सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

रविवार, 22 मार्च 2009

पल-प्रतिपल (अंतिम भाग)

फाल्गुन माह की वह सुबह.उस दिन अर्चना का अंतिम प्रश्न-पत्र था.मैं सुबह से ही घर से उससे मिलने के निकल गया था.तब मेरे चेतन में ढ़ेरों बातें - अचेतन में ढ़ेरों स्वप्न और इनके बीच मैं,उन्हीं प्रश्नों के साथ जिन पर मैं कई दिनों से विचार कर रहा था.अपने को मथ रहा था.इस मंथन में गरल मिलेगा या अमृत,पता नहीं,पर आज मैं उससे मिलकर यह सब स्पष्ट कर लेना चाहता था.आखिर वह क्या चाहती है,यह जानना भी ज़रूरी था.अन्यथा हम यह संबंध अनावश्यक क्यों ढोए.यवनिका यदि उठनी ही नहीं है है तो फिर पटाक्षेप ही सही.पर इतनी सुबह-सुबह घर से निकलने पर भी अर्चना से मुलाक़ात नहीं हो पाई.
"पाषाणों को पूजा नहीं हमने,
लाँघ गए उन्हें जीवन-पथ जान,
कितना विष भरा हुआ,हुए नहीं अमृत हम,
अरे यायावर हम......"

अब यदि स्वयं की मानसिकता की बात कहूँ तो गत जुलाई से आज तक हमारे प्रेम के सफ़र जितनी भी बाधाएं आई थीं, वह सब अर्चना के द्वारा ही खड़ी की गईं थीं,बाहर का तो कोई भी व्यक्ति हमारे बीच में नहीं था और आया भी नहीं था.हालाँकि अर्चना हमेशा यही कहती थी कि उसकी बहनें इस संबंध के खिलाफ़ हैं और वह लोग मिलकर उस पर यह संबंध तोड़ देने के लिए दबाब डालते रहते हैं. पर अर्चना, यह बामनिया की बात थी,यहाँ तो तुम पूरी तरह स्वतंत्र थीं.तुम्हें ही अपने जीवन के सारे निर्णय भी स्वयं ही लेने थें,पर फिर हुआ क्या,क्या सोचा है आज तक तुमने स्वयं के बारे में-हमारे संबंधों के बारे में.तुम्हारे मन की तो मैं नहीं कह सकता,पर अपने मन की बात तो कह ही सकता हूँ,एक कड़वा सच और वो कड़वा सच यह है कि आज मैं तुमसे शादी करने की मानसिकता में नहीं हूँ.प्रेम के लिए मैं न तो कोई सौदेबाजी कर सकता हूँ और न ही कोई समझौता कर सकता हूँ और फिर अर्चना तुमने कभी मेरे प्रेम को वह सम्मान दिया ही कहाँ हैं,उसे स्वीकार किया ही कहाँ है.फिर सारी बातें तो बेमानी ही हैं.
फिर भी मैंने निर्णय पूरी तरह से अर्चना के ऊपर ही छोड़ दिया था,यदि आज-कल वह मुझसे शादी के लिए तैयार होती है तो मैं भी तैयार हूँ.
"हुआ ही नहीं है,कोई बयां ऐसा अभी,
कि ऐ ख़ुशी तुम,मिला करोगी हमें कभी-कभी"
अर्चना ने मुझे देख,मेरे साथ कालेज के द्वार तक आई.सबसे पहले उसने मुझसे अपने घर के विषय में पूछा,मैंने अनभिज्ञता प्रगट कर दी.मैंने उससे कहा,"चलो चलते हैं,रास्ते में बातें करेगें."
वह लगभग टालने वाले अंदाज़ में बोली,"नहीं,अभी मुझे मेरी एक सहेली के साथ जाना है."
फिर बामनिया भी साथ में चलने से इंकार कर दिया.मैंने कहा कि अच्छा कल मिल लेते हैं तो उसने उससे भी मना कर दिया.
बहुत थोड़े समय के लिए,शायद पूरे साठ सेकेण्ड के लिए ही हमारा यह मिलन था और यह वही अर्चना थी,जिसने मुझे पूर्व में भी कई बार आहत किया था.उन्हीं भाव-भंगिमायों के साथ.पल भर में ही मैं,मैं नहीं था.
'घर बनाया था एक,सपनों से लड़-लड़कर,
पर उन्हीं दीवारों में वही आँसू निकले."

