तो मैं भोपाल चला आया.यहाँ मैंने पटेल की शादी के उपलक्ष में एक छोटी-सी पार्टी रखी थी.रविवार को सभी मित्र इक्कठे हुए और फिर उन्हीं लोगों के साथ,दिन भर शादी और द्वारका-सोमनाथ के किस्सों में सारा दिन बीत गया.यहाँ मेरे साथ एक अनहोनी हुई,जिसने मुझे अर्चना के साथ मेरे संबंधों के विषय में सोचने पर मजबूर कर दिया.हालाँकि इस अनहोनी का अर्चना से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था.
असद, मेरे बचपन का मित्र,उसने उस रात मुझे अपने विवाह के विषय में जो कथा सुने उसे सुनकर मैं दंग रह गया.जहाँ उसकी शादी तय हुई थी और जिस लड़की से वह प्यार करता था,वहीँ उसके खिलाफ षडयंत्र रचे जा रहे थे और वह वहाँ से भाग रहा था.मुझे दुःख इस बात का था कि असद ने मुझसे पहले से ही यह बात क्यों नहीं बताई.वह बहुत ही उदास और निराश था.आश्चर्य इस बात का था कि उस जैसा जीवट वाला लड़का,प्रेम के मोर्चे से भाग खडा हुआ था.इस पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि उसे भागना नहीं चाहिए,बल्कि लड़ना चाहिए.तब मैंने उसे अर्चना और मेरे विषय में बताया और उसमें मैंने अपनी भूमिका के विषय में भी उसे बताया.फिर हम दोनों काफी देर तक इसी विषय पर बातें करते रहे.दुसरे दिन ईद थी और मैं ईद मिलने के जब इरशाद के यहाँ गया तो उसने मुझे असद के बारे में नए तथ्यों से अवगत कराया.रात को जब मैं वापिस बामनिया आ रहा था तो मैं असद के घर गया और फिर उसे लेकर रेल्वे-स्टेशन आ गया.यहाँ आकर हम-दोनों ने प्रेम,विश्वाश,संबंध,छल और इन सबमें अपनी-अपनी भूमिका एवं उसकी सामाजिकता के सन्दर्भों पर करीब दो घंटे तक बातें की.मैंने उसे हर तरह से समझाया कि जीवन में ऐसे दौर तो आते ही रहते हैं.मनुष्य होने की असली परीक्षा तो ऐसे ही मुश्किल दौरों में होती है.उसे लड़ना चाहिए.मुहँ छिपाने से समस्या हल नहीं होती है.समस्या सामना करने से हल होती है.शक और विश्वाश,दो अलग-अलग पहलु हैं.शक की कोई बुनियाद नहीं होती है,शक अनुमानों पर आधारित होता है और विश्वाश की बुनियाद होती है.असद ने भी स्वीकार किया की मैं सही कह रह हूँ.असद ने कहा की वह मेरी बातों से संतुष्ट है और वह इसे गंभीरता से लेगा.
"कह दें तुम्हे अहले बे-वफ़ा,
हमारी मोहब्बत में वो नफ़ासत कहाँ."

असद तो चला गया,ट्रेन भी चला दी,पर मैं उस पूरी रात सफ़र में सो नहीं पाया.रात भर मैं इस घटना और उन सारी बातों के सन्दर्भ में ही सोचता रहा.एक तरफ असद था और दूसरी तरफ मैं था.यहीं से मैंने अर्चना के विषय में,उससे अपने संबंधों की नई व्याख्या शुरू कर दी.पर मैं अर्चना को अहले बे-वफ़ा कह दूं,ऐसी तो मेरी मोहब्बत में नफ़ासत कहाँ है.न ममता,न लीना,न अर्चना और न ही अन्य कोई......मैं किसे बे-वफ़ा कह दूं.मोहब्बत में कोई बे-वफ़ा नहीं होता है,सिवाय वक़्त के.रात भर ट्रेन की धड-धड में वो सभी दिन स्मृत हो आये,जब मैं अपनी पूरी दीवानगी-अपने पूरे जूनून के साथ अर्चना तक दौड़ा-दौड़ा जाता था और वह मुझे जानवर तक कह देने में नहीं हिचकती थी.वह कभी मेरे इस जूनून को-मेरी इस दीवानगी को समझ नहीं पाई थी.वह तो मेरे प्यार को ही कहाँ समझ पाई थी.उसके दिए वह सभी दंश यकायक पुनः हरे हो गए.उस दौड़ती-भागती ट्रेन में उन घावों में से मवाद बाहर आने लगा.मैं सोचने लगा कि यह वही लड़की है,जिसने मुझे खिलौना समझा और मैं भी सब-कुछ समझाते हुए-जानते हुए भी,इस लड़की की परिस्थितियां देखकर हमेशा अपने स्वाभिमान को एक तरफ सरकाकर,इसके लिए ढेरों सुखों के अक्स लिए इसी के पास आता था और यह मुझे अपने ज़िद्दी-क्रूर पिता के समकक्ष रखकर ही सोचती थी. काश अर्चना,कभी तुमने अपने इस व्यव्हार के विषय में सोचा होता.मुझे कितना तोड़ा है तुमने,यह तो तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकती हो,क्योंकि तुमने कभी प्यार किया ही कहाँ है?
