सुनो शब्दों - अरे ओ अक्षरों....

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

कविता, "कोई तुम-सा....,"

कोई तुम-सा....,

कोई तुम-सा,
रात स्वप्न में आकर छेड़ जाता है मुझे,
ख्यालों में हलचल मचा जाता है,
दिन भर काम में डूबे रहने के बाबजूद भी-
अचानक विचारों की एक श्रंखला बना जाता है,
शाम के डूबते सूरज के आगे बादल बन आ जाता है वो,

पता नहीं और मैं जानता भी नहीं-कि /
कौन है वो और -
क्यों इस तरह करता है,

ये शरारत है तो ठीक है,
ये मस्ती है तो ठीक है,
ये उसके जीने का एक आयाम है तो भी ठीक है,
मुझे भी कभी-कभी खुद को यूँ छेड़ा जाना अच्छा लगता है,
चाहता भी हूँ कि यह सिलसिला यूँ ही हर पल चलता रहे,
पर मैं - सीधा-सीधा यूँ तुम्हरी यादों का सामना नहीं कर पाता हूँ,
और -
कहता हूँ,
ये तुम नहीं.......,
कोई तुम-सा है.

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