मेरे आँसू,अन्दर ही अन्दर मुझे फिर तप्त करने लगे.मैं और मेरे सपने एक बार फिर चटखने लगे.
मैं क्या करता.....?
मैं कलिंग-विजेता अशोक की तरह सिर झुकाए चुपचाप वहाँ से घर की और चल दिया.
'जाने क्यों कर बैठे थे हम वादा,उम्र भर साथ निभाने का,
इस दौर में जबकि हर रिश्ता,दो-चार दिन का बहुत हुआ करता है,'
मैं बहुत-बहुत तन्हा घर लौट आया.
इतिहास ने स्वयं को दोहराया था.जब मैं ममता से स्वयं को अलग करने की मनःस्थिति में लगा हुआ था,तब वह भी फागुन माह ही था.आज भी फागुन माह ही है.फ़र्क आज सिर्फ़ इतना है कि आज मैं अर्चना से मानसिक रूप पूरी तरह अलग हो गया हूँ.जबकि ममता से मुझे मानसिक रूप से अलग होने में कई महीने लग गए थें.ममता मेरे जीवन का वह स्पंदन है,जिससे मैं आज भी स्पंदित होता रहता हूँ.ममता से मुझे कोई शिकायत-शिकवा नहीं था,पर उसे था और शायद ता-उम्र रहेगा भी.यह उसका कोई श्राप ही है जो रूप बदलकर ही सही मेरे सामने आज बनकर खड़ा था और इतिहास को दोहरा रहा था.
'अपनी पीड़ाओं से परे,
और नहीं है कोई इतिहास मेरा...."
प्यार आज फिर तुम मुझे छल गए.
"साक्षी गोपाल,
नाच्यौं मैं भी बहुत....'
मैं दुखी था और यह स्वाभविक भी था,आखिर यह चुनाव तो मेरा ही था तो फिर किसको दोष देने जाता.पर निराश नहीं था क्योंकि इस परिस्थिति के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार था.सिर्फ अर्चना ही तो मुझसे अलग हुई है,शेष जीवन तो मेरे पास है ही.अब इसके लिए इस खण्डहर में अरण्य-रोदन कौन करे.
ममता, आज तुम इस रंगमंच पर नहीं हो.अगर होती तो अपने ही किसी श्राप को फलीभूत होते देखतीं.क्या मैं इसी लायक था.तुमने तो मुझे जाना था-समझा था.देखो आज मेरा समूचा अस्तित्व एक प्रश्न-चिह्न अपने पर चस्पा किये खड़ा है.तुम भी मेरे जीवन में ऐसे ही अनाहट आइन थीं और फिर एक दिन ऐसे ही अनाहट चली भी गईं थीं.मैं तुममें और अर्चना में कोई समानता नहीं खोज रहा हूँ.तुममे और अर्चना में कोई साम्य हो भी नहीं सकता है.पर आज तुम बहुत याद आ रही हो.न जाने क्या बात है.तुम्हारे साथ ही तो प्यार से मेरा पहला परिचय हुआ था.तुम्हारे कारण ही तो मैं इस जगत को समझ पाया था.वह तुम ही थी जिसने,जिसने मुझ आवारा को सुधार था,सभ्य बनाया था.तुम्हारे साथ उस युग में सब-कुछ अलग ही था.तुम्हारे जाने के बाद से और अर्चना के आने तक जीवन में वैसे तो कई पढ़ाव आये,पर मैं उन सभी को दरकिनार करता चला गया.वह प्रेम तो था,पर मैं प्रेमी नहीं था.अतः मैं अपना डेरा समेत कर चल देता था.यायावर जो ठहरा.
"प्रेम का प्रतिदान.
प्रेम ही है,
जानता है यह अखिल-विश्व,
फिर भी कह जाता है -
क्यों कोई किसी से -
-नहीं."