" मैं प्रेम कर,
सब-कुछ पा लेने जैसा-
पा लेना चाहता था,
और,
इस प्रेम-प्रतिदान में -
स्वयं को खो बैठा."
कई-कई पीड़ाओं ने मुझे घेर लिया और मुझसे पूछने लगीं कि,"राज,तुम एक बार फिर अर्चना को लेकर घरौंदा बनाने का प्रयास क्यों कर रहे हो,क्यों फिर इस बेकार-सी झंझट में जुट रहे हो.ज़रा सोचो,यह वही लड़की है,जिसके साथ तुम्हे प्यार कम और पीड़ा कहीं अधिक मिली है.तुम इसके साथ क्या कभी खुश रह पाओगे.अगर शादी के बाद भी इसका यही व्यवहार रहा तो फिर उसका परिणाम क्या होगा? कभी सोचा है......?"
मैं अपनी ही पीड़ाओं का अंतर्नाद नहीं सुन पाया.आँसू अन्दर ही अन्दर बह चले.मैं सोचने लगा कि मैंने अर्चना से कहा है कि यदि मुझसे विवाह के प्रति उसकी मनःस्थिति हो तो ही वह मुझसे विवाह करे.वहीँ असद से भी मैंने यही कहा है कि वह भी अपनी मनःस्थिति पर विचार करे.पर क्या कभी मैंने स्वयं अपने प्रेम का,उस प्रेम से उपजी अपनी मानसिकता का कभी आत्मावलोकन किया है? मेरी स्वयं की मानसिकता क्या कहती है?जैसा कि मेरी पीड़ाओं का अंतर्नाद है,उस अंतर्नाद के परिप्रेक्ष्य में मेरी मनःस्थिति कहाँ है?मैं सबसे तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहा हूँ,पर क्या यह 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली स्थिति नहीं है? मैं बस सोचता चला गया-सोचता चला गया.स्टेशन आते रहे-जाते रहे.दिमाग़ की नसें फट जाएँ और मैं मर जाऊँ,इस हद तक मैं सोचता चला गया....!
'हुए तुम-प्रेम और मैं मौन,
कितने थें पल पास हमारें,
मिलन को उद्धत थें सभी भाव कि-
गीत घुंघरुओं के चुरा ले गया कोई."
मैं बामनिया पहुचाँ तो पता चला कि नासिर मुझे कई बार पूछकर जा चुका है.वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है,यह तो मैंने अनुमान नहीं लगाया और मैं भाईजान के पास गया और उसे जाकर सारी बातें बताईं कि यह नासिर मुझसे मिलने को बेक़रार है.तो भाईजान ने मुझसे कहा कि मिल क्यों नहीं लेते हो.कल ही चलते हैं और मैं भी तुम्हारे साथ चलूगां. मैं राजी हो गया.दुसरे दिन भाईजान और मैं दोनों ही पेटलाबाद,नासिर से मिलने जा पहुचें.
नासिर भाईजान से इजाज़त लेकर मुझे अलग ले गया और उसने मुझे बताया कि वह डॉ.व्यास कि बेटी की शादी में अर्चना से इंदौर में मिला था.यह तो मुझे पता ही था.मैं तो असल बात जानने में उत्सुक था.उसने कहना शुरू किया कि वहाँ शादी में अर्चना ने उसे मेरे बारे में बताया था और कहा था कि वह एक बार राज से ज़रूर मिल ले और मिलकर प्रेम और विवाह के सन्दर्भ में अर्चना के प्रति मेरा दृष्टिकोण क्या है,यह जान ले.हमने करीब दो घंटे बातें कीं,उन पूरी बातों का सार यह था कि वह मुझसे यह अपेक्षा रखता था कि यदि मैं अर्चना से शादी कर रहा हूँ तो फिर उसे पूरी ज़िंदगी निबाहूँ भी.उसके लिए मुझे अपना परिवार भी छोड़ना पड़ेगा.कहीं इन सबके चलते मैं उसे बीच मझधार में न छोड़ दूँ और फिर किसी अन्य लड़की से कोई संबंध न बना लूँ या उससे शादी न कर लूँ.मुझे पूरी तरह अर्चना के प्रति ही समर्पित रहना होगा.नासिर मुझसे आश्वासन चाहता था या मुझे अर्चना के प्रति ही समर्पित रहने का दबाब डाल रहा था,यह मैं समझ नहीं पा रहा था,क्योंकि उसे भी ठीक-ठीक से नहीं पता था कि आखिर वह अपनी बात कैसे मेरे सामने रखे और किस तरह से वह अपने-आप को अर्चना का प्रतिनिधित्व साबित करे,यह वह भी समझ नहीं पा रहा था.पर वह कहता रहा और मैं जहाँ भी ज़रूरी हुआ उत्तर देता रहा.मुझे आश्चर्य हो रहा था कि आज क्यों कर अर्चना नासिर के माध्यम से यह जानना चाहती है कि मैं कहीं उसे धोखा तो नहीं दें जाउगां.यह तो वह मुझसे सीधे ही पूछ सकती थी,नासिर को बीच में क्यों लाई.पागल लडकी,आज भी मुझे समझ नहीं नहीं पाई है.अर्चना में निश्चित रूप से आत्म-विश्वास की कमी है.अभी वह स्वयं के प्रति ही आश्वस्त नहीं तो वह मेरे पति या किसी और के प्रति क्या आश्वस्त होगी.पर यहाँ एक बात तो स्पष्ट हुई कि वह मेरे बारे में सोच तो रही है,पर मुझे लेकर उसकी मानसिकता अभी भी नहीं बन रही है.
