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सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

हिन्दी सिनेमा

आज मैं हिन्दी सिनेमा के विषय में फिर से लिखने जा रहा हूँ. हिन्दी सिनेमा ने बीते एक दशक में वह काम किया है जो राष्ट्रवाद की धुरी पर कोई नेता नहीं कर पाया है और वह काम है देश को सही अर्थों में एकता का पाठ पढ़ाना.सिनेमाई एकता एक मेलोड्रामा लग सकती है पर सच यह है कि यही मेलोड्रामा बिना कोई भाषण दिए,बिना कोई उपदेश दिए,बिना कोई नारा दिए आपको अपने से-अपने देश से बांधे रखता है.यहाँ देशभक्ति कोई दिखावा नहीं वरन एक सच है,जिसे एक ही थिएटर में कई-कई समूह जो भिन्न-भिन्न वर्ग से आतें हैं,एक साथ बैठकर सिनेमा का आनंद लेते हैं और एक संतोष के साथ टाकिज से बाहर निकलते हैं.अपने निजी समारोह में फिल्मी गानों की धुन पर थिरकते हैं,बिना किसी पूर्वाग्रह के.यह लोग तब किसी भी आन्दोलन की परवाह भी नहीं करते हैं कि कौन मराठी है और कौन उत्तरी है या कौन इस देश के किस भाग से आया है,क्या करता है,कौन-सी भाषा बोलता है,किस संस्कृति को मानता है.सब बातें गौण हो जाती हैं, जब बात हिन्दी सिनेमा कि आती है,जहाँ सब-कुछ एक है,जहाँ सही अर्थों में भारत बसता है - भारतीयता बसती है.
आज इतना ही......शेष फिर.

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