और फिर अर्चना,तुम आई मेरे जीवन में.पर शायद तुम मुझे समझ नहीं सकी.यह मेरा भ्रम ही था कि तुमने मुझे समझ लिया है.पर सच तो यह था कि तुम स्वयं को ही कहाँ समझ पाई थीं.तुम भी तो इस अखिल-विश्व की एक इकाई थीं,तुम्हे भी प्रतिदान में प्रेम ही देना था.यह तुम जानती-समझती थीं,फिर भी 'नहीं' ही कह पाई.हालाँकि तुम्हारे साथ मैंने अपने जीवन के बहुत कम पल बीताये.तुम्हारे साथ का युग,समय और मैं,तीनों ही भिन्न थें.उस समय मेरे पास आत्मविश्वास था.संभावनाओं के सूत्र मेरे हाथ में थें.तमाम प्रतिकूलताओं के चलते भी परिस्थिति मेरे अनुकल थीं और जहाँ नहीं थीं,वहां मैं उन्हें अपने अनुकूल बनाने में सक्षम था.जीवन-धारा मस्ती से कलकल कर बही जा रही थी.तात्पर्य यह कि तब मैं ही मैं था और गगन में यहाँ-वहां पंख फैलाये उड़ रहा था.और फिर जब तुम जीवन में आईं तो तुम्हारे आते ही मैं मिटकर फिर प्रेमी होने चला था कि अचानक इतिहास वर्तुल गति से अपनी पंक्तियाँ दोहरा गया.एक अंतहीन नाटक सूत्रपात कर गया.दुःख भरे प्रहसन का सूत्रपात.आज मुझे यह गाथा लिखते हुए पूरे तेरह दिन हो गए हैं.हिन्दू-विधि के अनुसार कहूँ तो आज हमारी संभावनाओं-कल्पनाओं-इच्छाओं--उत्कंठाओं-सपनों और प्रेम आदि की तेहरवीं है.

"बनाते रहे कागज़ों पर इबारतें नित्य नई,

कभी कविता की-कभी कहानी की,

अपनी कहानी कोई सुना न सके,

गीत कोई गुनगुना न सके."

अंततः अर्चना चली गई.अर्चना-आर्ची मेरे जीवन-प्रांगण से चली गई और मैं फिर,फिर अकेला रह गया.रह गए यह कागज़,यह कलम और यह शब्दों का अंतहीन प्रवाह.

ममता के जिस स्पर्श से मुझे प्रेम की पहली अनुभूति हुई था,मैं कह सकता हूँ कि मेरे लिए प्रेम का जन्म उसी दिन हुआ था और अब प्रेम का मैं कहीं भी अंत नहीं पाता हूँ.ममता के साथ चला यह अंतहीन सिलसिला,जहाँ मैं प्रेमी बनकर इस प्रेम को जीता रहा.कई लोग आये-कई लोग विदा हो गए.कई जगह मैं आया-गया,कहीं-कहीं पढ़ाव भी डाले और यह यायावरी चलती रही.पर अभी-अभी अर्चना के मन-आँगन में आने के बाद मुझे लगता था कि मेरी इस आवारगी को-इस यायावरी को एक ठौर मिल जायेगा.एक स्थिरता आ जायेगी.पर अब पुनः एक नए सफ़र की तैयारी में संलग्न हो गया हूँ.दुखों का अपना महत्त्व है क्योंकि दुःख ही सुख की कामना पैदा करते हैं और सुख की कामना जीवन के प्रति समर्पण का भाव पैदा करती है.हम हारते हैं तो फिर लड़ते हैं,जीतते हैं तो नई लड़ाई के लिए आतुर हो जाते हैं.यही वर्तुल गति सुख-दुःख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद,प्रेम-घृणा के मध्य चलती रही है. अनवरत-अंतहीन,क्योंकि जीवन में कोई भी वर्तुल गतिहीन नहीं होता है और हर गतिशील वर्तुल अंतहीन होता है.अंतहीन इसलिए कि कोई भी एक सिरा तय कर पाना असंभव होता है.प्रेम भी ऐसा ही होता है,अंतहीन-वर्तुलाकार,बिना किसी कारण के.किसी को किसी से प्यार क्यों हो जाता है,इस प्रश्न का उत्तर तो विधाता के पास भी नहीं होगा.मैं भी कहाँ कुछ जान पाया हूँ जो कुछ भी कह सकूँ.

