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सोमवार, 10 मई 2010

.....तुम्हारा दौड़ना.

इस धरा पर -
जब से खोली हैं हमने आँखें,
तुम्हे दौड़ता ही पाया है.
पहले हमारे बचपन को सहारा देने के लिए,
उसकी शरारतों को अपने आँचल से ढंकने के लिए,
हमे शिक्षित-संस्कारवान बनाने के लिए,
फिर हमारी सुघढ़ जीविका के लिए-
तुम्हे नर्बदा के किनारे तक दौड़ता हुआ देखा है मैंने,
फिर जब तुम्हारे लालन-पालन की सीमा से हम सब बाहर हुए तो -
तब तुम हमारी गृहस्थी बसाने के लिए भी दौड़ पड़ी थीं,
वह तुम्हारे- तुम्हारी अपनी नौकरी से रिटायरमेंट के दिन थें,
पर बहुओं ने तुम्हे सेवानिवृत नहीं होने दिया,
हाँ तुम्हे अपनी पोती के पीछे कहीं ज़्यादा सुकून से दौड़ता हुआ पाया,

हमारी असीम इच्छाएं पूरी करने के लिए,
अलसभोर से देर रात तक तुम्हे दौड़ता हुआ ही पाया है.

पर.......आज जब,
तुम अपनी एड़ी की वज़ह से चल भी नहीं पा रही हो,
जबकि हम जानते हैं कि-
तुम्हे आज भी हमारे पीछे दौड़ना अच्छा लगता है,
यहाँ हममे से किसी के पास भी समय नहीं है कि -
तुम्हे फिर से दौड़ने के काबिल बनाने के लिए -
तुम्हारा इलाज करा सके,
आज हम सब-
अपनी-अपनी ही दुनियाओं में दौड़ लगा रहे हैं.

...........और तुम कहीं पीछे छूट-सी गई हो.

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