सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

मेरा कथा-संसार.

(कहानी) अर्चना

वो सुबह ,शायद अन्य सभी सुबहों से कहीं अलग थी,जब जलज को जीवन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान के दर्शन हुए थे.जलज के लिए वह सुबह भी उसके जीवन के बीते चौबीस सालों की तरह ही गुजर जाती यदि उसे उस दिन सुबह वह सांवली-सी लड़की कोटरा के बस-स्टाप पर नहीं मिलती.कंधे पर स्कूल बेग लटकाए,गहरी काली आँखों से उसने जलज को देखना शुरू किया तो जलज को लगा कि मानों वह उसके अन्दर कुछ ढूंढ़ रही हो और फिर जैसे वह सांवला उसमें ही खोने लगा हो और जलज भी, जो पहले तो थोड़ा असहज महसूस कर रहा था,वह भी उसमें कुछ खोजने लगा.उसका धड़कता मन कहने लगा,"जलज यही है तेरा प्यार."
फिर तो सब यंत्रवत-सा हुआ.कब बस-स्टाप पर बस आई और कब वह दोनों उसमें चढ़े,उन्हें पता ही नहीं चला और कब जवाहर चौक आ गया और..... ! जलज को जाना था कहीं और और वह पँहुच गया उस सांवली-सलोनी के स्कूल.यह भी कैसे हुआ और कब हो गया यह भी पता नहीं चला.फिट तो यह सिलसिला चल पड़ा.जलज रोज़ कतरा के बस-स्टाप पर पँहुच जाता,फिर दोनों वहीँ से बस में चदते और फिर एक-दुसरे को देखते-देखते सफ़र तय कर डालते.
फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह आई,फिर शाम आई,फिर सुबह....फिर शाम....! आखिर एक दिन दोनों का परिचय भी हुआ.दोनों मुस्कुरा भर दिए.नाम के अलावा और क्या परिचय हो सकता था,फिर मिले भी कुल दो-चार सेकेण्ड थें.हर समय धीर -गंभीर बनी रहने वाली वह आज ही तो मुस्कुराई थी.अब हर सुबह जलज कोटरा बस-स्टाप पर होता और शाम उसकी यादों के साथ होता.जलज हमेशा हर काम में ध्यैर्य रखने वाला,उस दिन शाम को उसे अकेला पाकर,अपने को संभल नहीं पाया,बोल उठा."अर्चना....मैं तुमसे प्यार करता हूँ.....!"
और वह लड़की,वो अर्चना,विधायक आवास गृह के पास फुटपाथ पर मानो उसकी फर्शियां गिनती हुई चल रही हो.पल भर के लिए उसकी गहरी-काली आँखें उठी और फिर झुक गई उन्हीं फर्शियों पर.कोई उत्तर नहीं दिया और कोई उत्तर न पाकर जलज और धड़क उठा,और असहज हो उठा.पर सिलसिला यहीं नहीं रुका.कभी उन फर्शियों को गिनते-गिनते,कभी जवाहर चौक से नेहरु नगर तक बस और टेंपो के चक्करों जलज कहीं न कहीं प्यार के धागों में मोती के मनकों की तरह उलझ गया था.और उधर वो अर्चना भी.....पता नहीं,वो तो चुप ही थी.जलज जान नहीं पा रहा था कि उसकी धड़कनों में भी वो तूफान उमड़ रहा है या नहीं जो उसका जीना मुश्किल किये हुए है.हर बार जलज मौका पाकर कहता,"अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ." हर बार अर्चना चुप रह जाती.
जलज प्रति दिन अपना धड़कता मन लेकर घर से निकलता और धड़कता मन लेकर ही लौट आता.सोचता,यह अर्चना किस दिन मुझसे कहेगी,"हाँ जलज...मेरे जलज....मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ,जितना कि तुम मुझे...."इस तरह जलज अर्चना के सपने देखता और सपने में अर्चना को देखता.हर वक़्त उसकी यादों-उसकी कल्पनाओं में खोया-खोया रहता.कल्पना और सपनों के धरातल पर नित्य नये सपने बुनता रहता-नई बातें करता रहता.उसे लगता,क्या अर्चना भी सपने में मुझे देखती होगी ?यूँ तो करने को ढेरों बातें थी करने को उसकी जिंदगी में,पर अब मनो सब अस्त-व्यस्त हो गया हो.क्या प्यार के आगे दुनिया कुछ भी नहीं है?
एक दिन - एक सुबह हजारों बार की तरह जवाहर चौक पर जलज कह उठा,"सुनो अर्चना, मैं तुमसे प्यार करता हूँ."
पहली बार अर्चना बोली,"एक ही वाक्य हज़ार बार कहने से क्या अर्थ है?"
"ताकि तुम भी कहो की जलज मुझे भी तुमसे प्यार है."
वह हंस पड़ी,"कभी आईने में अपनी सूरत देखी है?"
अधीर जलज ने कहा,"हाँ अर्चना, तुम्हारी इन गहरी काली आँखों में मैंने कई बार अपने को देखा है.अब तुम कभी आईने के सामने कड़ी होकर देखना,अपनी ही इन गहरी काली आँखों में झाँकना,,,,तुम मुझे वहीँ पाओगी."
"..........................."
"तुम अब चुप क्यों हो गई अर्चना...."
"तुम्हारे इस पागलपन का क्या जबाब दूँ,यही सोच रही हूँ."
धड़कते मन वाले जलज ने कहा,"कुछ मत सोचो......कोई जबाब मत दो.बस मुझे इतना भर बता दो कि तुम मुझसे प्यार करती हो,बिलकुल वैसे ही जैसे मैं कह देता हूँ."
अर्चना चिहुंक उठी,"मैं क्यों करूँ तुमसे प्यार.क्या तुम्हे कोई और लड़की नहीं मिली?"
हवा में मुक्का-सा लहरता हुआ जलज बोला,"हाँ, बहुत सी लड़कियां मिली,पर उनमें से किसी के पास भी तुम्हारी तरह गहरी काली आँखें नहीं थीं,उनमें से कोई भी अर्चना नहीं थी."
"तो ढूंढ़ ली,ऐसी लड़की तो कहीं भी मिल जायेगी."
"अब मैं तुमसे आगे नहीं जाना चाहता हूँ."जलज ने धीर-गंभीर स्वर में कहा.
"तो मत जाओ....पर इतना जन लो कि मैं भी तुमसे प्यार नहीं करती हूँ."
यह सुनकर जलज आहत हो गया,फिर उसी आहत मन से बोला,"अच्छा चलो तुम मुझसे प्यार मत करना......कभी मत करना.पर अर्चना, मेरी इस बीती-ताहि ज़िन्दगी में केवल एक ही इच्छा है कि तुम मुझे प्यार करो...पल भर के लिए ही...झूठा ही सही.....पर मुझे प्यार करो.बस एक बार सिर्फ झूठमूठ ही सही,पर मुझे प्यार करो अर्चना,इससे आगे मेरी और कोई इच्छा नहीं है."
"............."और फिर मानो अर्चना के पास कहने को कुछ भी नहीं रह गया हो.