अतः मैं भी दुःख मनाने बैठ जाऊँ,ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि इस वर्तुल में मैं एक बार फिर कहीं प्रेम का स्पर्श करुगाँ,यह तय है.चाहे उसके लिए मुझे कितना ही समय क्यों लग जाए.इस तरह इस अंतहीन श्रृंखला में न तो दुखों का शौक मनाना चाहिए और न ही सुखों उत्सव,क्योंकि प्रेम से बड़ा न कोई उत्सव है और न ही उस प्रेम से उपजी पीड़ा से बड़ा कोई दुःख है.यह जीवन है या यही जीवन होना चाहिए,ऐसा मैं नहीं कहता हूँ.मैं तो सिर्फ अपनी कहता हूँ.

"लुटा दी हैं चान्दनियाँ सब

तुझ पर, तब सूरज से रिश्ता बनाया है."

आसमान पर सूरज आज भी उसी जगह पर है जहाँ वह सदियों से है.चाँद भी वहीँ है,जहाँ वह सदियों से हैं और यह आसमान भी.......और सब कुछ तो अपनी जगह पर है.मौसम भी उसी तरह से आ-जा रहें हैं,आते-जाते रहेगें.इस पूरे ब्रहमांड में,जहाँ हर पल कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है,तब मैं भी जो इसी ब्रहमांड का एक अणु हूँ तो यदि मैं भी परिवर्तन से गुजरता हूँ तो इसमें आश्चर्य क्या.'शिव-सूत्र' में त्रिपुरारी शिव,माँ पार्वती के इस प्रश्न कि जगत में परिवर्तन क्या है,का उत्तर देते हुए कहते हैं कि -"यह जगत परिवर्तन का है और परिवर्तन को परिवर्तन के द्वारा विसर्जित करो."

मुझे भी यही करना होगा.इस परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा.और जो परिवर्तन हुआ है उसे नए हो रहे परिवर्तन के साथ विसर्जित करना ही होगा.

मैंने सदा इस परिवर्तन को स्वीकार किया भी है.ऐसा भी नहीं है कि मैं कोई संत हूँ जो किसी परवर्तन से पूरी तरह अप्रभावित रहूँ.मैं संत नहीं हूँ, मैं राज हूँ.खुशियों को भी जीया है - आंसूओं को भी जीया है.प्रेम को भी जीया है-घृणा को भी जीया है.दुःख को भी स्वीकार किया है और सुख को भी छुआ है.व्यवहारिक को भी माना है और भावनाओं का मूल्य भी चुकाया है.चुप-गुपचुप भी रहा हूँ.बोल-बोल कर मुँह को भी थकाया है.नाचा-गाया भी हूँ और आँखों को आँसुओं से भर-भरकर धोया भी है.जीवन को जीने के लिए जो भी सर्कस कर सकता था,सब किया है.आगे भी यह सर्कस जारी रहेगा.पर कितना और कहाँ तक यह देखना अभी बाकी है.

"इसी मंच पर,

इस पार मैं -

उस पार तुम सूत्रधार,

फिर भी हम खेल रहे हैं.

हमारा नाटक, "जीवन नैया"

बस यह शब्द ही मेरे हर परिवर्तन के साक्षी रहे हैं. मैंने भी हर परिवर्तन को शब्दों में ढालकर अपने ही अक्सों को सम्हाल कर रख लिया है.एक दिन, जब मैं नहीं रहूगाँ, तब यही शब्द-चित्र मेरे बिम्ब बनकर दृष्टिगोचर होते रहेगें.मृत्यु शाश्वत है और अब मुझे उसी शाश्वतता की - उस मृत्यु-उत्सव की प्रतीक्षा है.

अगर मेरे पास लेखन की क्षमता नहीं होती तो शायद मैं मैं नहीं रह जाता.क्या होता ठीक-ठीक नहीं कह सकता.पर मैं अपना ही सच स्वीकार करता हूँ कि यदि मैं लिखूं नहीं तो अंतरतम में जो उमड़ता-घुमड़ता रहता है, वह बात बनकर बाहर नहीं आ पाता है.