नासिर मुझसे कोई स्पष्ट उत्तर लेकर इंदौर में अर्चना के पास जाना चाहता था तो मैंने उससे कह दिया कि वह अर्चना से न मिले और इस विषय में उसे अकेले ही निर्णय लेने दें.मैं यह पसंद नहीं करूगाँ कि आज वह किसी के कहने से मुझसे शादी कर ले और कल को यदि उसे अपने निर्णय पर पछताना पड़े तो वह यह नहीं कहे कि मैं तो इस शादी के लिए तैयार ही नहीं थी,वो तो मैंने फ़लाने के कहने पर शादी कर ली थी,वर्ना....!और मैं इस बात को कभी सहन नहीं कर पाऊगाँ.नासिर भी इस बात सहमत हो गया,पर वस्तुतः वह करेगा क्या,यह मैं कह नहीं सकता था.वह चला गया.
नासिर कहीं से भी मुझे प्रभावित नहीं कर सका.हालाँकि उसने मुझसे कोई भी बेढब बात नहीं की और बड़े ही अदब से पेश आया,पर फिर भी वह मुझे कहीं से भी प्रभावित नहीं कर पाया.उसने जितनी भी डॉ मुझसे बात करी थी वह अर्चना के प्रतिनिधित्व के रूप में ही बात की थी और उसकी यही शैली मुझे पसंद नहीं आई.
मैं सोचने लगा कि यह अर्चना स्वयं मुझसे इस सभी विषयों पर बात क्यों नहीं करती है.मैं उसके हर सवाल का जबाब दूगाँ और शायद कहीं बेहतर ढंग से जबाब दें पाऊगाँ.मुझे अपनी ही कहानी 'आराधना' की याद आ गई.उसमें मैंने एक जगह लिखा है कि,"ममता,जिस प्यार को मैं सहजता से कह गया,उसी प्यार को तुम कभी भी सहजता से नहीं ले पाईं......!"
आज इतिहास फिर अपने आप को दोहरा रहा था.सहजता और असहजता के बीच जीवन फिर हिचकोले ले रहा था.मेरा अर्चना से मिलना ज़रूरी हो गया था.
"हो निस्तब्ध निशा या चांदनी का शोर,
स्वप्न भर बातें हों या करवट बदलती रातें,
मेरी नींद के यह सब सहारे,
फिर कौन डाल जाता है सिलवटें मेरे बिस्तर पर,
दुःख - कौन छोड़ जाता है तुम्हे मेरे द्वार पर."
कितना और कहाँ तक भी चला जाऊं,अंततः वह एक दिन मेरे पास अनाहट आ ही पहुचाँ है.वही 23 मार्च 1994 का दिन,मेरे जीवन का वह पृष्ठ जिसके लिए मैं पिछले कई दिनों से कई-कई पृष्ठ रंग चुका हूँ और स्मृतियों के मेले में यहाँ-वहाँ घूम-भटक भी आया हूँ.इस बहाने स्वयं का काफी मंथन कर लिया है और इस मंथन से जो विष और अमृत निकला है,उसका मैं अकेला ही भागी हूँ.मेरे अन्दर देवासुर संग्राम चल रहा है.पल-प्रतिपल जीत-हार की लहरों पर डूबता-उतराता जा रहा हूँ. इन ढेरों शब्दों के साथ आप सभी को भी बांध लिया है.विषजयी होने अमूर्त कामना के चलते अमृत लुटा रहा हूँ.मैं वही राज हूँ,जिसने अपने जीवन के कई रंग इस फाल्गुन में आपके सामने रख दिए हैं,और पीड़ा का अनुभव तो बाँट दिया है पर उसके एहसास को कभी-भी नहीं बाँट पाऊगाँ.अब इस कथा के सूत्रधार के रूप में बहुत देर से मंच पर हूँ.अब हटता हूँ और प्रस्तुत करता हूँ मेरे जीवन का सर्वथा नया नाटक,"23 मार्च 1994."
"फागुन, तुम आयें हो / यूँ तो /
लेकर हजारों रंग,
पर कितने फीके-फीके......."

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