उस शाम सूरज बहुत ही तन्हा होकर डूब गया.जलज बड़े तालाब के किनारे खडा-खडा उसे डूबता हुआ देखता रहा.देखता रहा और सोचता रहा कि क्या अर्चना उससे सचमुच प्यार नहीं करती है.क्यों प्यार नहीं करती है,क्या कमी है उसमें.क्या अर्चना उसे एक झूठा पल भी नहीं दे सकती है,वह पल जिसे पाकर वह तृप्त हो जायेगा-कृतार्थ हो जायेगा......शायद यही उसका मोक्ष भी हो.
सोचते-सोचते बड़े तालाब के किनारे रह गया लहरों का करतल और उसका उदास मन.और रह गए जीवन के ढेरों प्रश्न,जिनका उत्तर वह ढूंढ़ नहीं पाया था या उत्तरों की उन टेडी-मेढ़ी पगडंडियों में कहीं उलझकर रह गया था.क्या प्यार म कोई असफल होता है.....लहरों का करतल वहीँ छोड़कर जलज अपना उदास मन लिए घर लौट चला.
जलज,वह पागल फिर सपने बुनने लगा.पल-दर-पल....अनगिनत पल तो जलज ने सपने देखकर ही गुजार दिए.वह नियमित रूप से जवाहर चौक पहुंचता,फिर बस या टेंपो से कोटरा तक.कोशिश करता कि अर्चना उसके सामने ही बैठे और ऐसा होता भी,वह भी उसके सामने ही आकर बैठती.कभी वह उसे देखता और कभी अर्चना अपनी गहरी काली आँखों से उसे देखती.कभी दोनों इतने क़रीब होते कि जलज को लगता कि अभी अर्चना का हाथ पकड़कर चूम ले-कभी इस तरह क़रीब होते कि साँसों से साँसें टकराती-सी महसूस होती और जलज को लगता कि वह उसके भाल पर एक चुम्बन टाँक दे और जिस एक झूठे पल की प्रतीक्षा में जी रहा है उसे यूँ ही सही-जबरदस्ती ही सही पर सचमुच जी ले.
उसने फिर कई बार अर्चना को उस एक पल की याद दिलाई,पर हर वह हँसकर टाल जाती,कहती,"ऐसी भी जल्दी क्या है,सोचो,अगर वो पल आया तो उस पल को गुजरते हुए कितना समय लगेगा.फिर क्या करोगे?"
जलज कहता,"तब मैं उस पल को अपनी मुठ्ठी में क़ैद कर लूगाँ,ऐसे....." और फिर वह मुठ्ठी बनाकर दिखता.
अर्चना हँस पड़ती,"मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी ठहरा है कहीं आज तक जो तुम यह सब करने चले हो.पागलपन है यह.अपना पागलपन कम करो.ऐसा कहीं होता है?"
जलज भी पलट कर कहता,"अरे अर्चना तुम मुझसे प्यार तो करो,मैं तुम्हे मुठ्ठी में रेत और छन्नी में पानी भी ठहराकर दिखाऊगाँ."
"पर वह पल तो झूठा होगा."
"झूठा ही सही,पर तुम मुझसे प्यार तो करो."