"किसी घाट जो ठहर जाता,

तो बहता कैसे कल-कल कर,

मुड़ जो जो न जाता कहीं,

तो गिरता कैसे बन निर्झर,
अपनी अश्रु-अर्चना से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

बस यही इतिहास रहा है मेरा.हमेशा निर्झर बनकर बहता रहा हूँ.प्यार के इस दरिया में मैंने एक लम्बा रास्ता तय किया है.प्यार के कई घाटों पर ठहरा-थमा भी पर यह सब किनारे ही बनकर रह गये.मैं अपने साथ किसी भी किनारे को निर्झर नहीं बना पाया.अपने साथ चलने को राजी नहीं कर पाया.यह मेरा प्रारब्ध.शायद मेरे नीर में ही वह कल-कल का मधुर नाद नहीं होगा कि कोई मेरे पीछे-मेरी दीवानगी में निर्झर बन मेरे साथ हो लेता.मैं ही अपने में हैमलिन के बांसुरी वादक-सा जादू नहीं जगा पाया.किसको दोष दूँ और क्या दोष देने से मेरे सारे दोष ढँक जायेगें,नहीं,कभी नहीं.

शब्दों से बहुत खेला लिया हूँ,फिर भी शब्दातित ही हूँ.आज कई अनकही बातों को शब्दों में ढालकर सूत्रधार बनना चाहता हूँ.पर यह सूत्रधार भी कितना कमज़ोर है,इस मंच पर रहा तो बहुत देर तक पर फिर भी अभी कुछ छूट गया-सा लगता है.इस पागल सूत्रधार को न जाने किस प्रेम के मृदुल स्पर्श की प्रतीक्षा है.

"कि एक दिन कोई आता,

पकड़ अंगुली चंचल सुखमय की,

चल देता यह अवसाद घट -

छोड़ कथा इस औघड़ की.
अपनी तथा-कथा से परे -

और नहीं है कोई इतिहास मेरा."

आज ग्रीष्म की इस भरी दुपहरी में मैं इस कथा का अंत करने जा रहा हूँ.यह राज अब अपने को समेटने जा रहा है,वही राज,जिसने इस कथा का प्रारम्भ किया था,जब कल सुबह होगी तो वह परिवर्तित होकर दूसरा ही राज हो जायेगा.कल से मैं राज,एक नए राज के साथ शुरुआत करुगाँ,फिर कहीं किन्हीं पन्नों में सिमट जाने के लिए.बहुत वर्षों के बाद लिखा और अपने अवसाद के बाबजुद पूरे आनंद के साथ लिखा.

होली के रंग भी देखे.उदयपुर - नाथद्वारा के ढंग भी देखे.खूब गुलाल लगाया.श्रीनाथ श्रीकृष्ण के साथ होली की मस्ती भी की और प्रेम के सारे रंग उन पर ही उड़ेलकर स्वयं प्रेम ही हो गया.

"शूल हुए हाथों से -

पूजे हमने देवता हमारे,

एक सूखी नदी में -

अर्पण हुए श्राद्ध हमारे,
कोई नहीं नेह-बंधन अब,

छूटे उम्र के सब मतवारे,


भटक आये द्वारे-द्वारे,

मेरे दीप के उजियारे."


- शेष फिर.......!

====== समाप्त =======
आभार -
मैं यह पूरा उपन्यास अपने उस मित्र को समर्पित करता हूँ,विशेषकर यह अंतिम भाग,जिसके एक प्रश्न ने मुझे अपने इस उपन्यास को पुनः लिखने को प्रेरित किया.उसके बिना यह उपन्यास मेरे पास ही कागज़ों में कहीं गुम पड़ा रहता.उस मित्र को साधुवाद.

आप सभी सुधिजनो का जिनकी प्रतिक्रियाओं से मैं उर्जित होता रहा.

स्वयं का,इसे पुनः लिखते हुए मैं जिन परिस्थिति से गुजरा हूँ,जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरा हूँ और जिन दुखो को पुनः जीया है,उसमें भी अपना हौसला बनाये रखने के लिए. ---- ------------------------------------------



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