ऐसे ही जब अंगड़ाईयों पर अंगड़ाईयाँ लेते हुए मौसम पर मौसम बीत चले,तब एक स्वर्णिम सुबह के बाद.....एक सुनहरी श्यामल शाम के बाद,जब चिर-प्रतीक्षित धड़कती सुहागरात आई तो,जलज ने अर्चना का घूँघट उठाकर कहा,"चलो,आज तुम मुझे पल भर के लिए ही सही,झूठा ही सही,पर प्यार करो....."
अर्चना का सर्वांग लजा उठा,वह जलज के इस तरह छेड़ने पर बोली,"जलज,वह झूठा पल मेरी ज़िन्दगी में न पहले कभी आया था और न ही कभी आएगा."
"क्यों....?"जलज ने आश्चर्य से पूछा.
"क्योंकि झूठा प्यार पाने की-करने की तुम्हारी इच्छा थी और मैं,यदि मुझे किसी से प्यार करना ही है तो मैं उसे झूठा प्यार क्यों करूँ...." अपनी उन्हीं गहरी काली आँखों से,जिसमें जलज डूबा हुआ था,जलज की प्यार भरी-प्रश्न भरी आँखों में झाकते हुए अर्चना बोली,".........उसे सचमुच ही प्यार करूँ न.जलज....."
"........"
"जलज....."
"हूँ.......!"
"जलज,मैं तुमसे प्यार करती हूँ....."अर्चना लाज से और सिमट गई यह कहकर.
फिर आने वाले कई पल चुप,गुपचुप गुजरे,पर खाली नहीं.आज जलज के सामने था एक आश्चर्य,वही शब्द,वही शब्द,वही आवाज़,वही अंदाज़,वही चेहरा.....जिसकी उसे न जाने कितने युगों से प्रतीक्षा थी,जिसका वह आराधक था.उसका वही प्यार,वह पल भी अब किसी एक पल के लिए नहीं वर्ण जन्म-जन्मान्तर के लिए उसके पास थें,उसके अपने बनकर.कोई प्यार क्यों करता है,मुठ्ठी में रेत या छन्नी में पानी जमता है या नहीं.....अब जलज और अर्चना दोनों ही इन सवालों से बहुत दूर थें.सितारों भरी-चांदनी से नहाकर आई इस गुजरती रात में गुजरते चुप पलों की चुप्पी तोड़ते हुए जलज बोला,"अर्चना......"
"हूँ बोलो......"
"अर्चना....."
"हूँ..........."
"अर्चना......"
"..............."
"................"



फिर सुबह होने तक दोनों प्रेमी चाहकर भी कुछ न कह सके.
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